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    चार महीने में अखिलेश यादव को दिए चार झटके, चुनाव जीतकर भी BJP ने छोड़ा नहीं अग्निपथ

  • July 27, 2022


    नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के बाद बीजेपी लगातार सपा को झटका देती जा रही है. जीत के बाद भी पार्टी शांति से घर नहीं बैठी, बल्कि उसी दिन से मिशन-2024 की तैयारी में जुट गई. बीजेपी ने चार महीने में सपा को चार बड़ी सियासी चोट दी है. सपा का मजबूत माना जाने वाला दुर्ग पूरी तरह से दरक चुका है. वहीं, ‘यादव’ कुनबे में भी सेंध लग गई है. बीजेपी ने अखिलेश यादव के गठबंधन की ताकत को भी कमजोर किया है, जिसके दम पर सूबे में सपा मुख्य विपक्षी दल बनने में कामयाब रही थी. ऐसे में अखिलेश यादव और सपा दोनों के लिए के लिए सियासी चुनौतियां काफी बढ़ गई हैं?

    सपा का पूरी तरह बिखरा गया गठबंधन
    बीजेपी के खिलाफ 2022 के चुनाव में अखिलेश यादव ने बड़े दलों के बजाय जातिगत आधार वाले तमाम छोटे-छोटे दलों को साथ लेकर गठबंधन बनाया था, जिसके दम पर ही सपा 47 से बढ़कर 111 सीटें जीतने में कामयाब रही थी, जबकि बाकी विपक्षी दलों का सफाया हो गया था. लेकिन, सपा गठबंधन पूरी तरह से बिखर गया है. महान दल ने सपा से नाता तोड़ लिया है तो सुभासपा के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर और अखिलेश यादव की दोस्ती भी टूट गई है.

    शिवपाल यादव सपा से आजाद हो चुके हैं तो जनवादी पार्टी के चीफ संजय चौहान और कृष्णा पटेल की अपना दल के सुर भी बदल रहे हैं. ऐसे में फिलहाल अखिलेश के अगुवाई वाले सपा गठबंधन के साथ जयंत चौधरी का राष्ट्रीय लोकदल ही बचा है. राजभर सपा से आजाद होने के बाद अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है और उन्हें अतिपिछड़ा विरोधी बताकर कठघरे में खड़ा कर रहे हैं.

    राजभर-शिवपाल के बयानों से सपा को सियासी नुकसान हो सकता है, क्योंकि अखिलेश यादव के लिए 2024 के चुनाव में अकेले दम पर बीजेपी को टक्कर दे पाना आसान नहीं है. इसकी एक बड़ी वजह यह है कि बीजेपी 42 फीसदी से ज्यादा वोटों पर काबिज है. दूसरी वजह 2024 का चुनाव प्रदेश का नहीं बल्कि देश का है. ऐसे में स्थानीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मसलों पर बात होगी और बीजेपी का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे.


    उपचुनाव में सपा के गढ़ में दी मात
    बीजेपी ने सत्ता में आते ही सपा को सबसे बड़ा झटका उपचुनाव में दिया. आजमगढ़ और रामपुर संसदीय सीट सपा के लिए न सिर्फ सामाजिक समीकरण के लिहाज से काफी मजबूत मानी जाती थी, बल्कि पार्टी की जीत के परंपरागत फॉर्मूले एमवाई (मुस्लिम-यादव) समीकरण की भी प्रतीक रही है. ऐसे में ये दोनों ही सीटें बीजेपी ने जीतकर सपा के भविष्य की सियासत पर गहरा संकट खड़ा कर दिया है. उपचुनाव में सपा की हार मुलायम सिंह यादव से लेकर अखिलेश और आजम खान जैसे नेताओं की अपने गढ़ में कमजोर होती पकड़ का संकेत दे रही है.

    रामपुर और आजमगढ़ उपचुनाव के नतीजे ने दिखा दिया है कि बीजेपी की रीति-नीति और रणनीति सफल रही है. बीजेपी विपक्षी वोट बैंक में सेंधमारी के लिए आजमगढ़ में यादव समुदाय के दिनेश लाल यादव निरहुआ तो रामपुर में आजम खान के करीबी रहे सपा के पूर्व नेता घनश्याम लोधी के जरिए कमल खिलाने में कमयाब रही. बीजेपी ने सपा के सियासी समीकरण को देखते हुए कैंडिडेट उतारे और जीत दर्ज की, जबकि ये सीटें भाजपा के लिए काफी मुश्किल मानी जाती रही हैं.

    यादव-मुस्लिम के मजबूत समीकरण वाले आजमगढ़ संसदीय सीट के तहत आने वाली विधानसभा सीटों पर हाल ही में हुए चुनाव में बीजेपी का खाता भी नहीं खुला था. रामपुर में भी भाजपा की जीत का इतिहास बहुत अच्छा नहीं रहा. ऐसे में उपचुनाव में मिली जीत न सिर्फ बीजेपी का मनोबल बढ़ाने वाली है, बल्कि सपा की राह कठिन करने वाली भी है.

    सपा का उच्च सदन में घटा रुतबा
    बीजेपी दूसरी बार यूपी की सत्ता पर विराजमान हुई तो विधानसभा ही नहीं, बल्कि विधान परिषद में भी उसकी ताकत में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है. वहीं, राज्यसभा से लेकर विधान परिषद तक सपा की धाक कम हुई है और उसे विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष का पद भी खोना पड़ा. यूपी विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष के लिए न्यूनतम 10 सदस्य चाहिए होते हैं, पर सपा के पास मात्र 9 सदस्य हैं जबकि पांच साल पहले 60 से ज्यादा सदस्य थे.

    वहीं, बीजेपी पांच सदस्यों से बढ़कर 76 पर पहुंच गई है. इतना ही नहीं सपा की ताकत संसद में भी घटी है. राज्यसभा में सपा के 3 सदस्य बचे हैं तो लोकसभा में भी 3 ही सदस्य है. ढाई दशक में सपा सबसे कमजोर स्थिति में है. राष्ट्रीय महासचिव प्रो. रामगोपाल राज्यसभा की स्वास्थ्य व परिवार कल्याण समिति के अध्यक्ष हैं, लेकिन राज्यसभा में सदस्यों की संख्या कम होने से अध्यक्ष पद पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.


    ‘यादव’ कुनबे में बीजेपी की सेंध
    बीजेपी इस बार सत्ता में आने के बाद से अखिलेश यादव के ‘यादव’ कुनबे में जबरदस्त सेंधमारी करती दिख रही है. मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू अपर्णा यादव और भाई शिवपाल यादव के बाद चौधरी हरमोहन सिंह यादव परिवार की दूरी सपा के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं मानी जाएगी. करीब चार दशक पुराना याराना चौधरी हरमोहन का मुलायम परिवार से चला आ रहा था. जिसके अब टूटने का स्पष्ट संकेत मिल चुका है.

    चौधरी हरमोहन सिंह के 10वीं पुण्यतिथि कार्यक्रम में पीएम मोदी ने वर्चुअल शामिल होकर संबोधित किया, जबकि मुलायम परिवार से किसी को नहीं बुलाया गया. ऐसा माना जाने लगा है कि चौधरी हरमोहन कुनबा के लोग अब भगवा खेमे के साथी हो गए हैं. विधानसभा चुनाव से पहले बेटे मोहित यादव को बीजेपी में शामिल करवा चौ. सुखराम यादव ने इसके संकेत दे ही दिए थे.

    उत्तर प्रदेश की तीन दर्जन से ज्यादा जिले यादव बाहुल मानी जाती हैं. इसमें एटा, इटावा, कन्नौज, मैनपुरी, फर्रूखाबाद और कानपुर देहात जिलों की अधिकतर सीटें शामिल हैं. बीजेपी की नजर इन सीटों पर है. सपा के प्रभाव इन सीटों पर कम करने के लिए चौधरी परिवार के जरिए बीजेपी संदेश देने की कोशिश की है. बीजेपी अब सुखराम सिंह को आगे कर हरमोहन सिंह के नाम पर इन सीटों पर वर्चस्व जमाने की रणनीति.

    यूपी 10 लोकसभा सीटों पर यादव वोटों की निर्णायक भूमिका मानी जाती है. जिन चौधरी हरमोहन सिंह की बात की जा रही है वो मुलायम के करीबी रहे हैं और सपा की नीति और रणनीति बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है. किसी दौर में चौधरी हरमोहन सिंह की कोठी में सपा की चुनावी रणनीति से लेकर मंत्रिमंडल के गठन तक का मंथन किया जाता था, लेकिन अब इस कोठी से सपा के बजाय बीजेपी का भगवा झंडा लहरा रहा है. ऐसे में यादव कुनबे में बीजेपी के सेंधमारी के अखिलेश यादव की सियासी चुनौतियां बढ़ गई हैं.

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