– प्रमोद भार्गव
जब किसी कुख्यात और उसके कुनबे के अपराधों पर कानून के राज की व्यवस्था शून्य हो जाए, तब कुदरत उसके अंत की रचना रचती है। अतीक अहमद के अंत की कहानी यही कह रही है। ऐसे अपराधियों को जब संवैधानिक-राजनीतिक सुरक्षा कवच मिल जाए तो अपराध की भूमिका उनके राजनीतिक और आर्थिक साम्राज्य के विस्तार का कारण बनते जाते हैं। यह सिलसिला तब और निष्ठुर एवं हिंसक हो जाता है, जब पुलिस तो पुलिस अदालत के न्यायाधीश भी ऐसे दुर्दांत के मामले की सुनवाई से इनकार कर दें और राजनेता व राजनीतिक दल संरक्षण देने लग जाएं ? इसीलिए अतीक बेखौफ होकर प्रयागराज में 24 फरवरी 2023 को उमेश पाल समेत दो पुलिसकर्मियों की सरेआम हत्या करा देता है।
हत्यारे कानून व्यवस्था से इतने निश्चित रहते हैं कि चेहरे को ढकने के बजाय खुला रखते हैं, जिससे उनका खौफ कायम रहे कि वह कौन हैं ? झांसी में पुलिस मुठभेड़ में ये हत्यारे मारे जाते हैं। इनमें से एक अतीक का लड़का असद और दूसरा गुलाम मोहम्मद था। चूंकि उमेशपाल की हत्या के समय इन्होंने चेहरे पर आवरण नहीं डाला था, इसलिए इनकी पहचान में कोई संदेह नहीं था। उमेश पाल, विधायक राजूपाल की हत्या के प्रकरण में अतीक के विरुद्ध एक वकील के रूप में निडर होकर अपने दायित्व का निर्वहन कर रहे थे। अदालत में यह पैरवी अहमदाबाद की साबरमती जेल में बंद अतीक और बरेली की जेल में बंद उसके भाई अशरफ को नागवार गुजर रही थी। नतीजतन इन दोनों ने जेल में बैठे-बैठे ही उमेश पाल की हत्या का वारंट निकाल दिया। जब न्याय व्यवस्था के संवैधानिक अंग पुलिस, न्यायालय और वकील कानून के राज को अंजाम तक पहुंचाने में विफल दिखे तो तीन युवकों ने अतीक और अशरफ का काम तमाम कर दिया।
करीब पचास साल पहले इलाहबाद (प्रयागराज) के फिरोज तांगे वाले के बेटे (अतीक) ने 17 साल की उम्र में जयराम की हत्या कर खून की इबारत लिखनी शुरू कर दी थी। बस फिर क्या था। इसके बाद उसके अपराध की दुनिया रंगदारी, अवैध वसूली और जमीन व मकान हड़पने के धंधे में बदलती चली गई। कुछ ही समय में उसका आतंक समूचे इलाहबाद और आसपास के क्षेत्र में फैलने लग गया। हालांकि इस समय चांद बाबा की तूती बोलती थी। देखते-देखते अतीक ने चांद बाबा के वर्चस्व को नेस्तनाबूत कर दिया। फिर खादी पहनकर नेता का स्वांग धारण कर लिया। परंतु अपराध से नाता नहीं तोड़ा। उस अकेले पर 101 से ज्यादा मामले विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हो गए। अशरफ पर भी पचास से ज्यादा एफआईआर दर्ज हैं।
अतीक अहमद 1989 में इलाहबाद की पश्चिमी विधानसभा सीट से चांद बाबा के विरुद्ध निर्दलीय चुनाव लड़ा। धन व बाहुबल के बूते जीत भी हासिल कर ली। इस जीत के कुछ महीनों बाद ही चांद बाबा की हत्या हो गई। इसके बाद अतीक के आतंक का ऐसा परचम फहरा कि उसके विरुद्ध चुनाव लड़ने से सभी दलों के नेता कन्नी काटने लगे। 1991 और 1993 में भी वह निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीता। समाजवादी पार्टी की वर्चस्व स्थापना के बाद अपराधियों का सपा में शामिल होने का सिलसिला शुरू हो गया। लिहाजा 1996 में अतीक चौथी बार सपा से विधायक बना। लेकिन किसी भी दल का वह सगा नहीं रहा। 2002 में वह अपना दल के टिकट पर चुनाव जीता और फिर 2004 में फूलपुर लोकसभा सीट से चुनाव जीतकर संसद के पवित्र मंदिर में भी दाखिल हो गया।
25 जनवरी 2005 को बसपा विधायक राजू पाल पर अतीक ने दिनदहाड़े सड़क पर दौड़ा दौड़ा कर गोलियां बरसाईं। जब उसे अस्पताल ले जाया गया तो वहां इसलिए ताबड़तोड़ गोलियां बरसाई गईं कहीं राजू जिंदा न बच जाए। राजू पाल की पत्नी पूजा पाल ने अतीक और अशरफ समेत नौ लोगों के खिलाफ नामजद एफआईआर दर्ज कराई । इसी मामले की पैरवी का दुस्साहस अधिवक्ता उमेश पाल कर रहे थे। इस मामले में वह चश्मदीद गवाह भी थे। उमेश को धमकाया गया। अपहरण करने की कोशिश भी की गई। लेकिन उमेश ने हिम्मत नहीं हारी और जिला अदालत से लेकर उच्च व उच्चतम न्यायालय तक मामले को ले गए। आखिरकार राजू पाल की हत्या के 12 साल बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच के आदेश दिए। सीबीआई ने गंभीर पड़ताल के बाद अतीक, अशरफ समेत 18 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की। उमेश की निरंतर सर्तकता और पैरवी के चलते इलाहबाद हाई कोर्ट ने दो माह के भीतर राजू पाल हत्याकांड की सुनवाई पूरी करने का आदेश निचली अदालत को दिया। सुनवाई शुरू होने से पहले ही 24 फरवरी 2023 को पुलिस सुरक्षा में उमेश पाल की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। सुरक्षा में लगे दो पुलिसकर्मियों को भी प्राण गंवाने पड़े। इस माफिया के तार पाकिस्तान और कई आतंकी संगठनों से जुड़े बताए जा रहे हैं। एटीएस और एएनआई भी अतीक से लंबी पूछताछ में लगी थी। इसने 1168 करोड़ रुपये की अवैध संपत्ति बना ली थी, जिसे योगी सरकार ने इसकी मौत से पहले ही मुक्त करा चुकी है।
न्यायिक सिद्धांत का तकाजा तो यही है कि एक तो अपराधी को समय पर ऐसी सजा मिले, जो फरियादी को न्याय लगे ? लेकिन दुर्भाग्य से अतीक और उसके गिरोह को न तो समय पर सजा मिल पाई और न ही धन-संपत्ति कमाने की उसकी हवस पर अंकुश लग पाया। बल्कि इसके उलट वह पांच बार विधायक और एक बार सांसद बनकर अपराधी होने के बावजूद कानून के दायरे से बाहर रहा। जब ऐसे लोग निर्वाचित प्रतिनिधि बन जाते हैं तो इनकी अनैतिक महत्वाकांक्षाएं और परवान चढ़ने लगती हैं। अपनी राजनीतिक इस छवि को ये दानदाता बनकर और अधिक भुनाने में लग जाते हैं। अतैव अपनी जाति और धर्म के गरीब लोगों की धर्म के नाम पर मदद कर फरिश्ते की श्रेणी में आ जाते हैं। ऐसे ही उपकृत लोग इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए इनकी जीत में निरंतर भागीदार बने रहते हैं। यह स्थिति न्याय व्यवस्था पर भरोसा करने के बजाय, उसे खूंटी पर टांग देने का काम करती है। अतीक के साथ यही हुआ और वह क्षेत्रीय खतरे के साथ पाकिस्तानी आतंकवादियों से हाथ मिलाकर राष्ट्रीय खतरे की जद में भी आता जा रहा था। जिन तीन युवकों ने अतीक का अंत किया, संभवतः वे भी इसकी मार से आहत थे। इसलिए उन्होंने मौका पाकर अतीक और अशरफ का खुलेआम वैसे ही अंत को अंजाम दिया, जैसा करने का यह लोग जाने जाते थे। प्रतिशोध के मनोविज्ञान की यही मानसिकता होती है।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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