– गिरीश्वर मिश्र
बड़े दिनों की प्रतीक्षा के बाद भारत का शिक्षा जगत पिछले एक साल से नई शिक्षा नीति-2020 को लेकर उत्सुक था। यह बात भी छिपी न थी कि स्कूलों और अध्यापकों की कमी, अध्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम की दुर्दशा, पाठ्यक्रम और पाठ्यसामग्री की अनुपलब्धता और अनुपयुक्तता, शिक्षा के माध्यम की समस्या, मूल्यांकन की उपयुक्तता और पारदर्शिता से जूझ रही शिक्षा व्यवस्था समर्थ भारत के स्वप्न को साकार करने में विफल हो रही थी। प्राथमिक विद्यालय के छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि चिंताजनक रूप से निराश करने वाली हो रही थी। कुल मिलाकर शिक्षा की गुणवत्ता दांव पर लग रही थी। एक ओर बेरोजगारी तो दूसरी और योग्य और उपयुक्त योग्यता वाले अभ्यर्थी भी नहीं मिल रहे थे। ऐसे में छात्र, अध्यापक और शिक्षा के सभी लाभधारी अकुताए और दुखी थे।
कोरोना की महामारी ने जो भी पढ़ाई हो रही थी उसे चौपट कर दिया। लगभग पूरा एक शिक्षा-सत्र अव्यवस्थित हो गया। ऑनलाइन पढ़ाई और परीक्षा ने रही-सही शिक्षा की साख को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है। इंटरनेट की व्यवस्था अभी भी हर जगह नहीं पहुंची है और जहां पहुंची है वहां भी वह बहुत प्रभावी नहीं है। इस माहौल में नई शिक्षा आशा की किरण सरीखी थी। इसलिए सभी उसके संरचनात्मक और व्यावहारिक पक्षों को लेकर गहन चर्चा में लगे हुए थे। सरकार की ओर से भी जो सन्देश और संकेत मिल रहे थे उससे भी लोगों के मन में बड़ी आशाएं बंध रही थी। लग रहा था सरकार शिक्षा में निवेश का मन बना रही है। स्वदेशी और आत्मनिर्भर भारत के निर्माण को लेकर वर्त्तमान सरकार ने बार-बार देश का ध्यान आकृष्ट किया। गिरती-पड़ती सतत उपेक्षित रही शिक्षा की दुनिया में जान-सी आने लगी थी। शिक्षा नीति के प्रयोजन और उसके मोटे खाके को लेकर किसी भी तरह अस्पष्टता नहीं थी दिख रही थी। मसलन महामहिम राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और शिक्षा मंत्री समेत सभी खुले मन से उसके स्वागत के लिए तत्पर दिख रहे थे। मानव संसाधन विकास मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय में तबदील करने के साथ लोगों को लग रहा था देश शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की देहरी पर पहुँच रहा है और शुभ प्रभात होने वाला है।
गौरतलब है कि पूरे देश के शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा नीति के विभिन्न पक्षों को लेकर चर्चा को प्रोत्साहित किया गया। ऐसे में पूरे साल वेबिनारों की झड़ी-सी लग गई। अनेक मसलों पर बहस हो रही थी। बहुत दिनों बाद शिक्षा को लेकर शिक्षा संस्थानों ही नहीं आमजन में भी जागृति दिख रही थी। शिक्षा नीति के क्षेत्र का प्रकट प्रसार-विस्तार अपने भीतर सब कुछ को समाविष्ट कर रहा था। पूर्व प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक की संरचना में प्रस्तावित बदलाव को देख सबको सुखद आश्चर्य हो रहा था कि विद्यार्थी को किस तरह उन्मुक्त भाव से सृजनशीलता के साथ बहु विषयी और बहु विकल्पी अवसर मिल सकेंगे। लगा कि ज्ञान केन्द्रित और भारतभावित शिक्षा की एक ऐसी लचीली व्यवस्था के आने का बिगुल बज चुका है जो सबको विकसित होने का अवसर देगी। आखिर आत्मनिर्भर होने के लिए ज्ञान, कौशल और निपुणता के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं हो सकता। इसके लिए अध्यापकों का बेहतर प्रशिक्षण हो यह सोचकर चार वर्ष के बीएड का प्रावधान भी किया गया। विद्यार्थियों को मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा मिलने को भी स्वीकार किया गया जिसे इस बहु भाषा-भाषी देश ने हृदय से स्वीकार किया। संस्कृत समेत प्राचीन भाषाओं के संवर्धन लिए भी व्यवस्था की गई। भारतीय भाषाओं के लिए विश्वविद्यालय और राष्ट्रीय अनुवाद संस्थान स्थापित करने के लिए पहल करने बात सामने आई थी। नेशनल रिसर्च फाउंडेशन और उच्च शिक्षा आयोग की स्थापना के साथ शैक्षिक प्रशासन का ढांचा भी पुनर्गठित करने का प्रस्ताव रखा गया। यह सब पलक झपकते संभव नहीं था और उसे संभव करने के लिए धन, लगन और समय की जरूरत थी। इस हेतु सबकी नजरें बजट प्रावधानों पर टिकी थीं।
एक फरवरी को जो केन्द्रीय बजट पेश किया गया उसे प्रस्तुत करते हुए वित्तमंत्री श्रीमती सीतारमण ने नई शिक्षा नीति को लागू करने, उच्च शिक्षा आयोग के गठन, किसानों की आय को दूना करने, सुशासन, आधार संरचना को सुदृढ़ करने और सबके लिए और समावेशी शिक्षा की बात की। युवा वर्ग को कुशल बनाने की जरूरत भी बताई। टिकाऊ विकास ही उनका मुख्य तर्क था। अर्थव्यवस्था में स्वास्थ्य के लिए सर्वाधिक महत्त्व दिया गया और महामारी के बीच यह स्वाभाविक भी था। कृषि और अंतरिक्ष विज्ञान आदि भी महत्व के हकदार थे। शिक्षा के क्षेत्र की प्रमुख घोषणाएं इस प्रकार रहीं : 15000 स्कूलों को नई शिक्षा नीति के आलोक में सुदृढ़ किया जायगा जो देश के अन्य स्कूलों के लिए आदर्श का काम करेंगे। 100 सैनिक विद्यालय खुलेंगे जो गैर सरकारी संस्थाओं और निजी संगठनों के साथ जन भागीदारी के अनुरूप मिल कर स्थापित होंगे। लद्दाख के लेह में एक केन्द्रीय विश्व विद्यालय स्थापित होगा। 750 करोड़ रुपये जन जाति के विद्यार्थियों के आवासी विद्यालय और 20करोड़ एकलव्य विद्यालय के लिए, पर्वतीय क्षेत्र के लिए 48 करोड़, अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों के लिए 35219 करोड़ ( सन 2026 तक के लिए ), 3000 करोड़ इंजीनियरिंग डिप्लोमा में प्रशिक्षु कार्यक्रम हेतु, भारतीय ज्ञान परम्परा हेतु 10 करोड़, डिजिटल बोर्ड के लिए 1 करोड़, केन्द्रीय विश्व विद्यालयों के लिए 5516 करोड़ ( पिछले बजट में 6800करोड़ का प्रावधान था ), मध्याह्न भोजन मिड डे मील के लिए 500करोड़ का प्रावधान। स्कूली शिक्षा और साक्षरता के लिए 54874 करोड़ और उच्च शिक्षा के लिए 38350 करोड़ का प्रावधान है। एनपीएसटी विकास स्कूल अध्यापकों के लिए मानक योग्यता ( एनपीएसटी) विकसित होगा और शैक्षिक नियोजन, प्राशासन के लिए नेशनल डिजिटल एजुकेशनल आर्किटेक्चर बनेगा। स्कूली अध्यापकों के प्रशिक्षण का निष्ठा कार्यक्रम भी चलेगा। समग्र शिक्षा अभियान का बजट 31050.16 कर दिया गया जो पहले 38750 करोड़ था। जेंडर के लिए 100 करोड़ कम का प्रावधान है। राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान (एनआरएफ़) के लिए 50,000 करोड़ का प्रावधान है। नवोदय विद्यालयों के लिए 320 करोड़, केन्द्रीय विद्यालयों के लिए 32 करोड़, एनसीआरटी के लिए पिछले साल की तुलना में 110.08 करोड़ अधिक मिला है। कुल मिलाॉकर पिछले बजट में 99312 का प्रावधान था जो अब 93224 हो गया है। यानी छह हजार करोड़ कम। पिछले बजट से 6.13 प्रतिशत कम हालांकि यह पिछले साल के संशोधित बजट से अधिक है।
कुल मिलाकर शिक्षा के लिए बजट प्राविधान पुराने ढर्रे पर ही है। नई शिक्षा नीति के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं किया गया है। कठिन परिस्थितियों और चुनौतियों को देखते हुए शिक्षा के लिए पूर्वापेक्षया अधिक प्रावधान की आशा थी। विशाल आकार के बजट में शिक्षा को बमुश्किल ही कुछ जगह मिली और छह प्रतिशत जीडीपी की बात बिसर गई। भारत की युवतर होती जनसंख्या और शिक्षा की जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। आशा है नई शिक्षा नीति को गंभीरता से लेते हुए शिक्षा के लिए बजट प्रावधान में सुधार किया जायगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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