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    भारत में फेशियल रिकग्निशन तकनीक और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा

  • January 23, 2022

    – डॉ. मयंक चतुर्वेदी

    दुनिया के कई देशों में वास्तविकता में अल्पसंख्यक असुरक्षित हो सकते हैं। हैं भी और इसके कई प्रमाण समय-समय पर मिलते रहते हैं, किंतु क्या भारत में अल्पसंख्यक देश के बहुसंख्यक समाज से भयक्रांत और असुक्षित है? इस संदर्भ में आप जितने भी तथ्य खोजेंगे वे सभी इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ऐसा बिल्कुल भी नहीं। परन्तु अल्पसंख्यकों के लिए काम करनेवाले व्यक्ति और संस्था यह मान लें तथा इसी आधार पर अपने निर्णय एवं शोध की धारा को प्रवाहित रखें कि भारत अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना का केंद्र बन गया है, तब फिर इस मसले पर कुछ भी कहना व्यर्थ है।

    वस्तुत: देश में इस समय यही होता हुआ दिखाई दे रहा है। अल्पसंख्यकों के हित के नाम पर उनके बीच काम करने वाली संस्थाएं और व्यक्ति यही दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत में अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम और ईसाई वर्ग असुरक्षित है। जबकि खबरें देश भर से प्राय: इसके उलट आ रही हैं। सर्वत्र यही दिख रहा है कि कैसे भारत के कौने-कौने में बहुसंख्यक समाज की बेटियों को लव जिहाद का शिकार बनाया जा रहा है। कैसे देश के हर कोने में धर्म परिवर्तन या कहें रिलिजन एवं मजहब को बदलने के लिए योजनात्मक षड्यंत्र किए जा रहे हैं। कैसे लैण्ड जिहाद या जमीनों पर कब्जा करने के लिए बहुसंख्यक समाज को इस हद तक परेशान किया जा रहा है कि वे उत्तर प्रदेश, बिहार, रांची, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश से ही नहीं देश की राजधानी दिल्ली में भी उन क्षेत्रों से पलायन करने के लिए मजबूर हो गए हैं, जहां यह देश का बहुसंख्यक वर्ग संख्या बल में कम हो गया है। प्रताड़ना की तस्वीरें इतनी अधिक हैं कि हर रोज अनेक मीडिया माध्यमों में यह खबरें प्रकाशित हो रही हैं। आश्चर्य है कि फिर भी भारत की वह तस्वीर खींचने का प्रयास हो रहा है, जिसमें अल्पसंख्यक मजबूर और बहुसंख्यकों के हाथों प्रताड़ित दिखाया जा सके।

    देश के एक बड़े समाचार पत्र में एक खबर छपी और सहज ध्यान इस ओर गया। खबर यह थी कि हैदराबाद में लॉकडाउन के दौरान पुलिस ने 38 साल के मसूद को रोका और फोटो खींच ली। इसके बाद उन्होंने तेलंगाना सरकार की फेशियल रिकग्निशन तकनीक के खिलाफ केस दायर कर दिया। उनका तर्क था-मैं मुसलमान हूं और ऐसे अल्पसंख्यकों के साथ लगातार काम करता हूं, जिन्हें पुलिस द्वारा परेशान किया जाता है। इसलिए मुझे डर है कि मेरी फोटो का दुरुपयोग किया जा सकता है। सामान्यत: इस खबर को पढ़कर किसी को भी लग सकता है कि इसमें क्या बुराई है ? किसी को भी भारतीय संविधान यह हक देता है कि उसकी निजता के अधिकार का कहीं हनन हो रहा है तो वह उसे चुनौती दे। लेकिन सवाल यहां उठ रहा है कि किसकी कौन-सी निजता यहां फोटो खींचने से हनन हो गई है ? जो उसे न्यायालय की शरण लेनी पड़ी। इस आधार पर तो फिर यह मान लिया जाएगा कि सरकारें यदि किसी का फोटो खींचती हैं। आप जो आधार कार्ड, वोटर आईडी पर अपना फोटो देते हैं, राशन कार्ड पर अपनी पहचान दर्शाते हैं, जिसके लिए सरकार के बनाए नियम आपको निर्देशित करते हैं, यह भी निजता के अधिकार का हनन हुआ?

    इस प्रकरण में गौर करने वाली बात यह भी है कि इसमें तेलंगाना हाईकोर्ट ने राज्य सरकार से जवाब भी मांग लिया है। तेलंगाना सरकार की ”फेशियल रिकग्निशन तकनीक” जिसमें कि चेहरा पहचाना जाता है इस टेक्नोलॉजी के खिलाफ केस दायर करने का फिलहाल यह देश का पहला मामला बन गया है। लेकिन फिर प्रश्न यह है कि क्या यह प्रैक्टिस अथवा प्रयोग सही माना जाएगा? जब आप अपने ही तंत्र पर विश्वास व्यक्त ना करें। यदि देश की अल्पसंख्यक अपने निजि अधिकार के नाम पर इतना बारीक विश्लेषण करने एवं अधिकारों की दुहाई देकर छोटी-छोटी बातों को लेकर कोर्ट में जाने लगे, तब यह विचार गहराई से किया जाना चाहिए कि क्या ऐसा करना देश में उस नकारात्मक माहौल को पैदा करना नहीं है, जिससे कि आगे यह सिद्ध किया जा सके कि अल्पसंख्यकों के साथ भारत में दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है? एक नागरिक इस नाते उसके अधिकार भारत में आज सुरक्षित नहीं रह गए हैं?

    वस्तुत: इस मामले में कहना यही है कि अल्पसंख्यक हों या बहुसंख्यक किसी को यह नहीं भूलना चाहिए कि लोक हित और राष्ट्र सुरक्षा यह दो विषय ही अपने आप में यह बतलाने के लिए पर्याप्त हैं कि कोई भी सरकार इसके अंतर्गत किसी के भी बारे में निजी जानकारियां प्राप्त कर सकती है। इसके लिए भारतीय संविधान भी अनुमति देता है और इसी के आधार पर सभी राज्य सरकारों एवं केंद्र को यह अधिकार है कि वह किसी भी व्यक्ति के बारे में वह सब कुछ जानें, जो उसके लिए जानना आवश्यक है अथवा उसे जो जानकारी चाहिए।

    यह सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में निजता के अधिकार को मान्यता दी, किंतु राष्ट्र रक्षा से ऊपर यह नहीं हो सकता है। दिल्ली दंगों के बाद गृह मंत्री अमित शाह ने इस ‘फेशियल रिकग्निशन तकनीक’ के इस्तेमाल की स्वीकारोक्ति की थी। उनका साफ कहना है, संसद में भी उन्होंने इस बात से सबको अवगत भी कराया कि हम किसी की निजता का हनन नहीं करते हैं। हम किसी के घर में घुसकर तस्वीरें नहीं ले रहे हैं। तकनीक का इस्तेमाल अपराधियों पर नजर रखने के लिए किया जा रहा है या जिसको भी पुलिस यह मानती अथवा उसे ऐसा लगता है कि संबंधित के बारे में जानकारी होनी चाहिए, उसी की जानकारी यहां ली जाती है।

    वस्तुत: हम देख रहे हैं कि कैसे दिल्ली दंगों के गुनहगार या अन्य गुनहगार इन दिनों पकड़े जा रहे हैं, निश्चित ही इस तकनीक का इस्तेमाल उन्हें पकड़ने के लिए पुलिस प्रमुखता से आज करती हुई दिखती है। ऐसे में अल्पसंख्यक अत्याचार से इसे जोड़ देना यह बता रहा है कि अल्पसंख्यक इस नाम से जहर घोलने की राजनीति करनेवाले आज देश में कितने सक्रिय हैं। जबकि देश में हकीकत इसके अलट है, भारत में आज तक अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट नहीं । संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार, ‘Any group of community which is economically, politically non-dominant and inferior in population.’ अर्थात् ऐसा समुदाय जिसका सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से कोई प्रभाव न हो और जिसकी आबादी नगण्य हो, उसे अल्पसंख्यक कहा जाएगा।

    अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत अल्पसंख्यक ऐसे समूह हैं जिनके पास विशिष्ट और स्थिर जातीय (Stable Ethnic), धार्मिक और भाषायी विशेषताएँ हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29, 30, 350ए तथा 350बी में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग किया गया है लेकिन इसकी परिभाषा कहीं नहीं दी गई है। अनुच्छेद 29 में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया कि भारत के राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा। अनुच्छेद 30 में बताया गया है कि धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा, संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। अनुच्छेद 350 ए और 350 बी केवल भाषाई अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं। पर कहीं भी यह स्पष्ट नहीं है कि कितने प्रतिशत को कहां अल्पसंख्यक माना जा सकता है।

    विचार करें, देश में विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हिन्दू अल्पसंख्यक हैं लेकिन उन्हें अन्य अल्पसंख्यक समूहों को मिले अधिकारों से वंचित रखा जा रहा है। केंद्र और राज्य सरकारों ने अल्पसंख्यकों के संपूर्ण विकास को ध्यान में रखकर अनेक योजनाएं चलाई हुई हैं, लेकिन लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, जम्मू-कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब और मणिपुर में हिन्दू वास्तव में अल्पसंख्यक होते हुए भी इनका लाभ नहीं ले सकता है, यहां जो बहुसंख्यक समुदाय है वह इन सभी योजनाओं का लाभ उठा रहा है। हिन्दुओं के इन राज्यों में अल्पसंख्यक अधिकार इसलिए आज तक तय नहीं किए गए हैं क्योंकि संपूर्ण देश में हिन्दू बहुसंख्यक है।

    क्या केंद्र और संबंधित राज्य सरकारों द्वारा उन्हें राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (एनसीएम) कानून की धारा दो के तहत ‘अल्पसंख्यक’ के रूप में अधिसूचित नहीं किया जाना चाहिए ? क्या इन राज्यों में हिंदुओं को अनुच्छेद 29-30 के तहत दिए उनके मूल अधिकारों से वंचित नहीं किया जा रहा जोकि संपूर्ण देश में अल्पसंख्यकों को मिल रहे हैं? आश्चर्य है फिर भी देश का अल्पसंख्यक वर्ग कह रहा है कि उनके साथ भारत में अन्याय हो रहा है। पुलिस द्वारा एक फोटो खेंचे जाने जैसे मामले को कोर्ट में चुनौती दी जा रही है, फिर भले ही स्वच्छा से अपने फोटो सोशल मीडिया में अन्य स्थानों पर कितने ही भेज दिए जाएं यह जानें कि वहां वे सुरक्षित हैं भी अथवा नहीं, लेकिन देश में कानून बनाए रखने वाली संस्थाएं ऐसा कैसे कर सकती हैं? हम तो अल्पसंख्यक हैं। वाह, गजब है मेरा देश और यहां के तथाकथित अल्पसंख्यक!

    (लेखक पत्रकार हैं।)

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