– प्रमोद भार्गव
आखिरकार दुश्मनों का पसीना छुड़ा देने वाले पांच फ्रांसीसी फाइटर जेट राफेल भारतीय वायुसेना का हिस्सा बन गए। चीन से तनाव के चलते राफेल का सेना में शामिल होना सैनिकों का मनोबल बढ़ाएगा। ये लड़ाकू विमान लद्दाख की ऊंची पहाड़ियों की छोटी जगह पर भी उतर सकते हैं। इसे समुद्र में चलते हुए युद्धपोत पर भी उतारा जा सकता है। राफेल को अंबाला के एयरबेस पर इसलिए तैनात किया गया है, क्योंकि यहां से चीन और पाकिस्तान की सीमाएं अत्यंत नजदीक हैं।इन विमानों को आसमान से युद्ध के लिए विलक्षण माना जाता है।
राफेल अनेक खूबियों से भरा विमान है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह एक मिनट के मामूली समय में 60,000 किमी की ऊंचाई पर न केवल पहुंच जाता है, बल्कि जरूरत पड़ने पर परमाणु हथियारों से हमला करने में भी सक्षम है। साफ है, जब अतिक्रमणकारी चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा को लांघने के लिए एक दर्जन से भी ज्यादा जगह उत्पात मचाए हुए है, ये विमान वायुसैनिकों का मनोबल बढ़ाने का काम करेंगे। मिसाइलों से लैस ऐसे विमान फिलहाल चीन और पाकिस्तान के पास भी नहीं हैं। राफेल में हवा से हवा में मार करने वाली तीन तरह की मिसाइलें लगाई जा सकती हैं। तय है, राफेल का भारतीय धरती पर आगमन दुश्मनों को सबक भी है। वैसे भी चीन और पाकिस्तान को समझ लेना चाहिए कि उनकी कोई भी हरकत प्रधानमंत्री के मजबूत नेतृत्व और ठोस सामरिक क्षमता के चलते उनपर भारी पड़ सकती है।
देरी और दलाली से अभिशप्त रहे रक्षा सौदों में राजग सरकार के वजूद में आने के बाद से लगातार तेजी दिखाई दी है। मिसाइलों और रॉकेटों के परीक्षण में भी यही गतिशीलता दिखाई दे रही है। इस स्थिति का निर्माण, सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए जरूरी था। वरना रक्षा उपकरण खरीद के मामले में संप्रग सरकार ने तो लगभग हथियार डाल दिए थे। सवाल उठता है कि इस विमान की खरीद में विपक्ष और राहुल गांधी संसद से लेकर सड़क तक बेबुनियाद आरोप-प्रत्यारोप लगाकर अड़ंगे लगाते रहे। इस कारण खरीद में जरूरत से ज्यादा देरी हुई। जबकि इनके खरीदे जाने का फैसला मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में ही हो जाना चाहिए था। किंतु रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के चलते तत्कालीन रक्षामंत्री एके एंटनी तो इतने मानसिक अवसाद में आ गए थे कि उन्होंने हथियारों की खरीद को टालना ही अपनी उपलब्धि मान लिया था। नतीजतन, हमारी तीनों सेनाएं शस्त्रों की कमी का अभूतपूर्व संकट झेल रही थीं और मनमोहन सिंह निर्णय लेने में अक्षम रहे। नतीजतन नरेंद्र मोदी सरकार ने इस गतिरोध को तोड़ा और राफेल विमानों की खरीद सुनिश्चित की। अन्य हथियारों व उपकरणों की खरीद का सिलसिला भी आगे बढ़ रहा है। फ्रांस की द सॉल्ट कंपनी से 36 राफेल विमानों का सौदा तय हुआ है। जबकि इस सौदे से पहले 17 साल तक केंद्र की कोई भी सरकार लड़ाकू विमान खरीदने का सौदा ही नहीं कर पाई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में फ्रांस यात्रा के दौरान फ्रांसीसी कंपनी द सॉल्ट से जो राफेल जंगी जहाजों का सौदा किया है, वह अर्से से अधर में लटका था। इस सौदे को अंजाम तक पहुंचाने की पहल वायु सैनिकों को संजीवनी देकर उनका आत्मबल मजबूत करने का काम करेगी। फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद और नरेंद्र मोदी से सीधे हुई बातचीत के बाद सौदे को अंतिम रूप दिया गया था। इस लिहाज से इस सौदे के दो फायदे देखने में आ रहे हैं। एक तो ये युद्धक विमान जल्दी से जल्दी हमारे वायुसेना के जहाजी बेड़े में शामिल होना शुरू हो गए, दूसरे, इस खरीद में कहीं भी दलाली की कोई गुंजाइश नहीं है, क्योंकि सौदे को दोनों राष्ट्र प्रमुखों ने सीधे संवाद के जरिए अंतिम रूप दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और रक्षामंत्री एके एंटनी की साख ईमानदार जरूर थी, लेकिन ऐसी ईमानदारी का क्या मतलब, जो जरूरी रक्षा हथियारों को खरीदने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाए? ईमानदारी तो व्यक्ति को साहसी बनाने का काम करती है।
हालांकि यह सही है कि जंगी जहाजों का जो सौदा हुआ है वह संप्रग सरकार द्वारा चलाई गई बातचीत की ही अंतिम परिणति है। बहरहाल मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान सौदे में जो भी अड़चनें थीं, उन्हें एक झटके में दूर किया और सौदे की अनुकूल स्थितियां निर्मित की। चीन से जो युद्ध जैसे हालात बने हुए है, उसने राफेल खरीद की प्रासंगिकता को उसी तरह रेखांकित कर दिया है, जैसा राजीव गांधी के कार्यकाल में खरीदी गई बोफोर्स तोपों ने कारगिल युद्ध के समय किया था। तब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे जसवंत सिंह ने कारगिल की जीत का श्रेय बोफोर्स तोप को दिया था। जसवंत सिंह फौजी होने के साथ थलसेना में मेजर भी रह चुके थे। लिहाजा युद्ध में जीत के कारणों को एक फौजी से ज्यादा अन्य कोई क्या जान सकता है?
इन विमानों को पहले से ही फ्रांस की वायुसेना इस्तेमाल कर रही है, लेकिन विडंबना है कि ज्यादातर लड़ाकू विमान निर्माता देश पुराने विमान ही जरूरतमंद देशों को बेचते हैं। हालांकि 1978 में जब जागुआर विमानों का बेड़ा ब्रिटेन से खरीदा गया था, तब ब्रिटिश ने हमें वही जंगी जहाज बेचे थे, जिनका प्रयोग ब्रिटिश वायुसेना पहले से ही कर रही थी। लेकिन हरेक सरकार परावलंबन के चलते ऐसी ही लाचारियों के बीच रक्षा सौदे करती रही है। इस लिहाज से जब तक हम विमान निर्माण के क्षेत्र में स्वावलंबी नहीं होंगे, लाचारी के समझौतों की मजबूरी झेलनी होगी। इस सौदे की एक अच्छी खूबी यह है कि सौदे की आधी धनराशि भारत में फ्रांसीसी कंपनी को निवेश करना अनिवार्य है।
इस सौदे में राहुल गांधी के संदेह का प्रमुख आधार इस खरीद की कैबिनेट की सुरक्षा मामलों की समिति से अनुमति नहीं लेना है। दूसरे गुलाम नबी आजाद ने मोदी सरकार पर देशहित से समझौता करने का आरोप लगाया था। उनका कहना था कि यूपीए सरकार के दौरान इसी सौदे में विमान निर्माण की तकनीक हस्तांतरण करने की बाध्यकारी शर्त रखी गई थी, जो इस सरकार ने विलोपित कर दी। हालांकि राज्यसभा में रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने एक लिखित जवाब में स्पष्ट कर दिया था कि इस सौदे को लेकर भारत और फ्रांस के बीच हुए अंतर-सरकारी अनुबंध के दसवें अनुच्छेद के तहत इस सौदे में सूचनाओं और वस्तुओं के आदान-प्रदान का मामला 2008 में दोनों देशों के बीच हुए रक्षा समझौते के अंतर्गत ही है। लेकिन बड़ा सवाल उठता है कि मनमोहन सिंह को लगातार दस साल सरकार में रहने का मौका मिला, बावजूद यह सरकार राफेल सौदे को क्यों अंजाम तक नहीं पहुंचा पाई?
राहुल गांधी ने तो इस सौदे को बेमतलब और भ्रष्टाचार से ग्रस्त बताते हुए इतने झूठ बोले कि जब उन्हें सर्वोच्च न्यायालय के सामने अवमानना झेलने की नौबत आई तो उन्होंने न्यायालय से माफी मांगने में भी कोई लज्जा अनुभव नहीं की। इस नाते राहुल गांधी के साथ-साथ उन लोगों को भी शर्म से सिर झुकाने पड़े थे, जो बिना किसी तथ्य और साक्ष्य के सरकार पर मनगढ़ंत आरोप लगा रहे थे। जबकि राष्ट्र के प्रति सजग और जिम्मेदार नेता को राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर संयम और मर्यादा का पालन करना चाहिए। सीमा पर चीन से चल रहे विवाद पर भी राहुल अर्नगल प्रलाप करने में लगे हैं।
इन तोहमतों के बावजूद ये विमान खरीदना इसलिए जरूरी था, क्योंकि हमारे लड़ाकू बेड़े में शामिल ज्यादातर विमान पुराने होने के कारण जर्जर हालत में हैं। अनेक विमानों की उड़ान अवधि समाप्त होने को है और पिछले 19 साल से कोई नया विमान नहीं खरीदा गया है। इन कारणों के चलते आए दिन जेटों के दुर्घटनाग्रस्त होने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इन दुर्घटनाओं में वायु सैनिकों के बिना लड़े ही शहीद होने का सिलसिला बना हुआ है। खैर, अब राफेल की आमद ने लड़ाकू विमानों की कमी को तो पूरा करने का सिलसिला शुरू कर ही दिया है, सेना का आत्मबल बढ़ाने का काम भी किया है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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