– लोकेन्द्र सिंह
उत्तराखंड के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल अल्मोड़ा के बारे में आप सबने सुना होगा। अल्मोड़ा अपने सुरम्य वातावरण के साथ ही साहसिक गतिविधियों के लिए पर्यटकों को आमंत्रित करता है। अल्मोड़ा अपनी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा और वन्य जीवन के लिए प्रसिद्ध है। यह तो हुई हिमालय की गोद में बसे विश्व प्रसिद्ध अल्मोड़ा की बात। यदि मैं आपसे कहूं कि ग्वालियर में भी एक अल्मोड़ा है, तो आप हैरान रह जाएंगे। जी हां, ग्वालियर में भी सुरम्य वातावरण और ऊंची-नीची पहाड़ियों की गोद में ‘अल्मोड़ा’ मुस्कुरा रहा है। आमखो से सटी विशेष सशस्त्र बल (एसएएफ) की पहाड़ियों पर पर्यावरण प्रेमियों ने निरंतर पौधरोपण करके सूखी पहाड़ियों का नाना प्रकार के वृक्षों से शृंगार कर दिया है। यहां कुछ हिस्सों में तो सघन वन विकसित हो गए हैं। ऐसे ही एक हिस्से को पर्यावरण प्रेमी डॉ. नरेश त्यागी ने विकसित किया और उसे नाम दिया है-अल्मोड़ा। यदि आप ट्रैकिंग के शौकीन हैं और प्रकृति की गोद में आनंद आता है, तब यह स्थान अवश्य ही आपके हृदय को प्रसन्नता से भर देगा।
‘अल्मोड़ा’ के सृजक डॉ. त्यागी को मालूम है कि मुझे जंगल में घुमक्कड़ी खूब भाती है। इसलिए लंबे समय से उनका आग्रह भी था कि “कभी अल्मोड़ा के लिए समय निकालूं”। अपने ग्वालियर प्रवास के दौरान 28 अगस्त को सामाजिक कार्यकर्ता निरूपम नेवासकर, कमल किशोर शर्मा और ललित जी के साथ हम त्यागी जी के घर ‘पारिजात निकेतन’ पर धमक पड़े। उनका घर अल्मोड़ा से ही सटा है और उस क्षेत्र में पारिजात के कई वृक्ष हैं। घर के नामकरण की कहानी आपको ध्यान आ गई होगी। हमने यहीं से अल्मोड़ा में प्रवेश किया। पहले चरण में हमने आसपास ही थोड़ा भ्रमण किया। पूरे क्षेत्र की मोटा-माटी जानकारी ली। डॉ. त्यागी जब यहां रहने आए थे, तब बड़े वृक्ष गिनती के थे।
कॉलोनी के ‘सफाई पसंद लोग’ भी अपने घरों का कचरा यहां फेंका करते थे। धीरे-धीरे त्यागी जी ने पड़ोसियों के सहयोग से यहां का वातावरण बदलना शुरू किया। वे निजी विद्यालय में हिन्दी के व्याख्याता हैं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्पित कार्यकर्ता भी हैं। विद्यालय से आने के बाद थोड़ा समय उन्होंने पौधों को देना शुरू किया। अवकाश के दिन सुबह ही अल्मोड़ा को अपने पसीने से सींचने पहुंच जाते। प्रतिवर्ष दक्खिनी बबूल, कटीला, मकोई आदि के झाड़ उगते थे लेकिन बकरी चरानेवाले और लकड़ी के लिए वृक्षों को नुकसान पहुंचानेवाले, इन झाड़ों को भी बढ़ने नहीं देते थे। जब उन्हें पेड़-पौधों को नुकसान पहुँचाने से रोकने का प्रयत्न किया जाता, तब वे विरोध में खड़े हो जाते।
डॉ. त्यागी ने स्थानीय जनप्रतिनिधियों एवं समाजसेवियों का साथ लेकर इस चुनौती का समाधान किया। इस कार्य में समाजसेवी रमाकांत महते, सुरेन्द्र यादव, नवनीत शर्मा, कर्नल साहब डॉ. आरएस भदौरिया, बीएम बोहरे, महिपाल सिंह भदौरिया, डॉ. नीरज शर्मा, राजपाल सिंह, शिवरतन सिंह चौहान, केपी सिंह भदौरिया, डॉ. दीपक यादव, हरिशंकर त्यागी, दिनेश शर्मा और पुलिस प्रशासन का उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त हुआ। यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक होगा कि पौधों के लालन-पालन में त्यागी जी की धर्मपत्नी कांती त्यागी और पुत्र हिमांशु का सहयोग भी रहा है। मुखिया की अनुपस्थिति में अकसर परिजन ही रोपे गए पौधों की देखभाल करते। उन्हें पानी देते। उनकी बागड़ को व्यवस्थित करते।
सबके प्रयासों से कुछ ही वर्षों में यहां नीम, कचनार, कनेर, आम, जामुन, कदम, पीपल, पाकर, बाँस, बरगद, खैर, आँवला, मीठा नीम, कटहल, नींबू सहित कई प्रकार के वृक्ष लहलहाने लगे। कभी बबूल के पेड़ों को देख-देखकर उदास बैठा अल्मोड़ा आज भांति-भांति के वृक्षों से सुशोभित होकर उल्लासित हो उठा है। कभी मंद तो कभी तीव्र हवा के प्रवाह से बांस, पीपल, जामुन की पत्तियां आपस में टकराकर मधुर संगीत की सुर-लहरियां कानों तक पहुंचा रही थीं।
जब हम अरण्य के संगीत का आनंद ले रहे थे तभी हमारे आनंद में और अधिक वृद्धि करनेवाला स्वर ‘पारिजात निकेतन’ से सुनाई दिया-“चाय तैयार हो गई है, ले जाइए”। आज प्रकृति के सान्निध्य में ‘चाय पे चर्चा’ का कार्यक्रम था। चाय पर चर्चा के दौरान ही डॉ. नरेश त्यागी और कमल किशोर शर्मा जी ने बताया कि अल्मोड़ा की तरह ही, इससे सटी दूसरी पहाड़ी पर बैंक ऑफ महाराष्ट्र से सेवानिवृत्त दिनेश मिश्रा और उनकी धर्मपत्नी ने ‘आनंद वन’ विकसित किया है। अपने बेटे के असमय निधन से दुखी मिश्रा दंपति ने पौधों को अपना पुत्र मानकर, उनके पालन-पोषण को ही अपने जीवन का व्रत बना लिया। हिन्दू धर्म में वृक्षों के महत्व को प्रतिपादित करते हुए एक वृक्ष की तुलना दस पुत्रों से की गई है-“दशकूप समावापी: दशवापी समोहृद:। दशहृद सम:पुत्रो दशपत्र समोद्रुम:।।”
एसएएफ के अधिकारियों एवं प्रात: भ्रमण के लिए आनेवाले आम लोगों के सहयोग से मिश्रा जी ने सूखी पहाड़ी को ‘आनंद वन’ से हर्षित कर दिया। पत्रकार शुभम चौधरी ने भी अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि कैसे पर्यावरण मित्रों ने लाल मिट्टी की सूखी पहाड़ी पर 12 हजार 885 पौधे रोपकर उसका रूप-रंग ही बदल दिया है। दिनेश मिश्रा के साथ इस काम में इंद्रदेव सिंह, रूप सिंह राठौर, अनिल कपूर, देवेन्द्र सिंह सहित अनेक पर्यावरण प्रेमियों का सक्रिय सहयोग रहा है। वन विकसित करना सरल कार्य नहीं है कि केवल पौधे रोपने भर से काम पूरा हो जाए। पौधों का पालन-पोषण भी करना होता है। उन्हें विकसित होने के लिए उचित वातावरण, आवश्यकतानुसार जल और खाद भी चाहिए होती है। पहाड़ी पर पानी की उपलब्धता नहीं थी, इसलिए सबसे बड़ी चुनौती पौधों को पानी देने की ही थी। इस समस्या का समाधान पर्यावरण प्रेमियों ने रचनात्मक ढंग से किया है।
चाय खत्म करने के बाद हम ‘अल्मोड़ा’ के दर्शन के लिए निकले। इस जंगल की खूबसूरती बढ़ाने एवं पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए यहां बारिश के पानी को रोकने के लिए दो छोटे स्टॉप डेम भी हैं। इसके कारण पहाड़ियों की तलहटी में मन को सुख पहुंचानेवाले सरोवर बन गए हैं। अपनी प्यास मिटाने के लिए यहां अनेक प्रकार के जीव-जन्तु एवं पक्षी आते हैं। डॉ. त्यागी ने बताया कि एक बार इस जंगल तक ब्लैक पैंथर भी आ गया था। हिरण वगैरह भी कई बार देखे जाते हैं। जहरीले सर्प भी इस जंगल में पाये जाते हैं। यह जानकारी मिलने के बाद अब हम संभल कर आगे बढ़ रहे थे।
अल्मोड़ा में देवी के दो मंदिर भी हैं। देवी का एक स्थान छोटा है, वहीं दूसरा बड़ा मंदिर है। दोनों ही स्थानों से पुलिस हिल और उसकी तलहटी में बसे इस जंगल की खूबसूरती का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। जंगल का आनंद लेने के चक्कर में समय थोड़ा अधिक हो गया। अंधेरा घिरने लगा था। मजेदार बात यह थी कि हमें जिस रास्ते से बाहर निकलना था, उससे हम भटक गए थे। जंगल में अंधेरा घिरने के साथ अब रोमांच और बढ़ गया था। जंगल की सुरक्षा की दृष्टि से पुलिस ने कंटीली तारबंदी कर दी थी।
जैसे-तैसे इस तारबंदी को पार करके हम अल्मोड़ा से बाहर निकलकर आनंद वन तक पहुंचे। बाहर से ही आनंद वन को प्रणाम किया और एक स्थान पर सुस्ताने के लिए बैठ गए। हम सब चंद्रमा को निहार रहे थे। भारत के महत्वाकांक्षी चंद्र अभियान के अंतर्गत 23 अगस्त को शाम 6:04 मिनट पर लैंडर ‘विक्रम’ की सफल लैंडिंग हुई थी, जिसमें से बाहर निकलकर रोवर ‘प्रज्ञान’ अब चंद्रमा की सतह पर चहल-कदमी कर रहा था। मैंने ऐसे ही आनंद लेने के लिए कहा कि “देखिए भाई साहब, चंद्रमा पर वहां प्रज्ञान घूम रहा है”। मेरे इस परिहास को पास में ही बैठे दो लोग सच मान बैठे और चंद्रमा की ओर देखकर ‘प्रज्ञान’ को ढूंढ़ने की कोशिश में लग गए।
ग्वालियर में अल्मोड़ा के दर्शन का यह प्रसंग सदैव स्मृतियों में रहेगा। हमारे लिए सीखने, समझने और प्रेरणा लेने का मामला भी है कि यदि आप चाह लें तो बंजर जमीन को भी हरियाली की चादर ओढ़ा सकते हैं। क्या हम पर्यावरण संरक्षण के इन प्रयासों का अनुकरण नहीं कर सकते? क्या हम अपने आसपास छोटे-छोटे ‘अल्मोड़ा’ और ‘आनंद वन’ खड़े नहीं कर सकते? जिनसे हमारा जीवन है, अपने जीवन से उनके लिए थोड़ा समय निकालना ही चाहिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
©2024 Agnibaan , All Rights Reserved