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लोगों में बढ़ती नैराश्यता की वैश्विक समस्या

February 22, 2022

– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

कोरोना क्या आया लोगों में असुरक्षा की भावना में भी तेजी से बढ़ोतरी हुई है। संयुक्त राष्ट्र संघ की अनुषंगी संस्था द्वारा हालिया जारी रिपोर्ट बेहद निराशाजनक होने के साथ ही चिंतनीय भी है। मानव सुरक्षा को लेकर जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया के देशों में 86 फीसदी लोग असुरक्षा की भावना से ग्रसित हो गए हैं। असुरक्षा की यह भावना गरीब देशों में ही नहीं अपितु अमीर देशों और उनमें भी अमीर लोगों में भी उतनी ही मात्रा में है अपितु यह कहें तो अधिक सही होगा कि अमीरों में अधिक है। हालांकि रिपोर्ट पिछले दस साल के हालात को आधार बनाकर जारी की गई है। इसलिए केवल और केवल कोरोना को इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

दरअसल जिस तेजी से दशक के दौरान हालात में बदलाव आए हैं, उससे लोगों में असुरक्षा की भावना अधिक बलवती हुई है। रही-सही कसर 2019 से दुनिया के देशों को झकझोरने वाले कोरोना ने पूरी कर दी है। कोरोना ने तो लोगों को अब सही मायने में अपरिग्रही बनाने की दिशा में आगे बढ़ाया है। सबकुछ बंद होने पर क्या अमीर क्या गरीब सभी कैद होकर रह गए तो बस घर में कैद होकर खाने-पीने तक सीमित हो गए। कोरोना ने तो हारी बीमारी में एक-दूसरे का सहारा बनने के हालात भी नहीं छोड़़े अपितु लोगों को पता चला कि कोरोना ग्रसित है तो स्वयमेव दूरी अधिक बढ़ गई। कोरोना की दो गज की दूरी ने बीमारी के दौरान सहानुभूति के स्थान पर दूरी और बढ़ाने का काम किया है।

हालांकि तीसरी लहर के उतार के साथ ही हालात बदलने लगे हैं। लगभग सभी पाबंदियां हटाई जाने लगी है। आखिर लोग भी इन पाबंदियों से गले तक भर गए हैं। लोगों में अब एक सकारात्मक बदलाव जरूर देखने को मिलने लगा है कि कौन कब चला जाए, दो घड़ी का भी भरोसा नहीं, ऐसे में आपसी मतभेद-मनभेद भुलाकर जितना जी ले वो ही अपना है। लोगों में कोरोना ने भय का हालात बना दिए हैं। उदारीकरण के चलते जिस तरह देश-दुनिया में एकल परिवार और इसी तरह के अन्य बदलाव आए थे उन्हें कोरोना ने झकझोर कर रख दिया है। अब एकलता यानी क्वारंटीन से लोग भयाक्रांत हो गए है। आखिर यह किस बात की सजा हो गई है।

दरअसल कोरोना ही नहीं बल्कि जो हालात दुनिया में बन रहे हैं, वे अत्यधिक निराशाजनक है। कोरोना के कारण चहुंओर व्याप्त असुरक्षा के बावजूद आज रूस और उक्रेन आमने-सामने हैं। अफगानिस्तान के हालात सबके सामने हैं। दुनिया के देश आतंकवाद और शरणार्थी समस्या से दो-चार हो रहे हैं। पिछले करीब ढाई साल से पढ़ाई-लिखाई, उद्योग-धंघे, पर्यटन-परिवहन सब बुरी तरह प्रभावित हुए। लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। वर्क फ्रॉम होम के नाम पर नई संस्कृति विकसित हुई है तो इसके सकारात्मक-नकारात्मक दोनों ही तरीके के परिणाम सामने आए हैं। लोगों में रोजगार के प्रति असुरक्षा बढ़ी है।कब नौकरी से हटाने की सूचना आ जाए यह भय सताने लगा है तो वेतन कटौती आम होती जा रही है। संस्थान के पिलर समझे जाने वाले पुराने कार्मिक आज बोझ लगने लगे हैं क्योंकि कम वेतन में काम करने वालों की लाइन लगी है।

प्रकृति से खिलवाड़ का परिणाम आए दिन देखने को मिल रहा है। संभवतः इस दशक में ही सबसे अधिक प्राकृतिक प्रकोप देखने मेें आ रहे हैं। नित नए नाम से तूफान आकर तबाही मचा रहे हैं तो सर्दी में गर्मी और गर्मी में बरसात या ओलावृष्टि- बर्फबारी आम होती जा रही है। आखिर यह सब प्रकृति से खिलवाड़ का ही परिणाम है। प्रकृति का जिस बेरहमी के साथ दोहन किया गया है और किया जा रहा है उसका परिणाम आज भुगतना पड़ रहा है। यह सब तो तब है जब आज विश्व में संपदा बढ़ी है। लोगों के पास अधिक पैसा और साधन आए हैं। जीवन जीना आसान हुआ है। खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ा है। पौष्टिक खाद्यान्नों की पहुंच बढ़ी है। नित नए आविष्कारों से साधन व सुविधाएं बढ़ी है। इसके बावजूद लोगों में निराशा भी पहले की तुलना में अधिक बढ़ी है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की संयुक्त राष्ट्र मानव विकास कार्यक्रम की मानव सुरक्षा रिपोर्ट में 86 प्रतिशत लोगों में असुरक्षा की भावना भले ही अतिशयोक्तिपूर्ण मानी जा सकती है पर इसमें कोई दो राय नहीं कि लोगों में असुरक्षा की भावना तेजी से बढ़ ही रही है। लोग आपस में संदेह करने लगे हैं। अनागत भय से आक्रांत रहने लगे हैं। दुनिया के देशों में डिप्रेशन के शिकार लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। आखिर इससे अधिक चिंतनीय क्या होगा?

समाज विज्ञानियों और मनोविश्लेषकों के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यही हो गई है कि लोगों की इस असुरक्षा की भावना को कैसे दूर किया जाए? दुर्भाग्यजनक यह है कि मीडिया में किसी भी क्षेत्र की हो जो रिपोर्ट आती है वो नैराश्य भाव बढ़ाने वाली ही आ रही है। चाहे वह रिपोर्ट शिक्षा के क्षेत्र की हो, स्वास्थ्य के क्षेत्र की हो, पर्यावरण की हो, देशों के बीच आपसी संबंधों को लेकर हो या फिर परस्पर सहयोग या समन्वय की हो। खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट, नकली होना, पर्यावरण के कारण मौत, जानलेवा बीमारियां हो या और किसी क्षेत्र की रिपोर्ट। परीक्षाओं के आयोजन की हो या परिणामों की सभी जगह निराशा ही सामने आ रही है, इससे एक नए तरह का फोबिया पैदा होता जा रहा है।

आज आवश्यकता है तो लोगों में सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने की है। इसलिए मनोविश्लेषकों और समाज विज्ञानियों को इस दिशा में अधिक ध्यान देना होगा। दुनिया को निराशा भरे माहौल से निकाल कर आशा का संचार करना होगा, इसके लिए सभी को पहल करनी होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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