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    फेसबुक की निष्पक्षता पर सवाल

  • August 17, 2020

    – प्रमोद भार्गव

    अमेरिका के दैनिक अखबार ‘द वॉल स्ट्रीट जनरल’ ने फेसबुक की निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं। अखबार के अनुसार, ‘सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक ने भाजपा नेताओं और कुछ समूहों के हेट स्पीच, मसलन नफरत फैलाने वाली पोस्टों के खिलाफ न तो कोई जान-बूझकर कार्यवाही की और न ही उन्हें हटाया। भारत में फेसबुक से जुड़ी नीतियों के निदेशक आंखी दास ने भाजपा नेता एवं तेलंगाना से विधायक टी राजा सिंह के खिलाफ हेट स्पीच नियमों को लागू करने का विरोध किया था। उन्हें डर था कि इससे फेसबुक से भाजपा के संबंधों में खटास आ सकती है। नतीजतन कारोबार प्रभावित हो सकता है।’ हालांकि अखबार में कहा गया है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान फेसबुक ने दावा किया था कि उसने पाकिस्तानी सेना, भारतीय कांग्रेस और भाजपा से जुड़ी अप्रमाणिक खबरों को फेसबुक पेज से हटा दिया है। जबकि हकीकत यह है कि आपत्तिजनक कुछ खबरें अभी भी पड़ी हुई हैं।

    इस खबर को कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने तुरंत लपकते हुए कहा कि ‘भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत में फेसबुक और वाट्सअप को नियंत्रित करते हैं और इनके जरिए फर्जी व नफरत फैलाने वाली खबरों को डालकर मतदाताओं को प्रभावित किया जाता है। आखिरकार अमेरिकी मीडिया फेसबुक को लेकर सच्चाई के साथ सामने आया है।’ राहुल के इस बयान पर केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने तंज कसा कि ‘जो नेता अपनी ही पार्टी में लोगों को प्रभावित नहीं कर पाते, ऐसे हारे हुए दावा कर रहे हैं कि भाजपा और संघ दुनिया को नियंत्रित कर रहे हैं। जबकि लोकसभा चुनाव से पहले यूजर्स के डेटा को हथियार बनाने के लिए इन्हीं को कैंब्रिज एनालिटिका और फेसबुक के साथ गठजोड़ करते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया था।’ वॉल स्ट्रीट की खबर और उस पर राहुल की प्रतिक्रिया नादानी के कुछ इस तर्ज पर दिए उदाहरण हैं कि कौआ कान भी काट ले गया और पता भी नहीं चला। जिन राजा सिंह की खबर को तूल दिया गया है, वे भाजपा के ऐसे कद्दावर नेता नहीं हैं कि उनकी खबरें एक बड़े समुदाय को प्रभावित कर सके। लिहाजा यह खबर प्रथम दृष्टि में तो यही लगती है कि इसे भाजपा और संघ को बदनाम करने के नजरिए से प्रकाशित किया गया है।

    अलबत्ता इतना सही है कि भारत में फेसबुक के दुनिया में सबसे ज्यादा 28 करोड़ यूजर्स हैं और वह इन्हें प्रभावित करने की क्षमता रखता है। भारतीय उदारता के चलते अपने लाभ के लिए यूजर्स के डेटा का मनचाहा उपयोग करने के आरोप भी फेसबुक पर लगते रहे हैं। इसीलिए यूरोपीय महासंघ की सर्वोच्च अदालत ने फेसबुक और गूगल द्वारा यूरोप से अमेरिका को डेटा हस्तांतरित करने पर रोक लगाई हुई है। किंतु हमारे यहां जुकरबर्ग द्वारा सरकारी दस्तावेजों समेत प्रयोगकर्ताओं की सभी सूचनाएं, मसलन चित्र, वीडियो, अभिलेख, साहित्य जो भी बौद्धिक संपदा के रूप में उपलब्ध हैं, उन्हें किसी को भी हासिल कराने का अधिकार प्राप्त है। इन जानकारियों को कंपनियों को बेचकर फेसबुक खरबों की कमाई कर रहा है। इन्हीं सूचनाओं को आधार बनाकर बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीय बाजार को अपनी मुट्ठी में ले रही हैं। इसके अलावा हरेक खाते से फेसबुक को औसतन सालाना 10,000 रुपए की आमदनी होती है। फेसबुक के अलावा वाट्सअप पर भी 16 करोड़ से भी ज्यादा भाारतीय ग्राहक हैं। किंतु ये भारत में आयकर और सेवाकर से मुक्त हैं। फिलहाल तो फेसबुक के पास भारत के आयकर विभाग का पेन नंबर भी नहीं है। दरअसल फेसबुक के पास ‘कुकीज’ नामक ऐसी फाइलें होती हैं, जो इंटरनेट यूजरों पर निगाह रखती हैं कि एक यूजर किस वेबसाइट पर गया और उसने क्या सूचना दर्ज कराई और किस अन्य वेबसाइट को साझा की। ये फाइलें यह भी नजर रखती हैं कि किस पेज पर कितना समय यूजर ने किसके साथ बिताया। मसलन फेसबुक व्यक्तिगत व सामूहिक जासूसी का बड़ा माध्यम है। निगरानी की इसी वजह से बेल्जियम की एक अदालत ने फेसबुक पर 2.50 लाख यूरो का जुर्माना लगाया था। साथ ही फेसबुक को बाध्य किया था कि लोगों की सूचनाएं एकत्र करने के लिए फेसबुक को उपयोगकर्ता से अनुमति लेनी होगी।

    रविशंकर प्रसाद ने फेसबुक और कैंबिज्र एनालिटिका के गठजोड़ को डेटा के इस्तेमाल का कांग्रेस पर जो आरोप लगाया है, वह 2019 के लोकसभा चुनाव से जुड़ा है। दरअसल इस चुनाव के पहले ब्रिटिश चैनल-4 के स्टिंग के माध्यम से खुलासा किया गया था कि चैनल ने कैंब्रिज एनालिटिका के आधिकारियों का स्टिंग कर उनसे काबूलवाया है कि डाटा की बड़े पैमाने पर चोरी की गई है। यह कंपनी दुनिया भर के राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के दौरान सोशल मीडिया कैंपेन चलाती है। अपने उम्मीदवार को जिताने के लिए यह फर्म हनी ट्रैप, फेक न्यूज जैसे गलत हथकंडे भी अपनाती है। कैम्ब्रिज एनालिटिका ने अपनी बेव प्रोफाइल में दावा किया है कि 2010 में उसने भारत के बिहार में और 2017 में गुजरात तथा पंजाब के विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस की मदद की थी। भारत में कैम्ब्रिज एनालिटिका का नाम एससीएल इंडिया से जुड़ा है। इसके बेव ठिकाने के मुताबिक यह लंदन के एससीएल समूह और ओवलेनो बिजनेस इंटेलिजेंस का साझा उपक्रम है।

    यदि वाकई फेसबुक ने किसी दूसरे देश की चुनाव प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर जनमत को प्रभावित करने की शक्ति हासिल कर ली है तो यह राजनैतिक दलों के लिए गंभीर चिंता का विषय है। क्योंकि भारतीय चुनाव के संदर्भ में जो जानकारी सामने आई है, उससे पता चलता है कि 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में इसे जिन सीटों को प्रभावित कर अनुकूल परिणाम लाने का लक्ष्य दिया गया था, उसमें यह 90 फीसदी सफल रहा था। मसलन जिन उम्मीदवारों को जिताने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसमें से 90 प्रतिशत उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। इन्हीं परिणामों के बूते यह कंपनी भारत में 2019 के आम चुनाव के लिए राजनीतिक दलों से संपर्क में थी। लेकिन चुनाव को प्रभावित करने की खबर मिलते ही रविशंकर प्रसाद ने इस चोरी को गंभीरता से लेते हुए फेसबुक को चेतावनी दी थी कि ‘यदि गलत तरीके से भारतीय निर्वाचन प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश की गई तो फेसबुक के मुखिया मार्क जुकरबर्ग को भारत तलब किया जाएगा।’ इस चेतावनी से फेसबुक चुनाव को प्रभावित करने की गतिविधियों से पीछे हट गया था।

    सोशल मीडिया पर मौजूद बड़े डाटा का चुनाव अभियान में इस्तेमाल भारतीय लोकतंत्र के लिए भविष्य में नया खतरा साबित हो सकता है? आज फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे कई बेव ठिकाने हैं, जिनके पास करोड़ों लोगों की व्यक्तिगत जानकारी है। हालांकि ये साइट्स गोपनीयता का भरोसा देती है, लेकिन फेसबुक पर डाटा चुराकर उसका प्रयोग चुनाव प्रचार में करने का जो पर्दाफाश एनालिटिका ने किया, उसने इस भरोसे को तोड़ने का काम किया है। बावजूद सोशल साइटों पर बहुत ज्यादा नियंत्रण भारत सरकार का नहीं है।

    दरअसल गोरांग महाप्रभुओं के सामने दंडवत होना हमारी पुरानी फितरत है। वह काला अथवा वर्णसंकर हो तो भी हम सरलता से सम्मोहित हो जाते हैं। इस नजरिए से एक नए अवतार के रूप में जुकरबर्ग दो साल पहले भारत में नेट की आजादी छीनने के लिए आए थे। उन्होंने बकायदा 300 करोड़ के विज्ञापन देकर मीडिया को अपने हित में साधने की कोशिश भी की थी। उनकी इस मुहिम में एयरटेल और रिलाइंस जैसी भारतीय कंपनियां भी शामिल थीं। इस विश्वबंधु की दृष्टि हमारी सवा सौ करोड़ आबादी को फ्री बेसिक्स के माध्यम से इंटरनेट सेवाएं देने से जुड़ी थी। इसके जरिए जुकरबर्ग भारत के इंटरनेट और ई-बाजार पर कब्जा करना चाहते थे। इस नाते उनका इंटरनेट डॉट ओआरजी प्रोजेक्ट भारतीय दूरसंचार विनियामक आयोग के पास लंबित था। जिसे दो टूक फैसला सुनाकर ट्राई ने नकार दिया था। जुकरबर्ग ने चालाकी बरतते हुए ट्राई को अपने पक्ष में ग्राहकों द्वारा वोट के जरिए प्रभावित करने की कोशिश भी की थी। ट्राई के पास फ्री बेसिक्स के पक्ष में ज्यादा वोट आए थे, जबकि नेट न्युट्रेलिटी के पक्ष में कम वोट थे। किंतु ट्राई ने फैसला वोट के सिद्धांत की बजाय जनता के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए किया, जो देशहित में रहा था। इसलिए भारत को सोशल साइट्स पर चौतरफा निगाह रखने की जरूरत है। दरअसल ये अपने लाभ के लिए भारतीय हितों से किसी भी प्रकार का खिलवाड़ कर सकती हैं। वॉल स्ट्रीट में छपा समाचार भी इनकी प्रायोजित चाल का हिस्सा हो सकता है।

    (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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