नई दिल्ली। शक्ति आराधना का पावन पर्व गुप्त नवरात्रि माघ माह शुक्लपक्ष प्रतिपदा 02 फरवरी से मनाया जाएगा। आदिकाल से ही नवरात्रि को सनातन धर्म का सबसे पवित्र और शक्ति दायक पर्व माना गया है। एक वर्ष में चार नवरात्रि दो गुप्त और दो सामन्य कहे गए हैं।
गुप्त नवरात्रि माघ शुक्ल पक्ष प्रतिपदा और आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को आरंभ होता है। यह नवरात्रि गुप्त साधनाओं के लिए परम श्रेष्ठ कहा गया है। इस समय की गई साधना जन्मकुंडली के समस्त दोषों को दूर करने वाली तथा चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और कोक्ष को देने वाली होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण समय मध्यरात्रि 12 बजे से सूर्योदय तक अधिक प्रभावशाली बताया गया है।
निगम शास्त्र में संपूर्ण विश्व की रचना का आधार सूर्य को माना गया है। ‘सूर्य रश्मितो जीवो भी जायते’ अर्थात- सूर्य की किरणों से ही जीव की उत्पत्ति हुई अतः सूर्य ही जगतपिता है। इन्हीं की संक्रांतियों के अनुसार ही नवरात्रि पर्व माना गया है जैसे, गुप्त नवरात्रि मकर संक्रांति तथा आषाढ़ संक्रांति के मध्य पड़ते हैं।
यह सायन संक्रांति के नवरात्रि हैं जिनमें मकर संक्रांति उत्तरायण और कर्क (आषाढ़) संक्रांति दक्षिणायन की होती है। बाकी दो गुप्त नवरात्रि के अतिरिक्त सामान्य नवरात्रि चैत्रशुक्ल प्रतिपदा और आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होता है। माघ शुक्ल प्रतिपदा में गुप्त नवरात्रि शिशिर और बसंत ऋतु के संक्रमण काल में आरंभ होता है।
सूर्य की मकर संक्रांति के मध्य सभी देवता जो शक्तिहीन हो गये थे माघ शुक्ल प्रतिपदा से नवमी तक माँ श्री महाशक्ति की आराधना करते हैं। जिसके फलस्वरूप उनमें नई ऊर्जाशक्ति का संचार होता है और उन्हें भौतिक त्रिबिध तापों से मुक्ति मिलती है। तांत्रिक जगत में गुप्त नवरात्रि का अधिक महत्व होता है। सामान्य जन इसमें मंत्र जाप और पूजा पाठ करके अपनी शक्तियों को बढ़ाकर इन चार दुखों के देवताओं के प्रकोप से बचे रहते हैं। गुप्त नवरात्रि के मध्य ‘माँ आदि शक्ति का महामंत्र ‘ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’ का प्रतिदिन जप करने से समस्त कष्टों से मुक्ति मिलती है।
कैसे करें पूजा
इस दिन भक्तगण माँ की पूजा के लिए सुबह स्नान आदि से निवृत्त होकर कलश, नारियल-चुन्नी, श्रृंगार का सामान, अक्षत,हल्दी, फल-फूल पुष्प आदि यथा संभव सामग्री साथ रख लें। कलश सोना, चांदी, तामा, पीतल या मिटटी का होना चाहिए, लोहे अथवा स्टील का कलश पूजा मे प्रयोग नहीं करना चाहिए। कलश के ऊपर रोली से ॐ और स्वास्तिक आदि लिखें। पूजा आरम्भ के समय ‘ऊं पुण्डरीकाक्षाय’ नमः कहते हुए अपने ऊपर जल छिडकें।
घी का दीपक जलाते हुए
ॐ दीपो ज्योतिः परब्रह्म दीपो ज्योति: जनार्दनः। दीपो हरतु में पापं पूजादीप नमोस्तु ते।। यह मंत्र पढ़ते हुए दीप प्रज्ज्वलित करें। माँ दुर्गा की मूर्ति के बाईं तरफ श्री गणेश की मूर्ति रखें। पूजा स्थल के उत्तर-पूर्व भाग में पृथ्वी पर सात प्रकार के अनाज नदी की रेत और जौ ॐ भूम्यै नमः कहते हुए डालें। इसके उपरांत कलश में जल-गंगाजल, लौंग, इलायची,पान, सुपारी, रोली, मोली, चन्दन, अक्षत, हल्दी, रुपया पुष्पादि डालें।
अब कलश में थोड़ा और जल-गंगाजल डालते हुए ॐ वरुणाय नमः मंत्र पढ़ें और कलश को पूर्ण रूप से भर दें। इसके बाद आम की टहनी (पल्लव) डालें यदि आम की पल्लव न हो तो पीपल, बरगद, गूलर अथवा पाकर का पल्लव भी कलश के ऊपर रखने का बिधान है। जौ अथवा कच्चा चावल कटोरे मे भरकर कलश के ऊपर रखें उसके ऊपर चुन्नी से लिपटा हुआ नारियल रखकर कलश को माथे के समीप लाएं और वरुण देवता को प्रणाम करते हुए रेत पर कलश स्थापित करें।
पूजा के समय यदि आपको कोई भी मंत्र नहीं आता हो तो केवल दुर्गा सप्तशती में दिए गए नवार्ण मंत्र- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे। माँ शक्ति का यह अमोघ मंत्र है। आपके पास जो भी यथा संभव सामग्री हो उसी से आराधना करें। संभव हो श्रृंगार का सामान और नारियल-चुन्नी जरूर चढ़ाएं। सर्वप्रथम माँ का ध्यान, आवाहन, आसन, अर्घ्य, स्नान, उपवस्त्र, वस्त्र, श्रृंगार का सामान, सिन्दूर, हल्दी, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, मिष्ठान, रितुफल, नारियल आदि जो भी सुलभ उसे अर्पित करें। पूजन के बाद आरती और क्षमा प्रार्थना अवश्य करें।
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