रांची । पूरा झारखंड (Entire Jharkhand) इन दिनों भाषा विवाद (Linguistic Dispute) में उलझा है (Entangled) । इस विवाद की आंच में सियासी कुनबे (Political Clans) अपनी-अपनी खिचड़ी (Their own Khichdi) पका रहे हैं (Cooking) । बयानबाजियों का सिलसिला तेज है और राज्य में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। कहीं पुतले फूंके जा रहे हैं तो कहीं मानव श्रृंखलाएं बनायी जा रही हैं। कहीं लोग सड़कों पर उतर रहे हैं तो कहीं विधानसभा के घेराव का एलान हो रहा है।
सबसे हैरत की बात तो यह कि क्षेत्रीय भाषाओं की सूची पर खड़े हुए विवाद में राज्य की तीन सबसे बड़ी पार्टियों झारखंड मुक्ति मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के नेता बंटे हुए हैं। इन तीनों पार्टियों के भीतर दो-दो फांक है। भाषा के सवाल पर हर पार्टी में कम से कम दो कुनबे बन गये हैं और और हर कुनबे की राय अलग है। इस विवाद की आंच में जो तबका सबसे ज्यादा झुलस रहा है, वह है युवा वर्ग, जिसने राज्य की सरकारी नौकरियों पर वर्षों से टकटकी लगा रखी है। भाषा विवाद के बैरियर में नौकरियों की कई परीक्षाएं अटक गयी हैं।
पूरा विवाद इस मसले पर है कि राज्य में थर्ड एवं फोर्थ ग्रेड की नौकरियों के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की फेहरिस्त में भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका और उर्दू को शामिल रखना सही है या गलत? राज्य सरकार इसपर अपनी पॉलिसी घोषित कर चुकी है। राज्य में थर्ड एवं फोर्थ ग्रेड की नौकरियां दो कैटेगरी में बांटी गयी हैं। पहली राज्य स्तरीय और दूसरी जिलास्तरीय। सरकार ने झारखंड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) के जरिए ली जानेवाली राज्यस्तरीय थर्ड एवं फोर्थ ग्रेड वाली नौकरियों की परीक्षाओंके लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा है।
दूसरी कैटगरी यानी जिलास्तरीय थर्ड एवं फोर्थ ग्रेड नौकरियों के लिए जिला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है, जिसमें कुछ जिलों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल रखा गया है। उर्दू को राज्य के सभी 24 जिलों में क्षेत्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। इसे लेकर सरकार ने बीते 23 दिसंबर, 2021 को नोटिफिकेशन जारी किया और इसके बाद से ही क्षेत्रीय भाषाओं की सूची पर विरोध और समर्थन की सियासत तेज हो उठी।
क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में भोजपुरी, मगही, मैथिली और अंगिका पर एतराज जताने वाले संगठन और सियासी कुनबे इन्हें बाहरी भाषाएं बताते हैं। उनका कहना है कि इन भाषाओं का मूल बिहार है। इन्हें झारखंड की क्षेत्रीय भाषाओं में शामिल रखने से झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों का हक मारा जायेगा। झारखंड की थर्ड और फोर्थ ग्रेजज की नौकरियों में बिहार से आये लोग ही काबिज हो जायेंगे। राज्य के शिक्षा मंत्री और झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता जगरनाथ महतो इस मुद्दे पर सबसे ज्यादा मुखर हैं और अपनी ही सरकार द्वारा जिलास्तरीय नियुक्ति परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल करने पर जोरदार विरोध दर्ज करा रहे हैं।
उनका कहना है कि इन्हें क्षेत्रीय भाषाओँ की सूची से हटाना होगा। इस मुद्दे पर उनकी राज्य के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से भी बात हुई है। उन्होंने कैबिनेट की बैठक में भी यह मांग उठाई है। झारखंड मुक्ति मोर्चा के सभी मंत्रियों-विधायकों का भी यही स्टैंड है, सिवाय एक मंत्री मिथिलेश ठाकुर के, जिन्होंने बीते अगस्त महीने में सीएम को पत्र लिखकर मांग की थी कि क्षेत्रीय भाषाओं में मगही और भोजपुरी को भी शामिल रखा जाये। उनका कहना था कि भोजपुरी और मगही को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल नहीं किये जाने से पलामू, गढ़वा, लातेहार, चतरा,हजारीबाग, बोकारो,धनबाद और कोडरमा के उम्मी,दवारों को नौकरियों में समान अवसर नहीं मिल सकेगा। इन जिलों में भोजपुरी और मगही का प्रमुखता से इस्तेमाल किया जाता है।
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी निजी तौर पर भोजपुरी-मगही आदि को झारखंड की क्षेत्रीय भाषा नहीं मानते। पिछले साल सितंबर में एक इंटरव्यू में वह यहां तक कह चुके हैं कि भोजपुरी भाषियों ने झारखंड अलग राज्य के आंदोलन के दौरान झारखंडियों को गालियां दीं, औरतों से बदसलूकी की। सीएम के इस बयान पर राज्य में सियासी हंगामा मचा था।ऐसे में अब जिलास्तरीय नियुक्ति परीक्षाओं में धनबाद और बोकारो जिले में क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में भोजपुरी, मगही को शामिल करने पर हेमंत सोरेन के समर्थक हैरान हैं। उनकी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता-कार्यकर्ता और समर्थक ही इसपर तेज विरोध जता रहे हैं। बोकारो-धनबाद में इसे लेकर जोरदार विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है।
झारखंड की सरकार में साझीदार कांग्रेस में भी क्षेत्रीय भाषाओं के सवाल पर दो कुनबे बन गये हैं। कई विधायकों का कहना है कि भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका प्रतियोगी परीक्षाओं से बाहर रखा जाना गलत है। राज्य में इन भाषाओं के लोगों की बड़ी तादाद है जिनका समर्थन खोने से पार्टी को सियासी नुकसान तय है। कांग्रेस विधायकों के एक दल ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मुलाकात कर इस मुद्दे पर उन्हें अपनी चिंता से अवगत कराया था। इधर, कांग्रेस में ही सरकार के वरिष्ठ मंत्री डॉ रामेश्वर उरांव, विधायक बंधु तिर्की जैसे नेता इन्हें झारखंड की क्षेत्रीय भाषा नहीं मानते। इस मुद्दे पर पार्टी आधिकारिक तौर पर कोई स्टैंड नहीं तय कर पायी है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राजेश ठाकुर से पिछले दिनों एक प्रेस कांफ्रेंस में इस बाबत पूछा गया था तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि इस मुद्दे पर सरकार जनभावनाओं के अनुसार निर्णय लेगी।
भारतीय जनता पार्टी झारखंड का सबसे बड़ी विपक्षी दल है, लेकिन इसके भितरखाने में भी क्षेत्रीय भाषाओं के मुद्दे पर दिल बंटे हुए हैं। अर्जुन मुंडा, बाबूलाल मरांडी जैसे कद्दावर जनजातीय नेता इस मुद्दे पर कुछ भी बोलने से बच रहे हैं। दूसरी तरफ इसी पार्टी के सांसद विद्युतवरण महतो सहित कई नेताओं ने बीते हफ्ते राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मुलाकात कर उन्हें एक ज्ञापन सौंपा और भोजपुरी, मैथिली और अन्य भाषाओं को क्षेत्रीय भाषा की सूची से हटाने और झारखंड की 9 जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं को ही क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल कराने का आग्रह किया।
झारखंड भाजपा में रांची के विधायक और पूर्व मंत्री सीपी सिंह, विधायक राज सिन्हा, नीरा यादव, भानु प्रताप शाही, अनंत ओझा, बिरंची नारायण, मनीष जायसवाल जैसे नेता भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में शामिल रखने के प्रबल पैरोकार हैं और इस मुद्दे पर झारखंड विधानसभा परिसर में प्रदर्शन भी कर चुके हैं। जाहिर है, बंटी हुई राय के चलते भारतीय जनता पार्टी इसपर स्पष्ट और आधिकारिक स्टैंड नहीं ले पा रही है। हालांकि इन भाषाओं से इतर उर्दू को सभी जिलों में क्षेत्रीय भाषा की सूची में शामिल रखने पर भाजपा के तमाम नेता एक स्वर में विरोध दर्ज करा रहे हैं।
इधर एक आजसू पार्टी भी है, जो इस विवाद पर बेहद मुखर है। इस पार्टी ने क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी, मगही, मैथिली आदि को हटाने की मांग को लेकर आगामी 7 मार्च को विधानसभा के घेराव का एलान किया है। उधर सीपीआई एमएल ने भी झारखंड की मूल भाषाओं को ही क्षेत्रीय भाषाओं में रखने के मुद्दे पर रांची, बगोदर सहित कई जगहों पर प्रदर्शन किये हैं।
दरअसल, हर सियासी कुनबा अपने हिसाब से राजनीतिक नफा-नुकसान का आकलन कर रहा है। जनजातीय प्रभाव वाले लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों में आम तौर पर लोग भोजपुरी, मगही, मैथिली, अंगिका को क्षेत्रीय भाषा में रखे जाने के खिलाफ हैं। दूसरी तरफ राज्य के 24 में से 14-15 जिले ऐसे हैं, जहां इन भाषाओं का इस्तेमाल करने वाले लोगों की बड़ी संख्या है। ऐसे इलाकों में पलामू, गढ़वा, जमशेदपुर, धनबाद, बोकारो, हजारीबाग, चतरा, कोडरमा, लातेहार, देवघर, गोड्डा, रांची, जामताड़ा आदि जिले हैं। भाजपा और कांग्रेस जानती हैं कि इन भाषाओं का विरोध करने पर चुनाव में उन्हें इन क्षेत्रों में जोरदार झटका लग सकता है।
बहरहाल, इस विवाद में सबसे ज्यादा नुकसान उस युवा वर्ग का हो रहा है, जिन्होंने लाखों की संख्या में रिक्त सरकारी नौकरियों पर टकटकी लगा रखी है। नौकरियों की परीक्षाएं अटकी पड़ी हैं। हाल में राज्य स्तर पर स्नातक स्तरीय नियुक्ति परीक्षाओं के लिए विज्ञापन निकला है, लेकिन इसकी शर्तों को लेकर कुछ लोगों ने अदालत में याचिकाएं दायर रखी हैं। कुल मिलाकर, भाषाओं को लेकर उठा यह विवाद निकट भविष्य में थमता नहीं दिखता।
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