नई दिल्ली। सिंधु बॉर्डर पर स्पीच स्टेज के पास किसानों की लंबी लाइन लग रही है। किसान यहां से हरे रंग का कपड़े का पट्टा लेने के लिए आते हैं, जिसको वह एक पगड़ी के रूप में बांधकर खुद को आंदोलन का एक हिस्सा मान रहे हैं। जयपुर से आए सुखदेव मान सिंह ने बताया कि 1966-67 में भारत में हरित क्रांति को औपचारिक तौर पर अपनाया गया। यहां हम अपने सर पर हरे रंग का गमछा बांधकर सरकार को दिखाना चाहते हैं कि सरकार के नुमाइंदे जब हमें जहां से भी और जहां भी देखें उनको आंदोलन में हरा ही हरा दिखना चाहिए। हरा रंग किसानों का सबसे प्यारा रंग होता है।
किसान-गोरा सिंह का कहना है कि आवश्यक वस्तु कानून में संशोधान कर छह जरूरी चीजों की स्टॉक लिमिट खत्म कर जमाखोरी व कालाबाजारी की खुली छूट दे दी है। इससे किसानों व उपभोक्ताओं के साथ साथ वे परिवार भी संकट में पड़ेंगे, जिनकी रोजी रोटी खेती पर निर्भर है। खेती की लागत के अनुपात में फसल के दाम नहीं मिलने से लाखों किसान भाई मानसिक तनाव के कारण आत्महत्या कर चुके हैं।
किसान जसवंत सिंह का कहना है कि तीनों कानून जब तक वापस नहीं होते हैं वह सडक़ों पर बैठे रहेगें। अनुभव सिखाता है कि केवल संघर्ष या आंदोलन के रास्ते ही हक प्राप्त किये जा सकते हैं ना कि चुनावों से सरकारों को बदलकर। हर पार्टी अपना फायदा सोचती है। अगर पहले की ही पार्टियां किसानों के बारे में सोचती तो शायद आज लाखों किसान भाई सडक़ पर बैठने को मजबूर नहीं होते।
किसान महेन्द्र सिंह का कहना है कि सिंधु बॉर्डर पर ऐसे परिवार भी बैठे हैं, जिनके सदस्यों ने दिन रात फसल उगाने में मेहनत की थी। बाद में वो उद्योगपतियों के कर्ज तले वह दब गया और खुदकुशी कर ली थी। सरकार उनसे पूछे कि उद्योगपतियों के कर्ज तले दबकर जीना क्या होता है। किसान विजयकांत सिंह झा का कहना है कि यह संघर्ष उनके खिलाफ है, जो लोगों की सुख और सुरक्षा की बलि चढ़ाते हुए शोषक पूंजीपतियों की लालच को पूरा करने के लिए राज्य को चला रहे हैं। सरकार किसानों को गंभीरता से नहीं लेती है, जिससे किसान भारी संकट का सामना कर रहा है। किसान पहले से ज्यादा गरीब से गरीब होता जा रहा है, जबकि उसी की फसल को आगे बेचकर उद्योगपति अमीर होते जा रहे हैं।
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