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    गुरू अर्जुन देव: धर्मरक्षक व मानवता के सच्चे सेवक

  • April 23, 2022

    – योगेश कुमार गोयल

    सिख धर्म में पांचवें गुरू श्री अर्जुन देव के बलिदान को सबसे महान् माना जाता है, जो सिख धर्म के पहले शहीद थे। उन्हें ‘शहीदों के सिरताज’ भी कहा जाता है। अमृतसर के गोइंदवाल साहिब में जन्मे गुरु अर्जुन देव के मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह सम्मान था, जो दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। धर्म रक्षक और मानवता के सच्चे सेवक श्री अर्जुन देव के पिता गुरू रामदास सिखों के चौथे तथा नाना गुरू अमरदास सिखों के तीसरे गुरू थे और गुरु अर्जुन देव के पुत्र हरगोविंद सिंह सिखों के छठे गुरू बने। वर्ष 1581 में 18 वर्ष की आयु में पिता गुरू रामदास जी द्वारा अर्जुन देव को सिखों का पांचवां गुरू बनाया गया था।

    गुरू अर्जुन देव को उनकी विनम्रता के लिए भी स्मरण किया जाता है। दरअसल उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में कभी किसी को कोई दुर्वचन नहीं कहा। शांत व गंभीर स्वभाव के स्वामी तथा धर्म के रक्षक गुरू अर्जुन देव जी को अपने युग के सर्वमान्य लोकनायक का दर्जा प्राप्त है, जिनमें निर्मल प्रवृत्ति, सहृदयता, कर्त्तव्यनिष्ठता, धार्मिक एवं मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पण भावना जैसे गुण कूट-कूटकर समाये थे।

    ब्रह्मज्ञानी माने जाने वाले गुरू अर्जुन देव को आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, जो शहीदों के सरताज और शांतिपुंज माने जाते हैं। वह आध्यात्मिक चिंतक और उपदेशक के साथ ही समाज सुधारक भी थे, जो सती प्रथा जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे तथा अपने 43 वर्षों के जीवनकाल में उन्होंने जीवन पर्यन्त धर्म के नाम पर आडम्बरों तथा अंधविश्वासों पर कड़ा प्रहार किया।

    प्रतिदिन प्रातःकाल लाखों लोग शांति हासिल करने के लिए ‘सुखमनी साहिब’ का पाठ करते हैं, जो गुरू अर्जुनदेव जी की अमर-वाणी है, जिसमें 24 अष्टपदी हैं। सुखमनी अर्थात् सुखों की मणि यानी मन को सुख देने वाली वाणी, जो मानसिक तनाव की अवस्था का शुद्धिकरण भी करती है। यह सूत्रात्मक शैली की राग गाउडी में रची गई उत्कृष्ट रचना मानी जाती है, जिसमें साधना, नाम-सुमिरन तथा उसके प्रभावों, सेवा, त्याग, मानसिक सुख-दुख तथा मुक्ति की उन अवस्थाओं का उल्लेख है, जिनकी प्राप्ति कर मानव अपार सुखों की प्राप्ति कर सकता है।

    गुरू अर्जुन देव ने ही सभी गुरूओं की बानी के अलावा अन्य धर्मों के प्रमुख संतों के भजनों को संकलित कर एक ग्रंथ ‘श्रीगुरू ग्रंथ साहिब’ बनाया, जो मानव जाति को सबसे बड़ी देन मानी गई है। सम्पूर्ण मानवता में धार्मिक सौहार्द पैदा करने के लिए श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कुल 36 महान् संतों और गुरूओं की वाणी का संकलन किया गया। इसमें कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें से कुल 30 रागों में 2216 शब्द श्री गुरू अर्जुन देव जी के हैं जबकि अन्य शब्द महान् संत कबीर, संत रविदास, संत नामदेव, संत रामानंद, बाबा फरीद, भाई मरदाना, भक्त धन्ना, भक्त पीपा, भक्त सैन, भक्त भीखन, भक्त परमांनद, बाबा सुंदर इत्यादि के हैं।

    श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का सम्पादन गुरू अर्जुनदेव ने भाई गुरदास की सहायता से किया था, जिसमें रागों के आधार पर संकलित वाणियों का इस प्रकार वर्गीकरण किया गया, जिसे देखते हुए इसे मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में बेहद दुर्लभ माना जाता है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के संकलन का कार्य वर्ष 1603 में शुरू हुआ और 1604 में सम्पन्न हो गया था, जिसका प्रथम प्रकाश पर्व श्री हरिमंदिर साहिब में 30 अगस्त 1604 को आयोजित किया गया था और इसके मुख्य ग्रंथी की जिम्मेदारी बाबा बुड्ढ़ा जी को सौंपी गई, जिन्होंने बचपन में गुरू अमरदास के साथ मिलकर अर्जुन देव का पालन-पोषण किया था। वर्ष 1705 में दमदमा साहिब में दशमेश पिता गुरू गोविंद सिंह जी ने गुरू तेगबहादुर जी के 116 शब्द जोड़कर श्री गुरू ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया, जिसमें कुल 1430 पृष्ठ हैं।

    श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का कार्य तथा गुरू अर्जुनदेव जी का सेवाभाव कुछ असामाजिक तत्वों को रास नहीं आया, जिन्होंने इसके खिलाफ बादशाह अकबर के दरबार में शिकायत कर डाली कि ग्रंथ में इस्लाम के खिलाफ काफी गलत बातें लिखी गई हैं लेकिन जब अकबर को ग्रंथ में संकलित गुरूवाणियों की महानता का आभास हुआ तो उसने 51 मोहरें भेंट कर खेद प्रकट किया। अकबर के देहांत के बाद दिल्ली का शासक बना निर्दयी और कट्टरपंथी जहांगीर, जिसे गुरू अर्जुनदेव जी के धार्मिक और सामाजिक कार्य फूटी आंख नहीं सुहाते थे।

    जहांगीर ने 28 अप्रैल 1606 को उन्हें सपरिवार पकड़ने का फरमान जारी कर दिया। आखिरकार लाहौर में गुरूजी को बंदी बना लिया गया और उन्हें मृत्युदंड की सजा सुनाई गई। क्रूर शासक के फरमान पर 30 मई 1606 को गुरू अर्जुन देव को लाहौर में भीषण गर्मी के दौरान लोहे के बुरी तरह तपते तवे पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। तपते तवे और तपती रेत से भी गुरूजी जरा भी विचलित नहीं हुए और हंसते-हंसते असहनीय कष्ट झेलते हुए भी उन्होंने सभी की भलाई के लिए ही अरदास की। जब उनके शीश पर आग-सी तपती रेत डालने पर उनका शरीर बुरी तरह जल गया तो उन्हें जंजीरों से बांधकर रावी नदी में फेंक दिया गया लेकिन उनका शरीर रावी में विलुप्त हो गया।

    रावी नदी में जिस स्थान पर गुरूजी का शरीर विलुप्त हुआ, वहां गुरूद्वारा डेरा साहिब का निर्माण किया गया, जो अब पाकिस्तान में है। सिख धर्म में पहले शहीद गुरू अर्जुन देव ने मानवता और जीवन मूल्यों के लिए अपनी शहादत देकर समस्त मानव जाति को यही संदेश दिया कि अपने धर्म और राष्ट्र के गौरव तथा महान जीवन मूल्यों के लिए आत्म-बलिदान देने को सदैव तत्पर रहना चाहिए।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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