– डॉ. रमेश ठाकुर
डीजल महंगा होने से किसानों पर अतिरिक्त खर्च बढ़ जाने से इसबार धान की सीमित रोपाई का अंदेशा है। देश में चावल की खपत गेहूं और दालों से कहीं ज्यादा है। इस लिहाज से धान की फसल का कम होना निश्चित रूप से चिंता का विषय है। खेती किसानी के लिए ये सीजन धान की रोपाई का है और ये रोपाई ट्यूबवेल और जनरेटर द्वारा ही होती है। इनसे जमीन से पानी खींचा जाता है जिनको चलाने के लिए किसानों को डीजल की जरूरत पड़ती है। दूसरी फसलों के मुकाबले धान को पानी की अधिक जरूरत होती है। बिना पानी के धान की रोपाई नहीं हो सकती। रोपाई के लिए खेतों में करीब पांच से छह इंच पानी का भराव करना होता है जिसमें धान की पौध लगाई जाती हैं। धान के पौधों को जिंदा रखने के लिए उन खेतों में दस से पंद्रह दिन तक पानी भरना आवश्यक होता है। इसके लिए खेतों में कुछ घंटों के अंतराल में ट्यूबवेल-जनरेटर चलाकर पानी भरना होता है।
बहरहाल, खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले इन सभी यंत्रों की भूख डीजल ही मिटाता है। पर, डीजल का भाव इस वक्त क्या है, बताने की आवश्यकता नहीं। ऊंचाईयों पर पहुंची डीजल की कीमत ने किसानों के होश उड़ा रखे हैं। अन्नदाता कशमकश में है, समझ में नहीं आ रहा, खेतों में धान की रोपाई करें तो करें कैसे। खेतीबाड़ी के लिए डीजल अब चोली-दामन के संबंध जैसा हो गया है। बिना डीजल के फसलें नहीं उगाई जा सकतीं। समूची खेती डीजल पर निर्भर हो गई है। खेती में उपयुक्त होने वाले सभी मशीनयुक्त संयत्रों की खुराक इराक का पानी यानी डीजल है। किसानों को खाद, बीज, मशीनें आदि सब्सिडी पर उपलब्ध हो जाती हैं, पर डीजल किसानों को नकद ही खरीदना पड़ता है, वह भी बिना किसी सब्सिडी और रियायत के।
डीजल खेतीबाड़ी के लिए ऐसा ‘जल’ है जिसके बिना अब किसानी करना कतई संभव नहीं। ज्यादा नहीं, करीब एक-डेढ़ दशक पूर्व से खेती का पारंपरिक युग पूरी तरह से समाप्त हो गया। तब डीजल नहीं भी मिलता था, तो भी किसान भैंसों-बैलों, हल, लकड़ी से निर्मित स्वदेशी यंत्रों व अपनी मेहनत से किसान अपने खेतों में फसलें उगा लिया करते थे। लेकिन, जैसे-जैसे दौर बदला पारंपरिक साधनों की जगह आधुनिक मशीनों जैसे ट्रैक्टर, ट्यूबवेल और जनरेटर ने स्थान ले लिया। उसके बाद किसानों ने भी किसानी का तरीका बदल लिया। खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले तमाम आधुनिक मशीनें डीजल से संचालित होती हैं। खेतों में पानी भरना है तो ट्यूबवेल और जनरेटर लगाने पड़ते हैं। दोनों को चलाने के लिए डीजल चाहिए, एक वक्त वह भी था जब खेतों की सिंचाई तालाबों, नदियों-नहरों, बांधों आदि से हुआ करती थी। अब ये सभी धूल फांकते हैं, बेपानी हैं।
डीजल पर बढ़ी कीमत ने मौजूदा धान की फसल में जिस तरह से खलल डाला है उससे किसान बेहद चिंतित हैं। अनगिनत किसान ऐसे हैं जो धान की रोपाई करना नहीं चाहते। सीमांत किसान अपने खाने लायक ही धान लगा रहे हैं। क्योंकि ज्यादा खेती करेंगे तो खर्च नहीं उठा पाएंगे। कोरोना काल चल रहा है, इसमें धान रोपाई के लिए मजदूर मनमाने रेट मांग रहे हैं वहीं डीजल के अलावा कीटनाशक दवाइयों के भी दाम बढ़े हुए हैं। पहले के मुकाबले इसबार धान की खेती पर होने वाले अत्याधिक खर्च को लेकर किसान खासे चितित हैं। डीजल पर अगर महंगाई यूं ही यथावत रही तो किसान निश्चित रूप से बर्बाद हो जाएगा। डीजल पर कीमत बढ़ने से ज्यादातर किसान मक्के की भी फसल नहीं कर रहे। डीजल के मुकाबले पेट्रोल पर बढ़ी कीमत एकबारगी लोग सहन कर लेते हैं लेकिन डीजल पर नहीं? मछली के लिए जितना पानी जरूरी है। उतना ही किसानों के लिए डीजल।
खेतीबाड़ी में ट्रैक्टर, ट्यूबवेल व जनरेटर नित प्रयोग में आते हैं, इनके संचालन की खुराक मात्र डीजल है। मजाक-सा लगता है, ऐसा पहली बार हुआ है जब पेट्रोल से भी महंगा डीजल हुआ है। करीब महीने भर से रोजाना ईंधन पर कीमतें बढ़ाई जा रही हैं। सरकार और तेल कंपनियां ऐसा क्यों कर रही है, इसका गणित फिलहाल समझ से परे है? जबकि, एक माह से कच्चे तेलों की कीमतों पर ब्रेंट क्रूड 20 डॉलर के नीचे हैं। बावजूद इसके कीमतें नियंत्रण में नहीं हैं। फसल रोपाई के वक्त डीजल की कीमत में आग की चिंगारी को लगाना, निश्चित रूप से अन्नदाताओं की जेब पर अतिरिक्त बोझ डालने जैसा है। वातानुकूलित कमरों बैठकर अपने को कृषि विशेषज्ञ कहने वाले लोगों को किसानों की समस्याएं दिखाई नहीं दे रहीं। कीमतों में वृद्वि का विभिन्न राज्यों में छिटपुट विरोध भी हो रहा है। लेकिन सरकारें अपना बचाव करते हुए सारा दोष तेल विपणन कंपनियों पर मढ़ रही हैं। इस कारण बढ़ोतरी का पूरा खेल आम आदमी समझ ही नहीं पा रहा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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