उज्जैन। लोकसभा चुनाव में मध्यप्रदेश में बंपर जीत के बाद भी भाजपा ने आराम के बजाय फिर मैदान संभाल लिया है। वहीं करारी हार के बाद भी कांग्रेस रिलेक्स मूड में दिख रही है। दोनों दलों की मैदानी पकड़ का एक और परीक्षण आने वाले समय में होने वाले सहकारिता चुनाव में होगा। इसकी तैयारी में भी भाजपा कांग्रेस से बहुत आगे निकल गई है।
4 जून को लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद भारतीय जनता पार्टी ने सबसे पहले मतदान केंद्र स्तर की समीक्षा शुरू की। प्रदेश की सभी 29 सीटों पर भाजपा की जीत के बावजूद जिन मतदान केंद्रों पर पार्टी के उम्मीदवार हारे उनको इस समीक्षा में प्राथमिकता पर रखा गया। पिछले चुनाव की तुलना में इस बार कितने वोट कम मिले, इसका कारण क्या है, इसके लिए कौन जिम्मेदार है, इसमें सुधार कैसे हो सकता है जैसे मुद्दे इस समीक्षा में शामिल किए गए। उक्त मतदान केंद्र से जुड़े प्रमुख लोगों से पार्टी पदाधिकारी ने संवाद किया और सवाल जवाब किए गए। जिन बूथ पर पार्टी उम्मीदवार जीते वहां इस बात की समीक्षा हुई कि जितने अंतर से जीते मिलना थी उतने से मिली या नहीं। यदि नहीं मिली तो उसका क्या कारण रहा। यदि जीत का अंतर अपेक्षा से ज्यादा रहा तो उसके क्या-क्या कारण रहे। इस पर भी बूथ से संबंधित लोगों से चर्चा के बाद रिपोर्ट तैयार की गई। इसके बाद मतदाता आभार कार्यक्रम आयोजित किए गए। यह कार्यक्रम बूथ और मंडल स्तर पर आयोजित किए गए। इनमें मतदाताओं के प्रति आभार व्यक्त करने के साथ ही उन कार्यकर्ताओं की पीठ भी थपथपाई गई, जिन्होंने उम्मीदवार की जीत में अपने बूथ या मंडल में अहम भूमिका निभाई। ऐसे नेताओं की एक सूची बनाई गई है और इन्हें निकट भविष्य में बड़ी भूमिका देने की रणनीति पर काम हो रहा है। प्रदेशभर के ऐसे कार्यकर्ताओं का एक बड़ा सम्मेलन जल्दी ही आयोजित होगा। इसके बाद 21 जून को योग दिवस, 23 जून को पंडित श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जयंती और 25 जून को आपातकाल के विरोध में काला दिवस देशभर में मनाकर पार्टी ने कार्यकर्ताओं और नेताओं को अलग-अलग फार्म पर उपस्थित का मौका दिया और उनसे संवाद किया। कुल मिलाकर बड़ी जीत के बाद भी भाजपा अलग-अलग कार्यक्रमों के माध्यम से कार्यकर्ताओं को सक्रिय किए हुए है और सतत संवाद बना रखा है। निकट भविष्य में मध्यप्रदेश में सहकारी संस्थाओं के चुनाव होना हैं और इसमें ग्रामीण क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की भूमिका बहुत अहम रहेगी। इन्हें सरकारी राजनीति के दांव-पेंच समझाने के मकसद से पार्टी ने अपने उन नेताओं को सक्रिय कर दिया है, जो सहकारिता की राजनीति में अच्छा खासा दखल रखते हैं। इधर मध्यप्रदेश में करारी हार के बाद भी कांग्रेस रिलेक्स मूड में है। पिछले दिनों भोपाल में एक बड़ी बैठक के बाद यह तय हुआ था कि जल्दी ही हार के कारणों की लोकसभा क्षेत्रवार समीक्षा की जाएगी और इसके लिए एक-एक नेता को एक-एक क्षेत्र का प्रभार दिया जाएगा। यह कवायद कागजों पर ही सीमित रह गई। कुछ लोकसभा क्षेत्र, जिनमे उज्जैन भी शामिल है, कांग्रेस कार्यकर्ताओं तक तो पहुंची नहीं पाई। नेताओं से बातचीत में ही इतने विवाद हो गए कि बात आगे ही नहीं बढ़ पाई।
कांग्रेस में हार की समीक्षा तक के लिए कोई एक्शन प्लान नहीं बना
कांग्रेस में हार की समीक्षा के लिए अभी तक कोई एक्शन प्लान भी नहीं बना है। पराजित उम्मीदवारों ने जो बात केंद्रीय और प्रदेश नेतृत्व के सामने रखी उस पर भी किसी तरह का संवाद शुरू नहीं किया गया। लोकसभा क्षेत्रवार हार की समीक्षा के लिए पार्टी के पास कोई एजेंडा भी नहीं है। इसका सबसे बड़ा कारण जिला और मंडल स्तर पर संगठन की निष्क्रियता को माना जा रहा है। कांग्रेस में जो लोग जिम्मेदार पदों पर बैठे हैं वे हार की जिम्मेदारी देने के बजाय एक-दूसरे पर दोषारोपण में लगे हैं। बूथ स्तर पर हार-जीत की समीक्षा जैसा कोई कार्यक्रम अभी तक कांग्रेस में आकार लेता दिख नहीं रहा। सहकारिता चुनाव के लिए कांग्रेस ने सहकारी राजनीति में दखल रखने वाले अपने कुछ बड़े नेताओं अरुण यादव, सांसद अशोक सिंह, पूर्व सहकारिता मंत्री डॉक्टर गोविंद सिंह और सहकारी राजनीति के दिग्गज माने जाने वाले भगवानसिंह यादव की एक कमेटी बनाई है। इस कमेटी को सहकारी संस्थाओं के चुनाव के लिए रणनीति बनाने का जिम्मा सौंपा गया है। एक समय था, जब मध्यप्रदेश की सहकारी राजनीति में कांग्रेस का सुभाष यादव के नेतृत्व में सालों तक एकतरफा दबदबा रहा। बाद में 2003 में सत्ता में आने के बाद भंवरसिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा ने सहकारिता के क्षेत्र में दखल बढ़ाने के लिए ताना-बना बुना और सहकारी संस्थाओं पर अपनी पकड़ बना ली।
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