– ऋतुपर्ण दवे
जबरदस्त बारिश, बाढ़ और तबाही का मंजर इसबार अगस्त के आखिर तक दिखा। इसके उलट 5 से 6 महीने बाद ही अलग तस्वीर दिखनी शुरू हो जाएगी। पूरे देश में जहां-तहां सूखे और जल संकट की तस्वीरें आनी शुरू हो जाएगी। यह सब प्रकृति के साथ हो रही क्रूरता के चलते सामने आती है।
वर्षों पहले भारत की जलवायु को लेकर दुनिया का अलग नजरिया था लेकिन अंधाधुंध विकास ने प्रकृति के साथ जो क्रूर मजाक किया उसका नतीजा है कि अक्सर भरपूर बारिश और बाढ़ के बावजूद कुछ महीनों में पानी की जबरदस्त किल्लत खड़ी हो जाती है। देश के अलग-अलग कोनों से बारिश के ठीक उलट सूखे की हैरान करने वाली तस्वीरें आनी शुरू हो जाती है। कुंए, तालाब और ट्यूबवैल सूख जाते हैं। कहीं मालगाड़ी के टैंकरों में भरकर पानी भेजा जाता है तो कहीं मीलों पैदल चलकर लोग दिनभर में 10-20 लीटर पीने के पानी का इंतजाम कर पाते हैं। शहरों में नगर निगम या पालिकाओं के टैंकर के आगे लगती भीड़ आम हो चुकी है। इतना ही नहीं, गर्मी शुरू होते ही पानी के लिए मचने वाली तबाही और झगड़े यहां तक कि कई बार हत्याएं भी नई बात नहीं रह गई।
भरपूर बारिश के बावजूद पानी सहेजने का न कोई पुख्ता इंतजाम है और न ही मुकम्मल कानून जिसके चलते मजबूरी में ही सही पानी को सहेजा जा सके। भरपूर बारिश, बाढ़ और तबाही की तस्वीर पुरानी होते ही पानी की किल्लत का नया सिलसिला हर बार ऐसा दुर्भाग्य बन जाता है जिसके लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। सच तो यह है कि प्रकृति की यह बड़ी कृपा है जो उसके साथ लाख ज्यादती कर चुके इंसान पर मेहरबान रहती है। इसीलिए अभी अगले 30 साल बाद होने वाले पानी संकट की भविष्यवाणी से डर लगता है। जबकि भरपूर बारिश के पानी को यूं ही बहने देते हैं जो डर को खतम कर सकता है। यही विडंबना है कि अभी पानी है तो कद्र नहीं और 30 साल बाद की चिन्ता खाए जा रही हैं।
इसके लिए लालफीताशाही के खेल को भी समझना होगा। धरती की सूखी कोख को लबालब करना न कोई कठिन काम है और न इसमें कोई बड़ी भारी तकनीक की जरूरत है। बस एक इच्छाशक्ति और उससे भी ज्यादा थोड़ी सख्ती की, जिससे यह सहज हो पाता। हैरानी की बात है कि बड़ी-बड़ी कागजी नीतियाँ, भाषण और सेमिनार पर अंधाधुंध धन फूंकने वाले हुक्मरान और हमारे ही पसंदीदा नुमाइन्दे इस बाबत दुनिया भर की सैर कर गोष्ठियों और विचार-विमर्श के बाद आत्मविश्वास से ऐसे लबरेज दिखते हैं कि बस समस्या अब हल हुई की तब। सच यह है कि समाधान भी वहीं से निकलता है जहां समस्या है लेकिन इसके लिए लंबी-चौड़ी योजानाएं और नीतियां बन जाती हैं, जिनसे कुछ हासिल होता नहीं। कागजी औपचारिकताओं के बोझ से इतर सीधा, सपाट और कुछ सौ रुपए में वास्तविक और स्थाई समाधान को हवा-हवाई बता खर्चीली व्यवस्था,आदेश, निर्देश, परिपत्र, विचार गोष्ठियों और अब फीडबैक में भारी-भरकम अपव्यय का अनवरत सिलसिला चल पड़ता है। जिससे कुछ बदलता नहीं। पानी के संग्रहण के प्रबंधन को लेकर भी सच यही है।
आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिदिन 4,84,20,000 क्यूबिक मीटर से ज्यादा पीने का पानी बर्बाद होता है। वहीं देश की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा दूसरे लोगों के चलते साफ पीने के पानी से वंचित है। जबकि देश में औसतन हर वक्त करीब 6000 लोग पीने के पानी कमी से जूझते हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि केवल अगले 4-5 सालों में ही पानी की जरूरत 4 से 5 गुना बढ़ जाएगी। यह बेहद चिन्ता वाली बात है। कर्नाटक के कुछ क्षेत्रों में पानी 800 फीट की गहराई तक जा पहुँचा है, वहीं बनासकांठा में तो और भी गहराई में जा चुका है। नासा की 4 वर्ष पुरानी एक रिपोर्ट बेहद डरावनी है जिसमें राजस्थान के चूरू, झूंझुनूं और सीकर जिलों में पानी का स्तर देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में सबसे तेज गति से घट रहा है। रिपोर्ट में भूमिगत पानी के दोहन की स्थिति नहीं रुकने पर उत्तर भारत के इन तीन जिलों के अलावा हरियाणा व दिल्ली की करीब दस करोड़ की आबादी को जल संकट की चेतावनी दी गई जो बीते वर्षों में काफी कुछ सही दिखी। नासा के वैज्ञानिक रोडेल की रिपोर्ट बताती है कि केवल छह साल में यहां जितने पानी का दोहन किया गया उससे देश के सबसे बड़े भाखड़ा-नांगल जैसे दो बांध भर सकते थे।
पानी की समस्या का समाधान कठिन नहीं है लेकिन इसपर इच्छाशक्ति और सख्ती की जरूत है। जिस तरह अपने मकान में हर कोई गंदे जल और मल की निकासी के लिए पुख्ता इंतजाम करता ही है ठीक वैसे बारिश के पानी को रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरिए सीधे धरती की कोख में पहुंचाने पर ही किसी को भी उस मकान में रहने देने की सबसे जरूरी और कड़ी शर्तों में शामिल किया जाए। इस सिस्टम में न कोई खास तकनीक है न ज्यादा पेंच। सीधे, सरल तरीके से बारिश का पानी मकान से धरती की कोख में हैण्डपम्प, बोरवेल या कुएँ के माध्यम पहुंचाया जाए। वाटर हार्वेस्टिंग बेहद आसान, सस्ती और देशी तकनीक है, जिसमें छत के बरसाती पानी को गड्ढे या गहरी नाली के जरिए जमीन में उतारना, छतों में पाइप लगाकर घर के या पास के किसी कुएँ में सीधे जोड़ देना वो तरीका है जिससे न केवल कुआं रिचार्ज होता है बल्कि जमीन के अन्दर तक पहुंचा पानी भूजल स्तर को बढ़ाता है। इसी तरह छत के बरसाती पानी को सीधे पाइप के जरिए बीच में एक छोटा व आसान फिल्टर लगाकर ट्यूबवेल में भेजा जाता है. इससे पानी का स्तर बना रहता है। जबकि घर में पर्याप्त जगह होने पर छत के ही पानी को अलग किसी टैंक में जमा कर लिया जाए और बाद में इसका लंबे वक्त तक उपयोग किया जा सके। इस तरह एक बरसात में छोटी-सी छत भी हजारों गैलन पानी जमीन को वापस दे सकती है। यह सारा काम बहुत छोटी जगह में हो सकता है। इसके लिए ढाई से पांच फुट चौड़ा और पांच से दस फुट गहरा गड्ढा काफी होता है। जिसमें नीचे बड़े, बीच में छोटे पत्थर और सबसे ऊपर रेत या बजरी का उपयोग करते हैं जो कि पानी छानकर भेजने का काम करता है।
हर शहर व गांव के प्रत्येक घर में बारिश के पानी को सहेजने रेन वारटर हार्वेस्टिंग जरूरी हो, उल्लंघन पर सजा और जुर्माने के प्रावधानों का कड़ाई से पालन कराया जाए। वाटर हार्वेस्टिंग का पानी दूसरे स्रोतों बेहतर है। इसमें कोई संक्रमण नहीं होता है और न ही घातक बैक्टीरिया ही। वहीं इसका पीएच मान भी आदर्श 6.95 होता है जो प्राकृतिक, सामान्य व उपयोग के लिए बेहतर होता है। अभी शहरों और गांवों से हर साल करोड़ों गैलन बारिश का साफ पानी गंदे नालों में बहकर बेकार हो जाता है। थोड़े प्रयासों से न केवल पानी की समस्या का स्थायी और आसान निदान मिल जाएगा बल्कि इससे पानी के संग्रहण को भी प्रोत्साहन मिलेगा और तालाब, पोखर, नदी, नालों में भी लोग बारिश के पानी से लाभ का तरीका निकालेंगे। इसे लोगों की आदत में शुमार कर दिया जाएगा तो देश ही नहीं दुनिया भर के लिए बहुत बड़ा उदाहरण और वरदान भी बन सकता है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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