मुंबई। इस हफ्ते रिलीज हुई ‘द वैक्सीन वॉर’ और ‘फुकरे-3’ को एंटरटेनमेंट टैक्स फ्री किया जाना चाहिए। क्योंकि विवेक अग्निहोत्री ने ‘द वैक्सीन वॉर’ में समझाया है, कि सरकार का विरोधी होने का मतलब यह नहीं कि आप देश के विरोधी हो जाएं। इस फ़िल्म में भारत में कोरोना वैक्सीन बनाने की उपलब्धि को क्रमवार समझाकर बताया गया है। इसके ठीक विपरीत फुकरे-3 में केवल टॉयलेट ह्यूमर ही है! भैया, जब इससेएंटरटेनमेंट होता ही नहीं तो फिर सरकार को एंटरटेनमेंट टैक्स क्यों दें?
कोविड-19 के संकटकाल में सरकार को सबसे ज्यादा गालियां मिलीं थी और कहा जाने लगा था कि सरकार को जनता की कोई परवाह नहीं थी। लॉकडाउन को लेकर भी फ़िल्में बन चुकी हैं, लेकिन विवेक अग्निहोत्री का मानना है कि सरकार ने जनता की बहुत परवाह की थी, वह भी प्रचार के बिना। कोरोना की वैक्सीन बनाने में भारत के वैज्ञानिकों और चिकित्सकों ने जान की बाजी लगा दी थी। बहुत से दबाव थे, बाहरी और भीतरी दोनों तरह के, लेकिन सरकार न तो डरी और न ही दबी। सबसे ज्यादा खतरा तो अपनों से ही था। जो लोग यह नैरेटिव दे रहे थे कि ‘इंडिया कांट डू’ उनको कामों के जरिये बता दिया गया कि इंडिया कैन डू ! साइंस में भी पॉलिटिक्स है! साइंटिस्ट होना अपने आप में नेशनल ड्यूटी है। भारत के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के कारण ही आज हम बिना मास्क लगाए बेफिक्र होकर घूम-फिर रहे हैं।
फिल्म में प्रधानमंत्री कहीं नहीं दिखाए गए हैं, लेकिन सक्षम भारत की बात ज़रूर की गई है। भारत को तोड़ने की साजिश रचनेवालों और विदेशी फार्मा कंपनियों के षड्यंत्र के साथ ही मीडिया के एक वर्ग पर भी सवाल किया गया है। भारत का मतलब सिर्फ भारत की सरकार नहीं होता। चुनाव जीतने की पॉलिटिक्स की तरफ भी फिल्म में इशारा किया गया है। फिल्म में नयापन ये है कि यह भारतीय साइंटिस्ट्स द्वारा देश का अपना वैक्सीन बनाने के संघर्षपूर्ण सफर को बयान करती है। यह वैक्सीन की खोज में लगी उन भारतीय साइंटिस्ट्स की कहानी है जिनमें 70 प्रतिशत महिलाएं थीं। जिन्होंने कई-कई सप्ताह तक रात और दिन काम किया और करोड़ों लोगों की जान बचाई। दुनिया के करीब सौ देशों को भारत ने वैक्सीन उपलब्ध कराई और दोस्ती की मिसाल कायम की।
यह डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है और न ही ऐसा बनाने की कोशिश की गई। फिल्म में गाने नहीं हैं, लेकिन पार्श्व संगीत प्रभावी है। पल्ल्वी जोशी ने दक्षिण भारतीय महिला वैज्ञानिक का रोल अच्छी तरह किया है। नाना पाटेकर और अनुपम खेर भी हैं। यह फिल्म बहुत अच्छी है, देखनीय! फिल्म देखते समय कई बार दर्शक भावुक हो जाते हैं। –डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
‘फुकरे-3’ है प्योर टॉयलेट ह्यूमर !
फुकरे और फुकरे रिटर्न्स के बाद अब यह फुकरे-3 आई है। कुछ तो भी है इस फिल्म में। ऐं- वें हंसाने की कोशिश है इसमें! दो अर्थ वाले डॉयलाग कई बार तो इस सीमा तक घटिया हैं कि दादा कोंडके भी शरमा जाए! इसमें सू सू और पसीने से पेट्रोल बनाने की कल्पना है, साउथ अफ्रीका जाकर हीरे खोजने की कल्पना है और चुनाव के नाम पर फूहड़ कल्पनाएं हैं। फिल्म लम्बी है और ऊपर से बेकार गाने डाल दिए गए हैं।
मासूमियत, भोलापन और बेवकूफी अलग अलग चीजें हैं, यह बात निर्माता को सोचनी चाहिए। पंकज त्रिपाठी इसमें यूँ ही खर्च हो गए। अगर आपको अहमकाना हरकतों से प्यार है तो फिर यह फिल्म आपके लिए ही है। –डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी
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