सुर्खियां अख़बार की, गलियों में ग़ुल करती रहीं
लोग अपने बंद कमरों में पड़े सोते रहे।
दैनिक भास्कर की तरक्की का राज़ ये हेगा साब के इसके कारिंदे वखत के साथ चलते हेँगे। झां पे अपडेट रेना एक रिवायत है। पुराने सिस्टमों को तोड़ के भास्कर नई-नई ईजाद करता रेता है। किसी दौर में तकरीबन हर हिंदी अखबार में कोई भोत घुटा हुआ लिख्खाड़ ही अखबार का एडिटर हुआ करता था। गोया के बालों की सफेदी और मोटे फिरेम का चश्मा चढ़ाए एडिटर साब डांट-फटकार करते हुए जब दाखिले दफ़्तर होते…और सिटी से लेके सेंट्रल डेस्क तक पे बैठे सहाफी (पत्रकार) सूत-गुनिये में आ जाते। तब एडिटर साब का इत्ता जलवा और लिहाज होता था के अखबार मालिक तक उनका पूरा एहतराम करते। मसला ये के आज से कोई अठ्ठाइस-तीस बरस पेले तक जो एडिटर के देता वोई खबर लीड बनती, वोई मसला उठाया जाता। ये वो दौर था तब एडिटोरियल में न विज्ञापन वालों की घुसेड़ होती थी न एचआर का कोई कारकून दखलंदाजी कर सकता था। मक़सद ये के तब अखबारों के एडिटर खालिस सहाफत करते थे। उनका सरोकार हमेशा करप्ट अफसरों और नेताओं को उजागर करना हुआ करता था। बाकी आजकल एडिटर नाम की संस्था खतम ही हो गई है। अब जो जित्ता बड़ा मेनिजर होता है वोई अखबार का एडिटर होता है। ज़रूरी नहीं के आज के एडिटर की हिंदी ज़बान या ख़बरों पे लपक पकड़ हो। आज का एडिटर तो मियाँ कारपोरेट कल्चर में रम चुका है।
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