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    इसरो के लिए रॉकेट के इंजन बनाएगी HAL, 208 करोड़ रुपये की लागत से प्लांट तैयार

  • September 27, 2022

    नई दिल्ली। हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड ने 208 करोड़ रुपये की लागत से एक इंटिग्रेटेड क्रायोजेनिक इंजन बनाने के संयंत्र (ICMF) का निर्माण किया है। इस इकाई में एचएएल इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन यानी इसरों के लिए रॉकेट का इंजन बनाने का कार्य करेगी। इस खबर के सामने आने के बाद शेयर बाजार में बड़ी गिरावट के दौरान कंपनी के शेयर 3.16 फीसदी की कमजोरी के साथ 3360.65 रुपये के लेवल पर कारोबार करता दिखा।

    राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू करेंगी उद्घाटन
    देश की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू 4500 वर्गमीटर में फैले और 70 हाईटेक उपकरणों से लैस इस संयंत्र का मंगलवार को उद्घाटन करेंगी। इस संयंत्र में भारतीय रॉकेटों के क्रायोजेनिक (CE20) और सेमी क्रायोजेनिक (SE2000) इंजनों का निर्माण और टेस्टिंग की सुविधाएं मौजूद होंगी।

    वर्ष 2013 में एचएएल और इसरो के बीच हुआ था करार
    बता दें कि वर्ष 2013 में एचएएल के एयरोस्पेस डिवीजन में क्रायोजेनिक इंजन मॉड्यूल के निर्माण की सुविधा स्थापित करने के लिए इसरो के साथ एक एमओयू पर हस्ताक्षर किया गया था। इसके बाद इसमें 208 करोड़ रुपये के निवेश के साथ आईसीएमएफ की स्थापना के लिए 2016 में संशोधन किया गया।


    2023 से शुरू जाएगा मॉड्यूल का निर्माण
    एचएएल की बेंगलुरु स्थित मुख्यालय की ओर से सोमवार को जारी एक बयान में कहा गया है कि रॉकेट इंजन्स के निर्माण और असेंबलिंग के लिए सभी जरूरी उपकरण स्थापित कर दिए गए हैं। इस संयंत्र में मार्च 2023 से माड्यूल तैयार होने शुरू हो जाएंगे। बता दें कि हिंदुस्तान के एयरोस्पेस डिविजन में पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (PSLV), जियोसिंक्रोनस सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (GSLV MK-II) और GSLV MK-III के लिक्विड परोपेलेंट टैंक व लॉन्च व्हीकल स्ट्रक्चर का निर्माण किया जाता है।

    क्रायोजेनिक इंजन के निर्माण में चुनिंदा देशों को ही हासिल है महारत
    एचएएल की ओर से जारी बयान में यह भी कहा गया है कि कंपनी बेंगलुरु स्थित संयंत्र में इसरो को एक छत के नीचे ही पूरी रॉकेट इंजन मैन्युफैक्चरिंग की सुविधाएं मुहैया कराएगी। उसके अनुसार दुनिया भर में लॉन्च व्हीकल्स में बड़े पैमाने पर क्रायोजेनिक इंजन्स का इस्तेमाल होता है। क्रायोजेनिक इंजन्स की जटिलता को देखते हुए अमेरिका, फ्रांस, जापान चीन और रूस जैसे कुछ बड़े देश ही इसके निर्माण की तकनीक में महारत रखते हैं।

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