– डॉ. राजेंद्र प्रसाद शर्मा
कोरोना महामारी ने दुनिया के देशों को एक सबक दिया है और वह यह कि खेती किसानी ही अर्थव्यवस्था को बचा सकती थी। यह साफ हो जाना चाहिए कि आने वाले समय में भी खेती किसानी ही अर्थव्यवस्था की बड़ी ताकत रहेगी। ऐसे में सरकार को इस और खास ध्यान देना ही होगा। कोरोना में अन्नदाता की बदौलत ही देशवासियों खासतौर से जरूरतमंद लोगों को खाद्य सामग्री का मुफ्त वितरण किया जा सका। सबसे आश्चर्यजनक व संतोष की बात यह रही कि जहां अकाल व अन्य परिस्थितियों में यदा-कदा भूख से मौत के समाचार सुर्खियों में आते रहे हैं, पर 2019 से अब तक देश में कोरोना काल में भूख से मौत की एक भी सुर्खी नहीं बनी।
यह सब संभव हो पाया अन्नदाता और सरकार के कृषि क्षेत्र में सुधारों से ही। पर समस्या अब दूसरी होती जा रही है जो विषयांतर हो सकती है और वह यह कि अन्न की पौष्टिकता को लेकर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। इस पर फिर कभी चर्चा। पर सवाल यह है कि छोटी होती जोत का कोई ना कोई हल सरकार को खोजना ही पड़ेगा। इसके लिए सहकारिता आंदोलन और भूदान आंदोलन के शुरुआती दौर में संयुक्त खेती का जो कंस्पेट आया था उसके गुण-अवगुण पर आज की परिस्थितियों में विचार करना होगा। इसी तरह से परिवार कल्याण कार्यक्रम को गांवों में और अधिक प्रभावी बनाना होगा वहीं कृषि योग्य भूमि पर औद्योगिक विकास या अन्य विकास कार्यों का विकल्प खोजा जाना होगा। हालांकि अब देश में छोटे परिवार के महत्व को क्या गांव और क्या शहर सब समझने लगे हैं पर इस पर ध्यान जारी रखना होगा। क्योंकि छोटी होती जोत निश्चित रूप से कई समस्याएं पैदा करने वाली होगी। इसलिए समय रहते इस और नीति निर्माताओं को ध्यान देना होगा। सरकार के थिंक टैंक को इसका समाधान खोजना होगा। क्योंकि खेती आज भी प्रमुख रोजगार प्रदाता है तो अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार। ऐसे में समय रहते कोई ना कोई समाधान खोजना ही होगा। नई सहकार नीति और देश की कृषि सुधार कार्यक्रमों को इसे ध्यान रखना ही होगा।
कृषि प्रधान देश के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती अन्नदाता की घटती जोत को लेकर हो गई है। देश में एक और किसानों की जोत कम होती जा रही है वहीं खेती की लागत में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की हालिया रिपोर्ट चेताने वाली होने के साथ ही चिंतनीय भी है। देश में बड़े और मंझौले किसान कम होते जा रहे हैं तो लघु और सीमांत किसानों की संख्या बढ़ती जा रही है। बड़ी सीधी सी बात है कि जब जोत ही कम होगी तो किसान की लागत कहां से निकलेगी। हालांकि घटती जोत के लिए केवल सरकार को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अपितु जोत छोटी होने का बड़ा कारण शहरीकरण और बढ़ता परिवार है। पारिवारिक बंटवारे के चलते दिन प्रतिदिन जोत कम होती जा रही है। यदि बड़े और मंझोले काश्तकारों की संख्या में बढ़ोतरी होती तो निश्चित रूप से सरकार और केवल सरकार को दोषी ठहराया जा सकता था, सरकार की नीतियां दोषी हो सकती थी, पर बड़े और मध्यम श्रेणी के किसान कम होने से साफ होता जा रहा है कि पारिवारिक बंटवारा इसका प्रमुख और मुख्य कारण हो सकता है। मजे की बात यह है कि हालिया रिपोर्ट की मानें तो भूमिहीन किसानों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। यानी खेती पर निर्भरता कम नहीं हुई है अपितु खेत-किसानी की जोत जरूर कम हो रही है।
छोटे-बड़े किसानों की गणित को यों समझा जा सकता है कि एक से दो हैक्टेयर भूमि वाले किसान छोटे या सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं तो 0.002 हैक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों को भूमिहीन किसानों की श्रेणी में रखा जाता है। इसी तरह से दस हैक्टेयर से अधिक भूमि वाले किसानों को बड़े किसानों की श्रेणी में रखा जाता है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण ने अपनी 77 वें दौर की रिपोर्ट में 2019 तक के आंकडों का विश्लेषण किया है। प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो 2003 में देश में दस हैक्टेयर या इससे अधिक भूमि वाले बड़े काश्तकार 11.6 प्रतिशत थे जो 2013 में घटकर 5.8 प्रतिशत रह गए और 2019 में और कमी होते हुए बड़े किसान 3.9 फीसदी ही रह गए हैं। इसी तरह से मंझोले किसान भी 2003 की 23.1 प्रतिशत की तुलना में 2013 में 18.8 प्रतिशत और 2019 आते-आते 14.7 फीसदी ही रह गए।
यह निश्चित रूप से चिंतनीय हालात है। क्योंकि छोटी जोत में खर्चा निकलना ही मुश्किल हो जाता है। यह सब तो तब है जब देश में कृषि सुधार कार्यक्रम तेजी से चलाए जा रहे हैं। जंगल सीमित होते जा रहे हैं। खेती में नवाचारों के चलते आधुनिक साधनों का उपयोग होने लगा है। खेती कार्य आसान हो जाने से अब पूरे परिवार को खपने की आवश्यकता नहीं होकर कम मानव संसाधन से भी आसानी से खेती की जा सकती है। अतिरिक्त आय के साधन भी विकसित हुए हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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