– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैं बराबर पहले दिन से ही लिख रहा था कि भारत सरकार को तालिबान से सीधे बात करनी चाहिए लेकिन नौकरशाहों के लिए कोई भी पहल करना इतना आसान नहीं होता, जितना कि किसी साहसी और अनुभवी नेता के लिए होता है। जो भी हो, इस समय दो सकारात्मक घटनाएं हुई हैं। पहली, मास्को में तालिबान के साथ हमारी सीधी बातचीत और दूसरी, अमेरिका, इस्राइल, यूएई तथा भारत के नए नए चौगुटे की शुरुआत !
जहां तक मास्को-बैठक का सवाल है, उसमें रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव ने साफ़-साफ़ कहा है कि तालिबान की सरकार और नीतियां सर्वसमावेशी होनी चाहिए। उनमें सारे कबीलों और लोगों को ही प्रतिनिधित्व नहीं मिलना चाहिए, बल्कि विभिन्न राजनीतिक शक्तियों का भी उसमें समावेश होना चाहिए याने हामिद करजई और अब्दुल्ला-जैसे नेताओं को भी शासन में भागीदारी मिलनी चाहिए अर्थात तालिबान सरकार में कुछ अनुभवी और जनता में लोकप्रिय तत्व भी होने चाहिए। इसके अलावा लावरोव ने इस बात पर भी जोर दिया कि अब अफगानिस्तान के पड़ोसी देशों में आतंकवाद का निर्यात कतई नहीं होना चाहिए। इस बैठक में चीन, पाकिस्तान और ईरान समेत 10 देश शामिल हुए थे।
रूस ने वही बात इस बैठक में कही, जो भारत कहता रहा है। भारत के प्रतिनिधि जे.पी.सिंग ने, जिन्हें काबुल में कूटनीति का लंबा अनुभव है, मास्को आए तालिबान नेताओं से खुलकर बात भी की और अफगान जनता की मदद के लिए पहले की तरह 50 हजार टन अनाज और दवाइयाँ भेजने की भी घोषणा की। यदि अगले कुछ हफ्तों में तालिबान सरकार का बर्ताव ठीक-ठाक दिखा तो कोई आश्चर्य नहीं कि उसे अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिलनी शुरू हो जाए।
हालांकि वहां के गृहमंत्री सिराजुद्दीन हक्कानी ने कल-परसों ही तालिबानी खीर में कुछ नीम की पत्तियां डाल दी हैं। उन्होंने ऐसे ‘शहीदों’ का सम्मान किया है और उनके परिजन को कुछ धनराशि भेंट की है, जिन्होंने पिछली सरकार के फौजियों और नेताओं पर जानलेवा हमले किए थे। ऐसी उत्तेजक कार्रवाई से उन्हें फिलहाल बचना चाहिए था। यदि भारत सरकार अपना दूतावास काबुल में फिर से खोल दे तो हमारे राजनयिक तालिबान को उचित सलाह दे सकते हैं। भारत ने अमेरिका के साथ मिलकर पश्चिम एशिया में जो चौगुटा बनाया है, वह अफगान-संकट के हल में तो मददगार होगा ही, इस्लामिक जगत से भी भारत के संबंध मजबूत बनाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)
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