– गिरीश्वर मिश्र
सात दशकों की अपनी प्रजातांत्रिक यात्रा में स्वतंत्र भारत ने राजनीति की उठापटक में अब तक कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति से लेकर अमृत महोत्सव मनाने तक की दूरी तय करने में देश के नायकों की चर्चा में जमीन से जुड़े और लोक-मानस का प्रतिनिधित्व करने वालों में भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी इस अर्थ में अनूठे हैं कि वे भारत के स्वभाव को भारत के नजरिये से परख पाते थे और परंपरा की शक्ति संजोते हुए भविष्य का स्वप्न देख सकते थे।
भारतीय संसद के सदनों में उनकी सुदीर्घ उपस्थिति राजनैतिक संवाद और संचार के लिए मानक बन चुकी थी। उनके व्यक्तित्व की बुनावट के ताने-बाने देश और लोक के सरोकारों से निर्मित हुए थे। किशोर वय में ही वे देश के आकर्षण से कुछ ऐसे अभिभूत हुए कि संकल्प ले डाला ‘हम जिएंगे तो इसके लिए, मरेंगे तो इसके लिए’ और अपने को इसके लिए समर्पित कर दिया। धैर्य, सहिष्णुता और वाग्मिता के साथ जीवन में एक कठिन और लंबी राह चलते हुए वे शीर्ष पर पहुंचे थे। वे कहते हैं ‘भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।’
भारत पर अंग्रेजी राज की लंबी दासता से मुक्ति मिलने के बाद आज लोकतांत्रिक देशों की पंक्ति में वैश्विक क्षितिज पर भारत आर्थिक और तकनीकी दृष्टि से एक सशक्त देश के रूप में उभर रहा है। इसके पीछे नेतृत्व की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती। विभाजन के बाद की कठिन परिस्थितियों में एक आधुनिक और समाजवादी रुझान के साथ उत्तर उपनिवेशी स्वतंत्र भारत की यात्रा शुरू हुई थी जिसका ढांचा बहुत कुछ अंग्रेजों द्वारा विनिर्मित था। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में नवाचार शुरू हुए थे और पंचवर्षीय योजनाओं का दौर चला था ताकि देश विकास की दौड़ में पीछे न रह जाय। इस बीच भारत समेत विश्व की परिस्थितियाँ बदलती रही। रूस और अमेरिका के बीच शीत युद्ध, वियतनाम युद्ध, पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के बीच की बर्लिन दीवार का टूटना, सोवियत रूस का विघटन और यूरोपियन यूनियन का गठन जैसी घटनाएं हुईं। भारत और पाकिस्तान के बीच 1965 तथा 1971 में युद्ध हुआ और बांग्ला देश का उदय हुआ।भारत के भीतर क्षेत्रीयता और जाति के समीकरण प्रमुख होने लगे।
पिछली सदी के सातवें दशक तक आते-आते राष्ट्रीय कांग्रेस और उसकी नीतियों से देश का मोहभंग शुरू हुआ। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाया जाना एक ऐसी घटना हुई जिससे घिसटती व्यवस्था और सिमटती देश-दृष्टि की सीमाएँ ज़ाहिर हुईं। भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और विभिन्न क्षेत्रों की उपेक्षा जैसे प्रश्नों से उलझती राजनीति से मोहभंग शुरू हुआ, जिसकी परिणति श्री जयप्रकाश नारायण की अगुआई में सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की बड़ी शुरुआत हुई।
नेहरू-गांधी परिवार ने लगभग चार दशकों तक सत्ता संभाली थी। इसके बाद भारतीय राजनीति की बुनावट और बनावट कुछ इस तरह बदली कि संभ्रांत के वर्चस्व की जगह व्यापक समाज जिसमें हाशिए पर स्थित मध्यम और दलित वर्ग भी शामिल था, अपनी भूमिका हासिल करने के लिए उद्यत हुआ। भारतीय राजनीति के नए दौर में पारदर्शिता, साझेदारी और संवाद की ख़ास भूमिका रही। उत्तर आपात काल में कांग्रेस के विकल्प के रूप में ‘जनता दल’ का गठन हुआ और श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार में श्री वाजपेयी परराष्ट्र मंत्री बने और 1977 से 1979 तक इस दायित्व का वहन किया।
आगे चलकर भारत का राजनैतिक परिदृश्य इस अर्थ में क्रमश: जटिल होता गया कि इसमें कई स्वर उठने लगे और यह स्पष्ट होने लगा कि विभिन्न राजनैतिक दलों को साथ लेकर चलने वाली एक समावेशी दृष्टि ही कारगर हो सकती थी। इसके लिए सहिष्णुता, खुलेपन की मानसिकता, सबको साथ ले चलने की क्षमता, सुनने-सुनाने का धैर्य और युगानुरूप सशक्त तथा दृढ़ संकल्प की जरूरत थी। इन सभी कसौटियों पर सर्वमान्य नेता के रूप में वाजपेयी जी खरे उतरे। विविधता भरी राजनीति में उनको लेकर बनी सहमति का ही परिणाम था कि उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए तीन बार स्वीकार किया गया। पहली बार 1996 में 13 दिनों का कार्यकाल था, 1998-1999 में दूसरी बार 19 महीने प्रधानमंत्रित्व संभाला। वर्ष 1999 में नेशनल डेमोक्रेटिक अलाएंस (एनडीए), जिसमें दो दर्जन के करीब राजनैतिक दल साथ थे, उसके कठिन नेतृत्व की कमान संभालते हुए वाजपेयी जी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने। यह पूर्णकालिक सरकार रही।
निजी स्वार्थ से परे हट कर लोक-हित की चिंता वाजपेयी जी के लिए व्यापक जनाधार का निर्माण कर रही थी। उनकी लोकैषणा किसी चुंबक से कम न थी। वे सबको सहज उपलब्ध रहते थे। उन्हीं के शब्दों में कहें तो उन्हें इसका तीव्र अहसास था कि मनुष्य की मनुष्यता सबके साथ जुड़ने में ही है। अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठ समर्पण और भारत देश के स्वप्न को साकार करने की सघन चेष्टा ही थी जिसने वाजपेयी जी को सबको स्वीकार्य बना दिया था। कुल दस बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा में सदस्य के रूप में वे जन प्रतिनिधित्व करते रहे।
वे एक श्रेष्ठ और रचनात्मक दृष्टि से संपन्न सांसद थे। उनकी आरोह-अवरोह वाली द्रुत-विलंबित वाग्मिता सबको प्रभावित करती थी। वे अपना पक्ष प्रभावी पर सहज और तर्कपूर्ण ढंग से रखते थे और ऐसा करते हुए सांसदीय मर्यादाओं का यथोचित सम्मान भी करते थे। वे पंडित दीन दयाल उपाध्याय के संसर्ग में राष्ट्र धर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन जैसे राष्ट्रीय प्रकाशनों से वर्षों जुड़े रहे। लेखन और पत्रकारिता के कार्य ने उनकी दृष्टि को विस्तार दिया। किशोर वय में एक स्वयंसेवक के रूप में कर्मठ जीवन की जो दीक्षा उन्हें मिली थी उसने युवा वाजपेयी की जीवन-धारा ही बदल दी थी। उन्होंने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष बने और 1968 से 1973 तक यह कार्यभार संभाला। देश से एकात्म होते हुए भारतीय समाज की चेतना को जगाना ही उनका एकमात्र ध्येय हो चुका था।
इस चर्चा के प्रसंग में यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि बहुलता और विविधता वाले भारत में किसी भी तरह की वैचारिक एकरसता और जड़ता श्रेयस्कर नहीं है। कांग्रेसी सरकारों की उपलब्धियों और नाकामियों को लेकर बहसें चलती रहती हैं और आगे भी चलेंगी पर भारत की पहली पूर्णकालिक मुकम्मल ग़ैर-कांग्रेसी सरकार बनाने का यश वाजपेयी जी को मिला। वर्ष 1999 से 2004 तक की अवधि में वह देश की सत्ता की बागडोर संभालते रहे। इससे पहले और उस दौर में भी उनके राजनैतिक जीवन की यात्रा अनेक उतार-चढ़ावों और चुनौतियों से अटी पड़ी थी पर अटल जी यही सोच आगे बढ़ते रहे: क्या हार में, क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं, कर्तव्य पथ पर जो मिला, यह भी सही वो भी सही।
भारत के 13वें प्रधानमंत्री के रूप में देश के स्वाभिमान और गौरव के लिए वाजपेयी जी ने अनेक निर्णय लिए।पोखरन-2 का परमाणु परीक्षण एक गोपनीय और बड़े जोखिम से भरा निर्णय था। अनेक बड़े देशों ने इस कदम के चलते बंदिशें भी लगाईं परंतु वाजपेयी जी ने दृढ़तापूर्वक सभी चुनौतियों का सामना किया और देश के परमाणु कार्यक्रम को निर्विघ्न आगे बढ़ाया। पड़ोसी देशों के साथ सहयोग, संवाद और सौहार्द की अनिवार्यता को वे बखूबी पहचानते थे। पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारने की उन्होंने साहस के साथ हर कोशिश की। वहां के प्रधानमंत्री श्री नवाज़ शरीफ़ से संवाद हेतु दिल्ली-लाहौर बस यात्रा की पहल ऐतिहासिक महत्व की थी। इसके फलस्वरूप कई मुद्दों पर सहमति भी बनी पर कारगिल की लड़ाई ने गतिरोध पैदा किया। इसके बावजूद तख्तापलट कर पाकिस्तान के राष्ट्रपति बने जनरल परवेज़ मुशर्रफ के साथ आगरा में बातचीत के साथ राह ढूढने की भी कोशिश की जो जनरल के दुराग्रह के चलते आगे न बढ़ सकी।
भारत के आंतरिक विकास के लिए देश में सड़कों का विस्तार कर आवागमन में सुविधा के लिए बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय राजमार्गों के विस्तृत संजाल का निर्माण आरंभ कराना वाजपेयी जी की एक महत्वपूर्ण पहल थी। देश में आधार संरचनाओं के विस्तार लिए यह वरदान सिद्ध हुआ है। ‘सर्व शिक्षा अभियान’ द्वारा शिक्षा के सार्वभौमीकरण का बड़ा लक्ष्य हासिल करने की दिशा में देश आगे बढ़ा है। इसी तरह कई तरह के आर्थिक सुधारों को गति देते हुए 21वीं सदी के भारत को दिशा देने में वाजपेयी जी का योगदान अविस्मरणीय है।
भारत के लिए डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति पद पर हेतु एनडीए के समर्थन में भी वाजपेयी जी की प्रमुख भूमिका थी। वाजपेयी जी सुकवि भी थे और उनके कई काव्य संग्रह भी प्रकाशित हुए थे। कविताओं को पढ़ने और सुनाने का वाजपेयी का अपना ही अंदाज़ था जो श्रोताओं को झकझोर देता था। हिंदी उनकी मातृभाषा थी पर वे उसकी राष्ट्रीय भूमिका के आग्रही थे। संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में 1977 में भारत के परराष्ट्र मंत्री के रूप में वाजपेयी जी ने हिंदी में भाषण देकर एक नई पहल की थी। हिंदी वाजपेयी जी की अभिव्यक्ति की भाषा थी और उनका हिंदी-लेखन तथा व्याख्यान हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।
आधुनिक मन और भारत की सनातन संस्कृति के पुरस्कर्ता वाजपेयी जी देश की व्यापक कल्पना को संकल्प, प्रतिज्ञा और कर्म से जोड़ते हुए भारत के गौरव और सामर्थ्य को संबर्धित करने के लिए सतत यत्नशील रहे। भारत सरकार ने 2014 में वाजपेयी जी का जन्मदिन ‘सुशासन दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया था। भारत की वर्तमान चुनौतियों के बीच सुशासन निश्चय ही सबसे महत्वपूर्ण है। नागरिक जीवन को सहज बनाने, न्याय देने तथा समानता और सौहार्द स्थापित करने की दिशा में देश को लंबी दूरी तय करनी है। अमृत महोत्सव इनके लिए प्रतिबद्ध होने का अवसर है।
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)
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