– आर.के. सिन्हा
उत्तर प्रदेश के हाथरस में दलित कन्या के साथ बलात्कार और हत्या से सारा देश गुस्से में है। यह स्वाभाविक ही है। अब उत्तर प्रदेश सरकार से यही अपेक्षा की जाती है कि वह पकड़े गए आरोपियों को वही सजा दिलवाएगी जो निर्भया के दोषियों को मिली थी। लेकिन इस जघन्य कृत्य में भी कुछ लोग जाति खोजने से बाज नहीं आए। यह वास्तव में दुखद है। ये अपने को दलितों का शुभचिंतक मानते हैं। इनमें कुछ राजनीतिक दल और गुजरे जमाने के सरकारी बाबू भी शामिल हैं। ये कभी इन तथ्यों को देश के सामने नहीं लाते कि कुछ साल पहले ही एक दलित लड़की यूपीएससी की परीक्षा में भी टॉपर रही थी, युवराज वाल्मिकी जैसे दलित भारत की हॉकी टीम से खेल रहे हैं, देशभर में दलित डॉक्टर, इंजीनियर और जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में सफल भी हो रहे हैं। देश के राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद जी भी दलित समाज से ही आते हैं।
अच्छी बात यह है कि इन्हें करारा जवाब भी विश्वास से लबरेज और सफल दलित ही दे रहे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में संस्कृत की प्रोफेसर डॉ.कौशल पंवार गर्व के साथ बताती हैं कि हमें इस देश के संविधान ने बहुत कुछ दिया है। आरक्षण से दलितों को भारी लाभ हुआ है। हालांकि प्रोफेसर डॉ.कौशल पंवार यह भी कहती हैं कि हाथरस जैसी घटनाएं हर हाल में रोकी जानी चाहिए। उनकी राय से कोई इनकार भी नहीं कर सकता।
अफसोस कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल हाथरस और कुछ रिटायर हो गए ऊँचे सरकारी बाबू हाथरस की घटना के बहाने अपनी राजनीति कर रहे हैं। पहला सवाल इन सियासी जमातों से यह पूछा जाना चाहिए कि इन्होंने सत्ता पर काबिज रहते दलितों के हक में क्या किया? दलितों, पिछड़ों या समाज के किसी भी अन्य उपेक्षित वर्ग के हितों में बोलना कतई गलत नहीं है। उनके सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक उत्थान की मांग की ही जानी चाहिए। लेकिन यह सवाल तो पूछा जायेगा कि उपर्युक्त पार्टियों ने अपने शासनकाल में इन उपेक्षित वर्गों के लिए क्या किया? सच्चाई यही है कि इन्होंने दलितों को हमेशा छला है। उन्हें वोटबैंक से अधिक कुछ नहीं माना।
उप्र और महाराष्ट्र के दलितों में फर्क
आप उत्तर प्रदेश के दलितों की तुलना महाराष्ट्र के दलितों से करके देख लीजिये। महाराष्ट्र में हजारों दलित नौजवान आज के दिन सफल उद्यमी बन चुके हैं। वहां का दलित अब तेजी से बदल रहा है। वे सिर्फ नौकरी से लेकर शिक्षण संस्थानों में अपने लिए आरक्षण की ख्वाहिश भर नहीं रखते। वे अब बिजनेस की दुनिया में भी अपनी सम्मानजनक जगह बना रहे हैं। वे सफल उद्यमी बन रहे हैं। उन्हें सफलता भी मिल रही है। महाराष्ट्र के दलितों ने तो फिक्की, एसोचैम और सीआईआई की तर्ज पर अपना मजबूत संगठन भी बना लिया है। उसका नाम है “दलित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री” (डिक्की)। इसमें अधिकतर महाराष्ट्र से संबंध रखने वाले दलित उद्यमी हैं। महाराष्ट्र के दलित नौजवानों को डिक्की के जरिये पूंजी और तकनीकी सहायता तक मुहैया कराई जा रही है।
क्यों सरकार पर वार करते बाबू
अगर सियासत से इतर बात की जाए तो इधर देखने में आ रहा कि कुछ गुजरे जमाने के आला सरकारी बाबू भी अपने निहित स्वार्थ के लिये सरकार पर हल्ला बोलने में सक्रिय रहने लगे हैं। हाथरस गैंगरेप मामले में 92 रिटायर हो गए आईएएस और आईपीएस अफसरों ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिखा है। ये सरकार द्वारा बरती गयी कथित प्रशासनिक लापरवाहियों का जिक्र करते हैं। ये हाथरस की पीड़िता के लिए किसी भी कीमत पर न्याय सुनिश्चित करने की अपील करते हैं। इस पत्र में अशोक वाजपेयी, वजाहत हबीबुल्लाह, हर्ष मंदर, जूलियो रिबेरो, एनसी सक्सेना, शिवशंकर मेनन, नजीब जंग, अमिताभ पांडे आदि भी शामिल हैं। आप गौर करें कि ये अफसर दिल्ली दंगों की जांच में कथित गड़बड़ से लेकर हाथरस की घटना तक सरकार को फौरन पत्र लिख देते हैं।
दिल्ली, नोएडा और देश के दूसरे खास शहरों की पॉश कॉलोनियों में रहने वाले इन पूर्व अफसरों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष वजाहत हबीबउल्ला, दिल्ली के पूर्व उप राज्यपाल नजीब जंग, मोदी सरकार की निंदा करने का कोई भी मौका नहीं गंवाने वाले हर्ष मंदर, महाराष्ट्र और पंजाब पुलिस के पूर्व महानिदेशक जूलियस रिबेरो, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, पुरस्कार वापसी गैंग के प्रमुख सदस्य डॉ. अशोक वाजपेयी, अमिताभ पांडे और प्रसार भारती के पूर्व सीईओ जवाहर सरकार शामिल हैं। इन सबका वामपंथी और इस्लामवाद का इतिहास सर्वविदित है।
मंदर साहब से तो पूरा देश वाकिफ है। ये शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों को संबोधित करते हुए कह रहे थे-“हमें सुप्रीम कोर्ट या संसद से कोई उम्मीद नहीं रह गई है। हमें अब सड़क पर उतरना होगा।” मंदर के जहरीले भाषण को सैकड़ों लोगों ने सुना था। टीवी चैनलों ने प्रसारित भी किया था। जब उन्हें न तो संसद पर भरोसा रहा है और न ही सुप्रीम कोर्ट पर भरोसा है, तो दनादन सरकार को पत्र क्यों लिखते हैं। क्या उन्हें भारत की न्याय व्यवस्था और सरकार पर अब भरोसा पैदा हो गया है। अशोक वाजपेयी पुरस्कार वापसी गैंग के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहे हैं। उनसे भी एक सवाल पूछने का मन कर रहा है। क्या उनकी लेखनी से कोई आम पाठक वाकिफ है? कतई नहीं। और यही इनकी सबसे बड़ी असफलता है। ये और इनके जैसे तमाम कथित लेखक और कवि एक भी सफल रचना दे पाने में असफल रहे हैं, जो जनमानस को इनसे जोड़ सके। अब अशोक वाजपेयी जी भी हाथरस की घटना से दुबले हो रहे हैं।
याद करें कि ये सब महाराष्ट्र में साधुओं की नृशंस हत्या के वक्त मर्माहत नहीं हुए थे। इन्होंने तब महाराष्ट्र सरकार से कोई सवाल तक नहीं पूछा था। सवाल जूलियस रिबेरो ने भी नहीं पूछा। आखिर उन्हीं के राज्य में दो साधुओं को भीड़ ने पीट-पीटकर कर नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी थी। पर मजाल है कि रिबेरो या कोई अन्य अफसर बोला भी हो। अपने को मानवाधिकारवादी कहने वाले हर्ष मंदर की भी जुबान सिली रही। वे भी साधुओं के कत्ल पर एक शब्द नहीं बोले। अमिताभ पांडे या जवाहर सरकार के संबंध में टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं है। ये अपनी फेसबुक वॉल पर मोदी सरकार की नीतियों की मीन-मेख निकालते रहते हैं।
सवाल यह है कि क्या आप सच के साथ खड़े हैं? क्या आप देश के साथ खड़े हैं? अगर ये बात होती तो इन बाबुओं के पत्र पर किसी को कोई एतराज क्यों होता। कौन चाहता है कि देश में हाथरस जैसी घटनाएं हों? कोई भी सरकार इस तरह की भयावह घटना का समर्थन नहीं कर सकती। पर कोई भी सरकार अपना काम विधि और नियमों के अनुसार ही करती है। हर बात पर उसकी छीछालेदर करने का भी कोई मतलब है? सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों में कोई गड़बड़ हो तो सरकार को जरूर घेरिए। पर बिना तथ्यों के सरकार को घेरने से आपकी ही विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा हो जाएगा। फिलहाल, राज्य की पुलिस और प्रशासन पर पक्षपात का आरोप लगा है, मुख्यमंत्री योगी जी ने केस की जाँच सीबीआई को सौंपकर सही निर्णय लिया है।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)
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