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    गिनीज बुक में देश के बाघ

  • July 13, 2020

    – प्रमोद भार्गव

    देश के राष्ट्रीय प्राणी ‘बाघ’ की बढ़ी संख्या को ‘गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में स्थान मिला है। ऐसा संभव इसलिए हुआ क्योंकि पहली बार 2018 में बाघों की गणना ‘कैमरा ट्रैपिंग’ पद्धति से की गई थी। इसमें करीब 27000 कैमरों का इस्तेमाल किया गया था। इन कैमरों द्वारा कैद किए गए करीब साढ़े तीन करोड़ छायाचित्रों का तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा विश्लेषण के बाद निष्कर्ष निकाला गया कि 2014 में की गयी बाघों की गिनती की तुलना में 2018 में यह संख्या बढ़कर 2967 हो गई है। इसके पहले बाघों की संख्या 2226 थी। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने ट्वीट कर बताया है कि यह गणना पूरी तरह प्रमाणिक है क्योंकि इसमें 83 प्रतिशत यानी 2461 बाघों की पहचान व्यक्तिगत छायाचित्रों से मिलान करके की गई है। बाकी को तकनीक के जरिए पहचाना गया है। कैमरा ट्रैपिंग में कैमरे सेंसर के साथ बाघ के रहवास क्षेत्रों में लगाए जाते हैं। जब बाघ या कोई अन्य वन्यजीव कैमरे के पास से गुजरता है तो फोटो खींच लेता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी करने का लक्ष्य रखा था, जो चार साल पहले ही पूरा हो गया। भारत में 2006 में बाघों की संख्या 1411 थी। नई गणना के अनुसार सबसे ज्यादा 1492 बाघ मध्य-प्रदेश, कर्नाटक और उत्तराखंड में हैं।

    भारत के 21 राज्यों में 2018 में जब चरणबद्ध गिनती शुरू हुई थी, तब इसी अनुमान के साथ गणना की गई थी कि जंगलों में 3000 बाघ हैं। 2018 में प्रथम चरण की हुई इस गिनती के आंकड़े बढ़ते क्रम में आए थे। यह गिनती चार चरणों में पूरी हुई थी। हालांकि यह गिनती बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय, उसकी कथित या आभासी मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की गई है। इसलिए गिनती पर विश्वसनीयता के सवाल भी उठ रहे हैं कि जब 2017-18 में 201 बाघ मारे गए तो फिर इनकी संख्या बढ़ कैसे रही है? बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई थी, तब मध्य-प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को शुरुआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजों के निशान अलग-अलग होते हैं। इन निशानों को एकत्र कर बाघों की संख्या का आकलन किया जा सकता है। कान्हा के पूर्व निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई, जब ‘साइंस इन एशिया’ के निदेशक उल्लास कारंत ने बैंगलुरु की वन्य जीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागर हो गई और इसे नकार दिया गया।

    इसके बाद ‘कैमरा ट्रैपिंग’ का एक नया तरीका पेश आया। जिसेे कारंत की टीम ने शुरुआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के शरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग हैं, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते हैं। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी। पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर तकनीकों वाले परिष्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की शुरुआत हुई। इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त होे जाएंगे। लेकिन यह प्रसन्नता की बात है कि अब भारत में बाघ बढ़ रहे हैं।

    बाघों की यह गणना मध्य-प्रदेश के लिए वरदान साबित हुई है। नौ साल बाद मध्य-प्रदेश को एकबार फिर बाघ-प्रदेश अर्थात ‘टाइगर स्टेट’ का दर्जा मिल गया है। देश में बीते पांच साल में बाघों की संख्या 33 प्रतिशत बढ़ी है। यानी 2014 की संख्या 2226 की तुलना में 2018 में बढ़कर यह संख्या 2967 हो गई। इन पांच साल में 741 बाघ बढ़े हैं। मप्र के लिए यह गर्व का विषय इसलिए है क्योंकि 2010 में प्रदेश से ‘टाइगर स्टेट’ का दर्जा छिन गया था, जो फिर हासिल हो गया है। मप्र में पिछले चार साल में 218 बाघ बढ़े हैं। 2014 में इनकी संख्या 308 थी। गोया, इनकी अब कुल संख्या 526 हो गई है। मप्र में बाघों के बीच बढ़ती वर्चस्व की लड़ाई और अवैध शिकार के चलते बाघों की संख्या तेजी से घटने लगी थी। 2006 की गणना में बाघों की संख्या 300 थी, जो 2010 में घटकर 257 रह गई थी। जबकि इसी दौरान 300 बाघों के साथ बाघ राज्य का दर्जा कर्नाटक को मिल गया था। कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में 2018 में बाघों के बीव जबरदस्त वर्चस्व की लड़ाई छिड़ी थी कि बाघ एक-दूसरे को मारकर खाने लग गए थे। इस उद्यान में टी-56 नाम के हमलावर बाघ ने मृत बाघ का मांस भी खाया था। इसके पहले मुंडी दादर में इसी टी-56 बाघ ने एक अन्य बाघ को मारकर खा लिया था। विश्व-प्रसिद्ध इस राष्ट्रीय उद्यान में बीते 3 माह के भीतर इस तरह से चार बाघों की मौत देखने में आई थी। आमतौर पर ऐसा तभी देखने को मिलता है, जब उद्यान में आहार के लिए प्राणियों की कमी आ गई हो? जबकि इस उद्यान में ऐसा है नहीं। यहां बाघ के लिए चीतल, बारहसिंघा व अन्य प्राणी बड़ी संख्या में मौजूद हैं। बाघों को भैंसे का मांस भी डाला जाता है। 2017-18 में मवेशियों को मारकर खाने के 3400 मामले सामने आए थे। इससे पता चलता है कि जंगल में भोजन की कमी नहीं थी। हालांकि वनाधिकारी बाघ के इस बदले व्यवहार पर शोध करने की बात कहकर हकीकत पर पर्दा डालने में लगे रहे थे। वैसे भी मध्य-प्रदेश में 2018 तक हर साल औसतन 27 बाघ मारे जा रहे थे, इस कारण अर्से से प्रदेश टाइगर स्टेट का दर्जा प्राप्त करने से बाहर रहा। लेकिन इस दौरान बाघिनों ने बड़ी संख्या में बाघ शिशुओं को जन्म दिया। नतीजतन प्रदेश बाघ राज्य का दर्जा पाने में सफल हो गया।

    वर्तमान में चीन में बाघ के अंग और खालों की सबसे ज्यादा मांग है। इसके अंगों से यहां पारंपरिक दवाएं और हड्डियों से महंगी शराब बनाई जाती है। भारत में बाघों का जो अवैध शिकार होता है, उसे चीन में ही तस्करी के जरिए बेचा जाता है। बाघ के अंगों की कीमत इतनी अधिक मिलती है कि पेशेवर शिकारी और तस्कर बाघ को मारने के लिए हर तरह का जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं। बाघों की दुर्घटना में जो मौतें हो रही हैं, उनका कारण इनके आवासीय क्षेत्रों में निरंतर आ रही कमी हैं। जंगलों की बेतहाशा हो रही कटाई और वन-क्षेत्रों में आबाद हो रही मानव बस्तियों के कारण भी बाघ बेमौत मारे जा रहे हैं। पर्यटन के लाभ के लिए उद्यानों एवं अभ्यारण्यों में बाघ देखने के लिए जो क्षेत्र विकसित किए गए हैं, उस कारण इन क्षेत्रों में पर्यटकों की अवाजाही बढ़ी है, नतीजतन बाघ एकांत तलाशने के लिए अपने पारंपरिक रहवासी क्षेत्र छोड़ने को मजबूर होकर मानव बस्तियों में पहुंचकर बेमौत मर रहे हैं। बाघ संरक्षण विशेष क्षेत्रों का जो विकास किया गया है, वह भी इसकी मौत का कारण बन रहा है क्योंकि इस क्षेत्र में बाघ का मिलना तय होता है। बाघों के निकट तक पर्यटकों की पहुंच आसान बनाने के लिए बाघों के शरीर में जो कॉलर आईडी लगाए गए हैं, वे भी इनकी मौत का प्रमुख कारण हैं। आईडी से वनकर्मियों को यह जानना आसान होता है कि इस वक्त बाघ किस क्षेत्र में हैं। तस्करों से रिश्वत लेकर वनकर्मी बाघ की उपस्थिति की जानकारी दे देते हैं। नतीजतन शिकारी बाघ को आसानी से निशाना बना लेते हैं। यदि इन तकनीकी उपायों और पर्यटकों को बाघ दिखाने पर अंकुश लगा दिया जाए तो बाघों की संख्या तेजी से बढ़ेगी और ये शहरों का रुख भी नहीं करेंगे।

    अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों का सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है। बाघों की गणना के ताजा व पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं? इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। पूर्वोत्तर के सुंदर वन में भी बाघों की गणना यहां की जटिल भौगोलिक सरंचना के कारण मुश्किल होती है। नतीजतन बाघ के इस बड़े इलाके में भी गिनती का आधार वनकर्मियों के अनायास निगाह में आए बाघ होते हैं। ब्रह्मपुत्र नदी के विस्तार ने इस क्षेत्र को जटिल बना दिया है। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के वास्तविक सरंक्षक और दावेदार के रूप में देखा जाता है तो कालांतर में बाघों की संख्या में और वृद्धि देखने में आएगी।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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