– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पड़ोसी देशों के बारे में इधर भारत ने काफी अच्छी पहल शुरू की है। अगस्त माह में अफगानिस्तान के बारे में हमारी नीति यह थी कि ‘लेटो और देखते रहो’ लेकिन मुझे खुशी है कि अब भारत न केवल 50 हजार टन गेहूं काबुल भेज रहा है बल्कि डेढ़ टन दवाइयां भी भिजवा रहा है। यह सारा सामान 500 से ज्यादा ट्रकों में लदकर काबुल पहुंचेगा। इन सारे ट्रकों को पाकिस्तान होकर जाने का रास्ता मिल गया है। इमरान सरकार ने यह समझदारी का फैसला किया है। पुलवामा हमले के बाद जो रास्ता बंद किया गया था, वह अब कम से कम अफगान भाई-बहनों की मदद के लिए खोल दिया गया है। क्या मालूम यही शुरुआत बन जाए दोनों मुल्कों में रिश्ते ठीक-ठाक करने की!
हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल ने अफगानिस्तान-संकट पर पड़ोसी देशों के सुरक्षा सलाहकारों से जो संवाद दिल्ली में कायम किया था, वह भी सराहनीय पहल थी। उसका चीन और उसके इस्पाती दोस्त पाकिस्तान ने बहिष्कार जरूर किया लेकिन उसमें आमंत्रित मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम गणतंत्रों के सुरक्षा सलाहकार के आगमन ने हमारी विदेश नीति का एक नया आयाम खोल दिया है। अब विदेश मंत्री डॉ. जयशंकर ने आगे बढ़कर इन पांचों देशों के विदेश मंत्रियों की बैठक भी अगले हफ़्ते बुलाई है।
मैं पिछले कई वर्षों से कहता रहा हूं कि मध्य एशिया के ये पांचों पूर्व-सोवियत गणतंत्र सदियों तक आर्यावर्त्त के अभिन्न अंग रहे हैं। इनके साथ घनिष्ठता बढ़ाना इन विकासमान राष्ट्रों के लिए लाभदायक है ही, भारत के लिए इनकी असीम संपदा का दोहन भारतीयों के लिए करोड़ों नए रोजगार पैदा करेगा और दक्षिण व मध्य एशिया के देशों में मैत्री की नई चेतना का भी संचार करेगा।
इन सारे देशों में पिछले 50 वर्षों में मुझे कई बार रहने का और इनके शीर्ष नेताओं से संवाद करने का अवसर मिला है। यद्यपि इन देशों में कई दशक तक सोवियत-शासन रहा है लेकिन इनमें भारत के प्रति अदम्य आकर्षण है। ताजिकिस्तान ने भारत को महत्वपूर्ण सैन्य-सुविधा भी दे रखी थी। कजाकिस्तान और उजबेकिस्तान के राष्ट्रपति भारत-यात्रा भी कर चुके हैं। अब कोशिश यह है कि इन पांचों गणतंत्रों के राष्ट्रपतियों को 26 जनवरी के अवसर पर भारत आमंत्रित किया जाए।
मैंने जन-दक्षेस (पीपल्स सार्क) नामक संस्था का हाल ही में गठन किया है, जिसमें म्यांमार, ईरान और मॉरिशस के साथ-साथ मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों को भी शामिल किया गया है। यदि 16 देशों का यह संगठन यूरोपीय संघ की तरह कोई साझा बाजार, साझी संसद, साझा महासंघ बनवा सके तो अगले दस साल में भारत समेत ये सारे राष्ट्र यूरोप से भी आगे निकल सकते हैं। इन राष्ट्रों में गैस, तेल, यूरेनियम, सोने, चांदी, लोहे और तांबे आदि धातुओं के असीम भंडार अनछुए पड़े हुए हैं। इन्हें अपने आप को संपन्न बनाने के लिए यूरोपीय राष्ट्रों की तरह अन्य राष्ट्रों का खून चूसने की जरूरत नहीं है। इन्हें सिर्फ भारत का सहयोग और मार्गदर्शन चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार है।)
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