– प्रमोद भार्गव
अनेक कानूनी उपाय और जागरूकता अभियानों के बावजूद बच्चों व महिलाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। इनपर गंभीरता से विचार किए बिना हाथरस कांड को भीड़ जातीय आग्रहों-दुराग्रहों को लेकर देशभर में सड़कों पर उतर रही है। चिंतनीय पहलू यह है कि जातिगत आधार पर इस घिनौने मुद्दे को छोटी-बड़ी जातियों की लड़ाई बनाने की कोशिश हो रही है। इसे तूल देकर जातीय दंगे भड़काने की साजिश के खुलासे की रिपोर्ट जांच एजेंसियों ने योगी आदित्यनाथ सरकार को दी है। उत्तर-प्रदेश में जातीय व सांप्रदायिक उन्मात फैलाने, अफवाहों और फर्जी सूचनाओं के जरिए अशांति पैदा करने में सोशल मीडिया की भूमिका भी एक “षड्यंत्र” के रूप में सामने आई है। इस सिलसिले में लखनऊ की हजरतगंज कोतवाली में एक मुकदमा भी दर्ज किया गया है। चूंकि मृतक पीड़िता दलित थी, इसलिए दंगों को आसान मानते हुए सौ करोड़ के वित्त पोषण की बात भी सामने आई है। ऐसे में जले पर नमक छिड़कने का काम सरकार ने जरूरत से ज्यादा पर्देदारी करके भी की है।
बलात्कार के मामले उत्तर-प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल राजस्थान में सबसे ज्यादा 5,997 मामले दर्ज किए गए थे। जबकि उत्तर-प्रदेश 3,065 मामलों के साथ दूसरे नंबर पर था। इस सूची में मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र-प्रदेश, केरल और दिल्ली भी शामिल है। दिल्ली के निर्भया और हैदराबाद की पशु चिकित्सक से क्रूरतापूर्वक हुए दुष्कर्मों ने देश को दहला दिया था। इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर उन क्षेत्रों में त्वरित न्यायालय अस्तित्व में आ रहे हैं, जिन जिलों में महिला एवं बाल यौन उत्पीड़त से जुड़े 100 से अधिक मामले सामने आ चुके हैं। इन अदालतों का गठन बाल यौन उत्पीड़न निषेध कानून (पोक्सो) के तहत हुआ है। ये अदालतें सिर्फ पोक्सो से संबंधित मामले ही सुनती हैं।
दरअसल, अदालत ने देशभर से बाल दुष्कर्म के मामलों के आंकड़े इकट्ठे किए थे। इससे पता चला कि एक जनवरी से 30 जून 2019 तक बालक-बालिकाओं से दुष्कर्म के 24,212 मामले सामने आए। इनमें से 6,449 में ही चालान पेश किया जाकर अदालतों में सुनवाई शुरू हुई और 911 में त्वरित निर्णय भी हो गया। मध्य-प्रदेश की त्वरित न्यायालयों ने अल्प समय में निर्णय सुनाने में रिकॉर्ड कायम किया है।
दुष्कर्म मामलों में त्वरित न्याय का सिलसिला चल निकलने के बाद भी महिलाओं व बलिकाओं से दुष्कर्म की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। बीते साल अप्रैल में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश लाकर 12 साल से कम उम्र की बच्ची के साथ दुष्कर्म के दोषी को मौत की सजा और 16 साल से कम उम्र की किशोरी के साथ बलात्कार एवं हत्या के आरोपी को उम्रकैद की सजा का प्रावधान किया था। इस आध्यादेश ने कानूनी रूप भी ले लिया है। पॉक्सो कानून की धारा 9 के तहत किए गए प्रावधानों में शामिल है कि बच्चों को सेक्स के लिए परिपक्व बनाने के उद्देश्य से उन्हें यदि हार्मोन या कोई रासायनिक पदार्थ दिया जाता है तो इस पदार्थ को देने वाले और उसका भंडारण करने वाले भी अपराघ के दायरे में आएंगे। इसी तरह पोर्न सामग्री उपलब्ध कराने वाले को भी दोषी माना गया है। ऐसी सामग्री को न्यायालय में सबूत के रूप में भी पेश किया जा सकता है।
पहले कानून से कहीं ज्यादा आदमी को धर्म और समाज का भय था। नैतिक मान-मर्यादाएं कायम थीं। नैतिक पतन के कई स्वरूप होते हैं, व्यक्तिगत, संस्थागत और सामूहिक। व्यक्तिगत पतन स्वविवेक और पारिवारिक सलाह से रोका जा सकता है। किंतु संस्थागत और सामूहिक चरित्रहीनता के कारोबार को सरकार और पुलिस ही नियंत्रित कर सकती है। दवा कंपनियां कामोत्तेजना बढ़ाने के जो रसायन और सॉफ्टवेयर कंपनियां पोर्न फिल्में बनाकर जिस तरह से इंटरनेट पर परोस रही हैं, उसपर कानूनी उपायों से ही काबू पाना संभव है। पोर्न फिल्मों की ही देन है कि गली-गली में दुष्कर्मी घूम रहे हैं।
समाजशास्त्री मानते हैं कि जहां कानूनी प्रावधानों के साथ सामाजिक दबाव भी होता है, वहां बलात्कार जैसी दुष्प्रवृत्तियां कम पनपती हैं। विडंबना है कि राजनीति का सरोकार समाज-सुधार से दूर हो गया है। उसकी कोशिश सिर्फ सत्ता में बने रहकर, उसका दोहन करना भर रह गया है। यही वजह है कि भिन्न विचारधाराओं की राजनीति सत्ता के लिए जिस तरह एकमत हो जाते हैं, उसी तर्ज पर दुष्कर्म मामलों में भी भिन्न धर्मों और जातियों के लोग एक हो जाते हैं।
स्त्री उत्पीड़न की ज्यादातर घटनाएं महानागरों के उन इलाकों में घट रही है, जहां समाज और परिवार से दूर वंचित समाज रह रहा है। ये लोग अकेले गांव में रह रहे परिवार की आजीविका चलाने के लिए शहर मजदूरी करने आते हैं। ऐसे में मोबाइल पर उपलब्ध कामोत्तेजक सामग्री इन्हें भड़काने का काम करती हैं। ये बालिकाओं अथवा महिलाओं को बहला-फुसलाकर या उनकी लाचारी का लाभ उठाकर यौन उत्पीड़न कर डालते हैं। हैदराबाद की चिकिस्तक के साथ जो घटना घटी थी, उसकी पृष्ठभूमि में लाचारी थी। स्कूटी कम आबादी वाले इलाके में पंक्चर हो गई और इंसानियत के दुश्मन मदद के बहाने हैवानियत पर उतर आए थे। इस घटना की पृष्ठभूमि में फैलता शहरीकरण और परिचितों से बढ़ती दूरियां भी रही हैं। यही वजह रही कि दरिंदों को रोकने के लिए न तो व्यक्ति था और न ही दरिंदों को ललकारने वाली कोई आवाज उठी? इसी लाचारी का शिकार निर्भया सिटी बस में सफर के दौरान हुई थी।
अक्सर निर्भया, प्रियंका या हाथरस की बालिका की चीखें जब मौन होकर राख में बदल जाती हैं, तब देश में हर कोने से दरिंदों को फांसी देने की मांग उठने लगती है। किंतु न्यायशास्त्र का सिद्धांत कहता है कि जीवन खत्म करने का अधिकार आसान नहीं होना चाहिए। इसलिए फांसी की सजा जघन्यतम या दुर्लभ मामलों में ही देने की परंपरा है। नतीजतन निचली अदालत से सुनाई गई फांसी की सजा पर अमल भी जल्दी नहीं होता। मप्र में 2018 में रिकॉर्ड 58 दोषियों को दुष्कर्म व हत्या के मामलों में फांसी की सजा सुनाई गई है, लेकिन एक भी सजा पर अमल नहीं हो पाया है। ये मामले उच्च, उच्चतम न्यायालय और राष्ट्रपति के पास दया याचिका के बहाने लंबित हैं। सभी जगह दोषी को क्षमा अथवा सजा कम करने की प्रार्थना से जुड़े आवेदन लगे हुए हैं। इन आवेदनों के निरस्ती के बाद ही दोषी का फांसी के फंदे तक पहुंचना मुमकिन हो पाता है।
साफ है, दुष्कर्म से जुड़े कानूनों को कठोर बना दिए जाने के बावजूद इस परिप्रेक्ष्य में क्रांतिकारी बदलाव नहीं आया है। पुलिस और अदालतों की कार्य-संस्कृति यथावत है। मामले तारीख दर तारीख आगे बढ़ते रहते हैं। कभी गवाह अदालत में पेश नहीं होते है तो कभी फोरेंसिक रिपोर्ट नहीं आने के कारण तारीख बढ़ती रहती है। गोया, इस बाबत न्यायिक व पुलिस कानून में सुधार की बात अर्से से उठ रही हैं।
लिहाजा विशेष अदालतें गठित हो भी जाएं तो कानूनी प्रक्रिया में शिथिलता के कारण गति आना मुश्किल है। दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध और अपराधियों को जातीय रंग देना और जाति-धर्म के आधार पर दंगों की साजिश रचने के षड्यंत्रकारी उपाय देश की जातीय समरसता और धार्मिक सद्भाव के लिए घातक हैं। दुष्कर्मियों की न कोई जाति होती है और न कोई धर्म।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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