नई दिल्ली। अहिंसा (nonviolence) का प्रयोग जब योग्य पात्रों (worthy characters) के साथ किया गया तो ऐसे बदलाव आए जिससे इतिहास (history) बन गया. इसे उदाहरणों से समझना हो तो सनातन भारत (Sanatan Bharat) के लोकजीवन में सैकड़ों सालों से चले आ रहे प्रसंगों पर गौर कीजिए. कैसे नारद के प्रश्न डाकू रत्नाकर को बींधते हैं? फिर एक परिवर्तन से वो आदिकवि वाल्मीकि (Adikavi Valmiki) बन जाते हैं? कैसे बुद्ध का तोड़ो नहीं जोड़ो का सवाल अंगुलिमाल डाकू को तिलमिला कर रख देता है और वह एक खूंखार डकैत से बुद्ध का अनुयायी बन जाता है. कलिंग के युद्ध का रक्तपात देखकर सम्राट अशोक का ह्रदय कैसे परिवर्तित होता है? ये उदाहरण अहिंसा के सफल प्रयोग के हैं।
इन परिघटनाओं में जो हुआ उसे ही गांधी जी (Gandhiji) सत्याग्रह और अहिंसा कहते थे. सत्याग्रह माने सत्य की शक्ति पर आग्रह. इसका अर्थ यह है कि अगर आपका उद्देश्य पवित्र है, यदि आपका संघर्ष झूठ और अन्याय के खिलाफ है तो उत्पीड़क से लड़ने के लिए शरीर के बल की आवश्यकता नहीं है. इस लड़ाई में सत्याग्रही प्रतिशोध की भावना के बिना या फिर आक्रामक हुए बगैर अहिंसा के रास्ते पर चलकर, सत्य को सामने रखकर अपने लक्ष्य में कामयाब हो सकता है. इसके लिए शत्रु या प्रतिपक्ष की चेतना झिंझोड़ना जरूरी है. इसलिए ऋषि नारद ने सहज संवाद के द्वारा पाप और पुण्य का सवाल उठाकर डाकू रत्नाकर को विकल कर दिया और उसे सच देखने का नजरिया दिया. गौतम बुद्ध अंगुलिमाल की चेतना को झकझोरने में कामयाब होते हैं और उसका जीवन बदल देते हैं।
लेकिन इसी के बरक्श स्वतंत्रता संग्राम को याद करिए. जहां गांधी ने सत्य और अहिंसा को अंग्रेजों के शोषण और जुर्म से लड़ने के लिए हथियार बनाया. पर अंग्रेजों के साम्राज्यवादी लालच, कुटिल मंशा और हिंसक वृति के सामने अहिंसा का उनका ये हथियार कमजोर पड़ गया. इसकी गवाही जलियांवाला बाग में खून से लथपथ सैकड़ों निर्दोष लोगों की लाशें देती हैं, जिन्हें जनरल डायर की पुलिस की गोलियों ने छलनी कर दिया था. इसकी गवाही लाला लाजपत राय के शरीर के जख्म से रिसते खून के वो कतरे देते हैं जिन्हें अंग्रेजों की लाठी ने पैदा किया था. 1942 से 44 के बीच गांधी के सामने, कुव्यवस्था का शिकार होकर, अंग्रेजों की जेल (आगा खां पैलेस) में पहले उनके सचिव महादेव देसाई चल बसे, फिर हार्ट अटैक से रुग्ण हो चुकीं कस्तूरबा गांधी संसार को अलविदा कह गईं।
लेकिन गांधी जी के लिए तो अहिंसा व्रत के समान थी. इस पर उनकी अडिग आस्था थी. उनका दृढ़विश्वास था कि सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं का समाधान केवल अहिंसात्मक वृतियों के द्वारा ही निकाला जा सकता है।
यही वजह रही कि आजादी के आंदोलन में सविनय अवज्ञा, भूख हड़ताल, असहयोग, जेल भरो जैसे नवाचार गांधी जी के हथियार बने. आज के लोकतंत्र में भी ये प्रतिरोध के ताकतवर साधन माने जाते हैं. इनकी वैधता की तस्दीक सत्ता की पुलिस भी करती है, और आज भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस अधिक से अधिक पानी के फव्वारे ही फेंकती है. गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में अपने कटू अनुभवों और अभिनव प्रयोगों से आंदोलन के इन हथियारों को विकसित किया।
1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड का वीभत्स रूप देख चुके गांधी ने 11 अगस्त 1920 को ने यंग इंडियन में लिखा था, “अहिंसा का धर्म केवल ऋषियों और संतों के लिए नहीं है. यह सामान्य लोगों के लिए भी है. अहिंसा उसी प्रकार से मानवों का नियम है जिस प्रकार से हिंसा पशुओं का नियम है.” गांधी अहिंसा के महत्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं, “जिन ऋषियों ने हिंसा के बीच अहिंसा की खोज की, वे न्यूटन से अधिक प्रतिभाशाली थे. वे स्वयं वेलिंग्टन से भी बड़े योद्धा थे. शस्त्रों के प्रयोग का ज्ञान होने पर भी उन्होंने उसकी व्यर्थता को पहचाना और श्रांत संसार को बताया कि उसकी मुक्ति हिंसा में नहीं अपितु अहिंसा में है.” गांधी इसे ही जनजीवन में देखना चाहते थे।
हालांकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एक औपनिवेशिक शक्ति से इन नैतिक मूल्यों की उम्मीद करना अपने लिए उत्पीड़न और यंत्रणा को न्यौता देने के समान था. अपना हित साधने में लगभग अंधी हो चुकी ब्रिटिश सरकार ने इन मूल्यों की शायद ही कभी परवाह की और जब जरूरत आ पड़ी उसने निर्दयता से उस आंदोलन को कुचला जो भारतीयों के सहज अधिकार के लिए थे. अपनी जमीन पर आजाद रहने का अधिकार. स्वराज का अधिकार. लेकिन बापू को अपने प्रयोगों पर भरोसा होता था. इसलिए उन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलनों की श्रृंखला ही चला दी।
अहिंसा का हथियार लेकर उतरे हिन्दुस्तानियों के सामने अंग्रेज बर्बर तरीके से पेश आए और उन्होंने आजादी मांग रहे भारतीयों को गाजर-मूली की तरह रौंद दिया. जेल भर दिए गए, अंधाधुंध गोलियां चलाई गई. महिलाओं-बच्चों को भी बख्शा नहीं गया. न्याय का प्रपंच रचने वाली ब्रिटिश अदालतों ने स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल युवाओं को मनमाने तरीके से फांसी की सजा मुकर्रर की।
1919 का जलियावाला बाग नरसंहार कौन भूल सकता है. 1928 में लाला लाजपत राय पर लाठियों का प्रहार किसे याद नहीं होगा? अंग्रेजी हुक्मरान ने न सिर्फ अहिंसा के सिद्धांत की सार्वभौमिक प्रासंगिकता का उपहास उड़ाया बल्कि जीजस क्राइस्ट, जिसकी सत्ता में वे खुद विश्वास करते थे, के करुणा और क्षमा के सिद्धांतों की भी निर्मम हत्या कर दी।
अंग्रेजों को गांधीजी की अहिंसा से भय नहीं था. इसलिए ऊपर हमने कहा है कि अहिंसा के जरिए जिसके खिलाफ हम अपने पवित्र उद्देश्य (भारत के संदर्भ में आजादी का आंदोलन) को पाने चले हैं वो इस भाव को लेकर कितना आग्रही है उस पर भी नॉन वायलेंस की सफलता निर्भर करती है. अन्यथा ये तो एक पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष पर अत्याचार हो जाता है।
एक लक्ष्य को हासिल करने के लिए साधन के रूप में अहिंसा को हम जिस पात्र के खिलाफ आजमाना चाहते हैं. वो इसे लेकर कितना रिसेप्टिव है ये अहिंसा की स्थापना का बड़ा संवेदनशील पहलू है. उसके शील, उसकी सदाचारिता के खरेपन की चर्चा भी जरूरी है. तभी अहिंसा की उपादेयता साबित हो सकेगी. आजादी के आंदोलन में बापू अहिंसा का प्रयोग कर जिन अंग्रेजों से स्वराज हासिल करने की लड़ाई लड़ रहे थे, वे चरित्र में प्रचंड साम्राज्यवादी, लोभी, कुटिल और क्रूर थे. व्हाइट मैन बर्डेन के बोझ तले दबा ये शासक वर्ग तो भारतीयों को कथित तौर पर सभ्य करना अपना नैतिक कर्तव्य समझता था. भारत को ‘सभ्य’ करने के लिए इस अंग्रेजी सत्ता को दमन और हिंसा के इस्तेमाल से तनिक भी गुरेज न था।
आदर्श स्थिति तो ये होनी चाहिए थी कि कथित रूप से लॉ एंड ऑर्डर कायम रखने के नाम पर जनरल डायर कुछ लाठियां चलवाकर जालियांवाला बाग से लोगों को जाने देता? आखिर वे एक मीटिंग मात्र ही कर रहे थे. लाला लाजपत राय तो साइमन कमीशन का विरोध मात्र कर रहे थे. उन्हें तो चार सिपाही उठाकर ले जा सकते थे. लाठियों से छलनी उनका शरीर अंग्रेजों के श्रेष्ठता बोध का आवरण उघाड़कर रख देता है।
4 अगस्त 1946 को हरिजन पत्रिका में गांधी जी लिखते हैं- ‘अहिंसा का मार्ग हिंसा के मार्ग की तुलना में कहीं ज्यादा साहस की अपेक्षा रखता है’. दरअसल साम्राज्यवाद की नींव पर पनपे गोरों का नैतिक कंपास कभी भी इतना ऊंचा था ही नहीं. न ही तब अंग्रेजों से इसकी कैफियत लेने की हिम्मत किसी में थी. नीति और नीयत दोनों पर उनका अपना ही अधिकार था।
हां, बैरिस्टर गांधी को अंग्रेज कभी व्यक्तिगत रूप से शारीरिक चोट नहीं पहुंचा सके क्योंकि 1915 तक दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटते-लौटते गांधी कद और पद में काफी ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे. उनकी डीलिंग अब सीधे लंदन से होती थी इसलिए भारत में महारानी की चाकरी कर रहे गोरों में गांधी को चोटिल करने की औकात नहीं थी. दक्षिण अफ्रीका के पीटमेरित्जबर्ग में ट्रेन से फेंके जाने के बाद गांधी जी ब्रिटिश सरकार को सत्याग्रह और अहिंसा की शक्ति से परिचित करा चुके थे।
राजनीतिक आंदोलन के साधन के रूप में जब अहिंसा पर डिबेट होती है तो आलोचक कहते हैं कि एक वैयक्तिक गुण के रूप में अहिंसा कितनी ही आदर्श और अनुकरणीय क्यों न हो, स्थायी प्रयोग के लिए राजनैतिक साधन के रूप में यह कसौटी पर खरी नहीं उतरती. लेकिन गांधी बेझिझक इस बात का श्रेय ले जाते हैं कि उन्होंने वैयक्तिक अहिंसा को सामाजिकता स्वरूप दिया. जन-जीवन से उसका परिचय करवाया. बुद्ध-महावीर के लंबे समय के बाद उन्होंने अहिंसा को व्यवहार में लाया।
स्वतंत्रता प्राप्त करने के साधनों को लेकर गांधी का गरम दल के नेताओं, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस जैसे क्रांतिकारियों से विरोध रहा. जो मानते थे कि सशस्त्र क्रांति ही स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त कर सकती है. गांधी इन क्रांतिकारियों के मार्ग को हिंसक बताकर खारिज करते रहे. 1908 में गांधी जब दक्षिण अफ्रीका में थे तब अंग्रेजों ने खुदीराम बोस को फांसी दे दी. इतिहास और राजनीति शास्त्र की कक्षाओं में इस बात पर आज भी गर्मागर्म बहस होती है कि गांधी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांसी रुकवाने की पुरजोर कोशिश नहीं।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी की सजा रुकवाने के लिए तत्कालीन वायसराय इरविन से कई बार बात की. गांधी चाहते थे कि भगत सिंह और उनके साथी हमेशा-हमेशा के लिए हिंसा का रास्ता छोड़ने का वादा करें. इसका हवाला देकर वे फांसी रुकवाने की कोशिश कर रहे थे. उन्होंने आसिफ अली को लाहौर जेल में बंद भगत सिंह और उनके साथियों से मिलने भेजा. वो बस एक वादा चाहते थे कि भगत सिंह और उनके साथी हिंसा का रास्ता छोड़ देंगे. लेकिन आसिफ अली की मुलाकात भगत सिंह से न हो सकी. इसके बाद भी गांधी इरविन से मिले. ये धूर्त वायसराय गांधी को आश्वासान ही देता रहा. इस प्रसंग में गांधी जी की अहिंसा की अपील को अंग्रेजों ने खारिज कर दिया।
गांधी जी के दर्शन में अंहिसा गतिशील अवधारणा है. गांधी की अहिंसा कायरों का नहीं बल्कि वीरों की आभूषण है. इसलिए लोकजीवन में जब गांधी के सामने हिंसा और कायरता में एक को चुनने का विकल्प आता है तो बापू बेझिझक हिंसा का वरण करना पसंद करते हैं. साबरमती में लड़कियों के एक प्रश्न के उत्तर में गांधी ने कहा था कि यदि आवश्यकता पड़े तो आत्मरक्षा के लिए वे दांत एवं नाखून से आक्रामणकारी की छाती को विदीर्ण कर दें. उत्तराखंड की अंकिता की मां द्वारा उनकी बेटी के हत्यारों के लिए फांसी की मांग को गांधी क्या कहते हिंसा या अहिंसा?
अहिंसा को लेकर हमारा जो आदर्श वाक्य है वो है- अहिंसा परमो धर्म:. महाभारत से लिया गया ये पूरा श्लोक इस तरह है- “अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च:” इसका सामान्य अर्थ है अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म है और जब धर्म पर संकट आये तो उसकी रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं।
बावजूद इसके गांधी अहिंसा को स्थापित करने में एक कदम आगे जाते हैं. वे कहते हैं ‘सत्याग्रह शारीरिक बल नहीं हैं, सत्याग्रही अपने शत्रु को कष्ट नहीं पहु्ंचाता, वह अपने शत्रु का विनाश नहीं चाहता, सत्याग्रह के प्रयोग में दुर्भावना के लिए कोई स्थान नहीं है. गांधी के राम राज्य में प्रेम, त्याग और शांतिपूर्ण सहअस्तित्व आदर्श समाज का आधार है. कलह-कोलाहल और टकराव के दौर में ये भारत के वैश्विक मूल्य हैं. इसी मूल्य को नेल्शन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने जिया और ऐसे बदलाव लेकर आए जिससे इतिहास की धारा बदल गई. अहिंसा के इसी मूल्य से हमारी पहचान है. इसलिए फ्रॉम द लैंड ऑफ गांधी दुनिया में भारतीयों का सबसे सहज परिचय है।
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