नई दिल्ली । फेसबुक (Facebook) ने अपना नाम भले ही बदलकर मेटा (name changed meta) रख लिया है, लेकिन ऑनलाइन टार्गेटेड विज्ञापनों से अरबों डॉलर कमाने (earn billions of dollars) के लिए बच्चों की जासूसी करना (not stop spying on children) नहीं छोड़ा। बल्कि झूठ बोला कि अब वह ऐसा काम नहीं करता। यह खुलासा कई अंतरराष्ट्रीय तकनीकी शोध संस्थानों द्वारा तैयार की गई नई रिपोर्ट में हुआ है। इसके अनुसार फेसबुक विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अब भी बच्चों की पहचान कर रहा है, उनकी ऑनलाइन गतिविधियों का डाटा जमा कर रहा है।
फेयरप्ले, ग्लोबल एक्शन प्लान, रीसेट ऑस्ट्रेलिया आदि द्वारा जारी इस रिपोर्ट के अनुसार, फेसबुक ने अपना नाम केवल इसलिए बदला, ताकि लगातार सामने आ रहे घपलों और नागरिकों से लेकर बच्चों तक की निजता खत्म करने से धूमिल हुई ब्रांड की छवि बचा सके। उसका अल्गोरिदम अब भी बच्चों की पहचान, निगरानी व डाटा जमा कर रहे हैं। फेसबुक इस डाटा का उपयोग उन्हें टार्गेटेड विज्ञापन देने में कर सकता है। इससे उसकी कमाई में करोड़ों डॉलर की वृद्धि होगी। रिपोर्ट में लगे आरोपों को फेसबुक ने खारिज किया है।
18 साल से छोटे यूजर्स के अकाउंट पर्सनलाइज
रिपोर्ट में सामने आया कि 18 साल से कम उम्र के यूजर्स के अकाउंट को मेटा पर्सनलाइज कर रही है। विशेषज्ञों के अनुसार, अगर मेटा इनके जरिये बच्चों को विज्ञापन नहीं देना चाहती तो फिर इसे जमा ही क्यों कर रही है? ऐसा करने की क्या जरूरत है?
और अब यह कर रहा है
रिपोर्ट के अनुसार, अब वह बच्चों को विज्ञापनदाताओं के बजाय अपने एआई के जरिए टार्गेट कर रहा है। इस सब को ‘ऑप्टिमाइजेशन’ नाम दिया है। उदाहरण के लिए जो बच्चे मोटापे के शिकार हैं, उनकी पहचान कर उन्हें वजन कम करने के विज्ञापन दिए जा सकते हैं।
फेसबुक का ‘खुला पत्र‘ असल में झूठा पत्र
रिपोर्ट आने के बाद बच्चों की मनोस्थिति व निजता के अधिकार पर काम कर रहे अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई संस्थानों ने फेसबुक को पत्र लिखा। इसके अनुसार फेसबुक ने बच्चों की ट्रैकिंग के आरोपों के बाद जुलाई में झूठ से भरा ‘खुला पत्र’ लिखा था। उसने कहा था कि वह बच्चों को टार्गेटेड विज्ञापनों में उनकी पसंद की जानकारी लेने के विकल्प खत्म कर रहा है। लेकिन ताजा रिपोर्ट में वह नागरिकों व सांसदों में भ्रम फैला रहा है।
सर्वे में अभिभावकों ने जाहिर की चिंता
ऑस्ट्रेलिया में 16-17 वर्ष के 82 प्रतिशत किशोरों के अनुसार उन्हें नजर आए टार्गेटेड विज्ञापन इतने सटीक जानकारी पर आधारित थे कि उन्हें डर लगने लगा।
65 प्रतिशत ऑस्ट्रेलियाई अभिभावक मानते हैं कि विज्ञापनदाताओं के फायदे के लिए अपने बच्चों को टार्गेट बनाना उन्हें बेहद चिंताजनक लगता है।
33 प्रतिशत भारतीय बच्चों के इन टार्गेटेड विज्ञापनों से प्रभावित होने की बात 2017 में 14 शहरों में हुए अध्ययन में सामने आई।
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