– मनमोहन कुमार आर्य
अथर्ववेद के एक मन्त्र ‘अन्ति सन्तं न जहात्यन्ति सन्तं न पश्यति। देवस्य पश्य काव्यं न ममार न जीर्यति।।’ में कहा गया है कि ईश्वर जीवात्मा के अति समीप है। वह जीवात्मा का त्याग नहीं करता। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि ईश्वर हमारे अति समीप है, जीवात्मा उसका त्याग नहीं कर सकता परन्तु अति निकट होने पर भी वह उसका अनुभव नहीं करता है। अतः इस मन्त्र की प्रेरणा से हमें अपनी आत्मा के भीतर निहित व उपस्थित ईश्वर को जानना व उसका अनुभव करना है। ऐसा करने से हमारा ईश्वर के विषय में अज्ञान दूर हो सकेगा। यदि हम इस प्रश्न की उपेक्षा करेंगे तो इससे हमारी बड़ी हानि होगी। हम अपने जीवन में सही निर्णय नहीं ले सकेंगे और सही निर्णय न लेने से हमें उनसे जो लाभ होना है, उससे वंचित हो जायेंगे। मनुष्य जब वेदाध्ययन करता है तो उसे ऋग्वेद के प्रथम मंत्र में ही ज्ञात हो जाता है कि हम प्रकाशस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, अज्ञान व अविद्या को दूर करने वाले, अग्नि के समान तेजस्वी व देदीप्यमान तथा सब ऐश्वर्याें के स्वामी ईश्वर को जानें वा उसकी उपासना करें। जब हम ईश्वर को जान जायेंगे तो हमें ज्ञात होगा कि संसार में हमारा आदर्श केवल ईश्वर ही हो सकता है। हमें ईश्वर के गुणों को जानना व उनको जीवन में धारण करना है। ईश्वर के गुणों को धारण करना और वैसा ही आचरण करना धर्म कहा जाता है। जिस मनुष्य के जीवन में ईश्वर के समान श्रेष्ठ गुण होते हैं, उन गुणों के अनुसार ही उसके कर्म और स्वभाव भी होता है। वह मनुष्य समाज में यश व सम्मान पाता है।
ईश्वर को जानने के लिये वेद के अतिरिक्त वेदानुकूल ग्रन्थों का नित्य प्रति स्वाध्याय करना आवश्यक है। नियम है कि हम प्रतिदिन स्वाध्याय करें और स्वाध्याय में कभी अनध्याय न हो। स्वाध्याय के लिये सबसे उत्तम ग्रन्थ है वेद एवं वैदिक साहित्य। सत्यार्थप्रकाश वैदिक साहित्य के अध्ययन का द्वार कह सकते हैं। हमारी दृष्टि में स्वाध्याय आरम्भ करते हुए हमें प्रथम सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन करना चाहिये। इससे हमारी अविद्या कम होगी व दूर भी हो सकती है। सत्यार्थप्रकाश इतर अन्य ग्रन्थों में ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय, संस्कारविधि सहित सभी उपनिषद, दर्शन, वेद वा वेदों पर ऋषि दयानन्द व आर्य विद्वानों का भाष्य हैं। स्वाध्याय का यह लाभ होता है कि हमारा उस विषय से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। हम जब उसका अध्ययन करते हैं तो वह विषय हमें विस्तार से अथवा सूक्ष्म रहस्यों सहित विदित हो जाता है। योगदर्शन में अष्टांग योग के अन्तर्गत नियमों में स्वाध्याय को स्थान दिया गया है। यदि कोई व्यक्ति स्वाध्याय नहीं करता तो फिर वह योगी सम्पूर्ण योगी नहीं हो सकता। यम व नियमों पर विचार करने पर हमें यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान में स्वाध्याय का महत्वपूर्ण स्थान है। स्वाध्याय से ही हम यम व नियमों के शेष 9 उप-अंगों को भी जानने में समर्थ होते हैं। अतः स्वाध्याय करके हम ईश्वर व उसके गुण, कर्म, स्वभाव सहित उसकी प्राप्ति के उपायों वा साधनों को जान सकते हैं और योगाभ्यास द्वारा समाधि की अवस्था को प्राप्त होकर ईश्वर का साक्षात्कार कर सकते हैं। ईश्वर साक्षात्कार ही मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है। आवश्यकता से अधिक धनोपार्जन सहित अनैतिक कार्यों व आचरण से धन व सम्पति की प्राप्ति एवं संग्रह धर्मानुकूल न होने से पाप होता है जिससे मनुष्य का वर्तमान एवं भविष्य का जीवन दुःखमय बनता है।
वेद में यह भी कहा गया है कि मनुष्य ईश्वर के अत्यन्त समीप होने पर भी उसे देखता वा उसका अनुभव नहीं करता है। इस पर विचार करते हैं तो यह विदित होता है कि ईश्वर गुणी है। उसके गुणों को जानना तथा उन गुणों का सृष्टि में प्रत्यक्ष करना ही ईश्वर को देखना कहलाता है। वेदों के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप है। इसका अर्थ है कि ईश्वर सत्य, चित्त एवं आनन्दस्वरूप है। इन गुणों को देखने के लिये हमें इस सृष्टि के कर्ता को जानना होता है। जब हम यह समझ लेते हैं कि यह सृष्टि ईश्वर के द्वारा इसके उपादान कारण प्रकृति से बनी है, तो हमें उसकी सत्ता सहित उसके चेतन, ज्ञान युक्त तथा कर्म की सामथ्र्य से युक्त होने का ज्ञान होता है। इतनी बड़ी सृष्टि को आनन्द से रहित चेतन सत्ता, जो जन्म-मरण में भी परतन्त्र है, इस वृहद सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकती। यदि ईश्वर में आनन्द न हो तो वह आनन्द की प्राप्ति में प्रयत्नरत रहेगा जिससे वह सृष्टि का निर्माण नहीं कर सकता। सृष्टि का अतीत में निर्माण अवश्य ही हुआ है। सृष्टि हमें अपने नेत्रों से स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है और विगत 1.96 अरब वर्षो से यह सृष्टि आदर्श रूप में संचालित भी हो रही है। अतः ईश्वर का आनन्द गुण से युक्त होना सिद्ध होता है।
मनुष्य चेतन, एकदेशी, ससीम और अल्पज्ञ सत्ता है। जब आत्मवान मनुष्य अस्वस्थ, सुख व आनन्द से रहित तथा दुःखी होता है तो यह अपने सामान्य कामों को भी नहीं कर सकता। ज्वर हो जाने पर मनुष्य को विश्राम करने की सलाह दी जाती है। अतः इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाली सत्ता ईश्वर का सत्य होना, चेतन होना तथा आनन्द से युक्त होना अनिवार्य है। तभी यह सृष्टि बन व चल सकती है। इस प्रकार वेदाध्ययन के द्वारा हम ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर उसको अपने भीतर व बाहर अनुभव कर सकते हैं। ईश्वर हमारे अत्यन्त निकट वा हमारी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान है। उसको जानकर उसका प्रत्यक्ष करने के लिये ही योग में प्रथम छः अंगों के पालन सहित शेष दो अंगों ध्यान व समाधि में ईश्वर का साक्षात् अनुभव करने का अभ्यास किया जाता है। ध्यान व समाधि की साधना जब सिद्ध हो जाती है तब ईश्वर साधक की आत्मा में अपने स्वरूप का प्रकाश कर देता है। हम इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि ईश्वर साक्षात्कार से पूर्व हमारी स्थिति अन्धकार में विचरण करने वाले मनुष्य के समान होती है। हमें वहां उपस्थित वस्तुओं का ज्ञान नहीं होता अर्थात् मनुष्य उन्हें देख नहीं पाता है। जब वहां एक दीपक जला देते हैं तो इससे अन्धकार नष्ट हो जाता है और वहां उपस्थित सभी वस्तुयें निर्दोष रूप में स्पष्ट दिखाई देती हैं। इसी प्रकार से ध्यान व समाधि की सिद्धि होने पर आत्मा में प्रकाश उत्पन्न होता है जिससे ईश्वर का सत्यस्वरूप प्रत्यक्ष अनुभव होता है। योगियों द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार होने पर वेद की यह बात सत्य सिद्ध होती है ईश्वर हमारे समीप अर्थात् हमारी आत्मा के भीतर व बाहर विद्यमान है।
वेदमन्त्र में तीसरी बात यह कही गई है कि हमें ईश्वर के वेद काव्य को देखना व जानना चाहिये। ईश्वर का वेद काव्य ऐसा है कि जिसको जान लेने पर ज्ञाता न मरता है और न ही जीर्ण होता है। अथर्ववेद के भाष्यकार पं0 विश्वनाथ विद्यालंकार जी ने लिखा है कि मनुष्य व साधक को ईश्वर के वेदकाव्य को देखना चाहिये, जिससे ज्ञात होगा कि इस के दर्शन के उपाय क्या हैं? दर्शन पाकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है और बार-बार जन्म ले कर, बार-बार मरने और जीर्ण होने से उसे छुटकारा मिल जाता है। वेदों में एक मन्त्र आता है जिसमें कहा गया है कि मैं वेदों का अध्ययन करने वाला मनुष्य संसार के स्वामी ईश्वर को जानता हूं जो संसार में सबसे महान है। उसी को जानकर मनुष्य मृत्यु से पार जा सकता है। इसके अतिरिक्त जीवन जीने का अन्य कोई मार्ग नहीं है। इससे यह ज्ञात होता है कि वेद पढ़कर ही हम ईश्वर के यथार्थ स्वरूप को जान सकते हैं। ईश्वर और उसका काव्य वेद न कभी मरता है और न कभी जीर्ण होता है अर्थात् सृष्टि के आदि काल से प्रलयावस्था व कल्प-कल्पान्तरों में वेदज्ञान ही मनुष्यों को मृत्यु से पार ले जाकर उन्हें अमृत की प्राप्ति कराता है।
वेदों की इस शिक्षा से मनुष्य को इस संसार का रहस्य ज्ञात हो जाता है। रहस्य यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्ता है। वह हमारे अति निकट है। अति निकट होने पर भी हम उसे जानते नहीं है। ईश्वर को हम उसके काव्य वेद व उसके स्वाध्याय के द्वारा देख सकते वा जान सकते हैं। ईश्वर को जानना व उसका साक्षात्कार करना ही मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य व परम लक्ष्य है। हमें ईश्वर को जानने व उसे प्राप्त करने के अपने कर्तव्य की पूर्ति में तत्पर रहना चाहिये। इसके परिणाम अवश्य ही सुखदायक व मनुष्य जीवन के सभी दुःखों को समाप्त करने में सहायक होंगे।
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