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    दिल की बीमारियों का पता लगाने के लिए हर किसी को कराना चाहिए यह टेस्ट

  • July 16, 2022


    नई दिल्ली। हाल के समय में कार्डियोवस्कुलर बीमारियों (CVD) के कारण ज्‍यादा युवाओं को अपनी जान गंवानी पड़ी है। सीवीडी दुनिया भर में बढ़ती मृत्युदर का प्रमुख कारण है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार दुनिया भर में हृदय की बीमारियों से होने वाली युवाओं की मौत में भारत का योगदान 20 फीसदी है। यह काफी खतरनाक है कि भारत में हृदय और रक्त की धमनियों के रोग पनपने की उम्र पश्चिमी देशों से एक दशक पहले हो गई है। युवा अवस्था में होने वाली मौतों से न केवल परिजनों को नुकसान झेलना पड़ रहा है, बल्कि इससे देश का विकास भी प्रभावित हो रहा है क्‍योंकि कामकाजी आयु वर्ग के लोग किसी भी देश विकास का मूल्यवान संसाधन होते हैं।

    साइलेंट किलर है दिल की बीमारियां
    हृदय संबंधी रोगों को अक्सर ‘साइलेंट किलर’ कहा जाता है। इन रोगों के लक्षण तभी उभरते हैं, जब दिल को रक्त पहुंचाने वाली धमनियों को पर्याप्त नुकसान पहुंच चुका होता है। हाई ब्लड प्रेशर, धूम्रपान, निष्क्रिय जीवनशैली और मोटापा सीवीडी का जोखिम बढ़ाने के प्रमुख कारक माने जाते हैं, लेकिन इसके कई और कारण हैं, जो हमारी नजर में नहीं आते। कैंसर की तरह लोगों को सामान्य तरीके से होने वाले दूसरे रोगों की तरह हृदय संबंधी रोग भी विरासत में मिले आनुवांशिक जीन और माहौल के असर का नतीजा होते हैं।


    मौजूदा समय में जीन की पूर्व अनुकूलता को अच्छी तरह स्थापित नहीं किया गया क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि एक नहीं, बल्कि अलग- अलग तरह के जीन मिलकर दिल को नुकसान पहुंचाते हैं और उसकी हालत को बदतर बना देते हैं। इसके अलावा पारिवारिक हाइपरकोलेस्ट्रोलेमिया जैसी स्थितियों में किसी एक जीन में होने वाले बदलाव का अच्छी तरह अध्ययन किया जा सकता था, लेकिन अलग-अलग जीन्स के अपना आकार बदलने से पड़ने वाले सामूहिक प्रभाव का अध्ययन करना पहले काफी मुश्किल था क्योंकि उस समय इसके लिए उचित तकनीक और बेहतरीन उपकरण नहीं थे।

    नेक्सट जेनरेशन सीक्वेसिंग तकनीक से मिली मदद
    नेक्सट जेनरेशन सीक्वेसिंग के आविष्कार के साथ अब यह सुविधा मिल गई है। नेक्सट जेनरेशन सीक्वेसिंग उच्च रूप से सटीक नतीजे देने वाली बेहतर तकनीक है। इससे किसी रोगी के जीन में होने वाले बदलाव की जांच के लिए पूरी जेनेटिक सीक्वेसिंग की जाती है। इस तकनीक से सीवीडी जैसी आम तौर पर होने वाली बीमारियों का जेनेटिक आधार समझने में मदद मिलती है। सीवीडी जैसे रोग, जो अपनी प्रकृति के अनुसार पॉलिजेनिक (कई जीन्स) का नतीजा होते हैं । इसकी जांच के लिए पॉलिजेनिक रिस्क स्कोर (PRS) का तरीका अपनाकर किसी खास रोग के लिए किसी व्यक्ति के जेनेटिक जोखिम का पता लगाया जाता है।

    पॉलिजेनिक रिस्क स्कोर से कैसे लगता है बीमारी का पता
    पॉलिजेनिक रिस्क स्कोर मानव जीनोम में कई बदलाव को एकीकृत करता है। इसमें उन लोगों का पता लगाने की क्षमता होती है, जिसमें हृदय रोग जैसी सामान्य बीमारियों के पनपने का खतरा होता है। हाल ही में कई केंद्रों पर की गई स्टडी से यह पता चला है कि दक्षिण एशियाई लोगों में कोरोनरी धमनी के रोगों का खतरा काफी होता है। स्टडी पीआरएस पर आधारित है। इसमें बताया जाया है कि भारतीयों को दूसरे देशवासियों की तुलना में हृदय और रक्त की धमनियों से संबंधित रोग होने की आशंका तीन गुना ज्यादा होती है। यह काफी महत्वपूर्ण खोज है।

    इससे दिल के रोगों के लक्षणों के उभरने से पहले ही किसी व्यक्ति को जीन्स के कारण अपने शरीर को होने वाले जोखिम का पता चल जाता है। इससे मरीज लक्षणों के उभरने से पहले दिल के दौरे के खतरे को टालने और उस पर लगाम लगाने के लिए डॉक्टरों की सलाह ले सकते हैं और अपनी लाइफस्टाइल में बदलाव कर सकते हैं। मेडजेनोम का जीन्ससेंस द्वारा पेश कार्डियोजेन टेस्ट किसी व्यक्ति को भविष्य में होने वाले हृदय संबंधी रोगों के लिए जीन्स के जोखिम का पता लगाने वाला टेस्ट है। यह किसी मनुष्‍य के डीएनए में 6 मिलियन से ज्यादा साइट्स को एकीकृत करता है और उसे यह बताता है कि उसे दिल के दौरों का खतरा कितना है। इसे कार्डियोजेन रिस्क स्कोर (केआरएस) कहा जाता है, जिससे 90 फीसदी की सटीकता के साथ हृदय संबंधी रोग होने के खतरे की भविष्यवाणी की जा सकती है।


    ये तकनीके भी हैं मददगार
    केआरएस के आधार पर यह पहचाना जा सकता है कि भविष्य में किस व्यक्ति को दिल के दौरे पड़ने की ज्यादा आशंका है, किसे हल्के दौरे पड़ने और किसे इसकी औसत आशंका है। श्रेणी पर निर्भर रहते हुए एक व्यक्ति को दिल के रोगों को काबू में रखने के लिए किसी व्यक्ति को दवाइयों के अलावा अपने लाइफस्टाइल में सुधार की भी सलाह दी जाती है। हालांकि दिल के रोगों के विकास का खतरा क्लिनिकल कारकों, जैसे रक्तचाप, कोलेस्ट्रोल और धूम्रपान के स्तर पर भी निर्भर करता है। क्लिनिकल जोखिम और केआरएस के मिश्रण से मरीज को दिल के रोगों के संभावित जोखिम का पता चलता है। चूंकि केआरएस जेनेटिक कारक पर आधारित है, जिसे बदला नही जा सकता, लेकिन इलाज से दूर किए जाने वाले खतरे को दवाइयां लेकर और लाइफस्टाइल में बदलाव करके कम किया जा सकता है या टाला जा सकता है।

    कौन करा सकता है कार्डियोजेन टेस्ट
    इससे बढ़कर और क्या चाहिए? कार्डियोजेन टेस्ट की सुविधा का लाभ मरीज घर बैठे उठा सकता है। मरीज इस टेस्ट को कराने का ऑर्डर अपने घर पर रहते हुए दे सकते हैं। कार्डियोजेन टेस्ट को 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए बनाया गया है और इसे एक ही बार कराने की जरूरत पड़ती है। हृदय संबंधी रोगों की पहचान ना हो पाने से इसके कारण मृत्‍यु की संख्‍या में बढ़ोतरी होना चिंता का विषय है। अगर इन रोगों के लक्षणों से उभरने से पहले ही दिल की बीमारियों का पता लग जाए तो कामकाजी आयुवर्ग के बहुत से व्यक्तियों को हृदय और रक्त की धमनियों में होने वाले रोगों से बचाया जा सकता है। हृदय रोग का कोई खतरा उभरने से पहले अपने डीएनए की जांच कराएं।

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