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चुनाव परिणाम का पूर्वानुमानः भरोसे का सवाल

November 08, 2020

– प्रमोद भार्गव

बिहार के विधानसभा चुनाव और मध्य-प्रदेश के उपचुनाव के मतदान के बाद आए पूर्वानुमानों ने फिलहाल इन राज्यों के सत्तारूढ़ दलों की बोलती बंद कर दी है। बिहार में ज्यादातर टीवी समाचार चैनलों के सर्वेक्षण तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले महागठबंधन की सरकार बनाते दिखा रहे हैं। सर्वेक्षणों का औसत देखें तो जीत-हार का अंतर बहुत कम है। तेजस्वी को कुल 126 सीटें और नीतीश कुमार वाले एनडीए को 109 सीटें मिल रही हैं। चुनावी सर्वे के विशेषज्ञों का मानना है कि 10 से 15 सीटें इधर-उधर हो जाती हैं तो कोई भी सरकार बना सकता है। वैसे भी एग्जिट पोल 10 प्रतिशत अनुमानों का झोल रखते हैं। इसलिए नतीजों का इंतजार जरूरी है। मध्य-प्रदेश में एग्जिट पोल उपचुनाव की 28 सीटों में से आधी सीटें भाजपा को मिलना दिखा रहे हैं। यानी शिवराज सिंह चौहान की सरकार को दूर-दूर तक खतरा नहीं है। लेकिन ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलना इस बात का संकेत है कि ज्योतोरादित्य सिंधिया भाजपा के अनुमानों पर खरे नहीं उतरे। दूसरी तरफ कमलनाथ यदि वाकई 15 सीटें जीत लेते हैं तो वे कांग्रेस में मध्य-प्रदेश के एकछत्र नेता कहलाने लग जाएंगे। बावजूद कांग्रेस इस सर्वे को झुठलाते हुए कह रही है कि 2018 में परिणाम एग्जिट पोल के उलट थे। कांग्रेस 25 सीटें जीतने की उम्मीदे पाले हुए है।

बिहार में कोरोना काल में सभी 243 सीटों पर मतदान हुआ। देश का यह ऐसा पहला चुनाव था, जिसने कोरोना संकट झेलते हुए चुनाव का सामना किया। इसीलिए 2015 के चुनाव की तुलना में मतदान कम हुआ। 2015 में 57.12 प्रतिशत मत पड़े थे, जबकि इसबार 56.56 प्रतिशत ही वोट पड़े। हालांकि पिछले 22 चुनावों के एग्जिट पोल बमुश्किल 60 प्रतिशत ही सही साबित हुए हैं। बावजूद इसके यह खसियत रही है कि ज्यादातर चैनल एनडीए को हारते दिखा रहे हैं।

चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण नया विषय है। यह ‘सेफोलॉजी’ मसलन जनमत सर्वेक्षण विज्ञान के अंतर्गत आता है। भारत के गिने-चुने विश्वविद्यालयों में राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम के तहत सेफोलॉजी को पढ़ाने की शुरुआत हुई। जाहिर है, विषय और इसके विशेषज्ञ अभी अपरिपक्व हैं। परिपक्व चुनाव विश्लेषक के रूप में अबतक योगेन्द्र यादव को माना जाता रहा है। इस नजरिए से उनका सम्मान और विश्वसनीयता भी जनता में बरकरार रही थी। लेकिन बाद में वे आम आदमी पार्टी की सदस्यता लेकर प्रत्यक्ष राजनीति के पैरोकार बन गए।

सर्वेक्षणों पर शक की सुई इसलिए भी जा ठहरती है कि पिछले कुछ सालों में निर्वाचन-पूर्व सर्वेक्षणों की बाढ़-सी आई हुई है। इनमें तमाम कंपनियां ऐसी हैं, जो धन लेकर सर्वे करती हैं। गोया, नतीजे इकतरफा नहीं आने के क्रम में कांग्रेस प्रवक्ता सुष्मिता देव ने एजेंसियों के सर्वेक्षण पर तंज कसते हुए कहा था कि इन्हें अभी और सीखने की जरूरत है, जिससे परिणाम परिपक्व दिखें। चूंकि अनुमान सटीक नहीं बैठे इसलिए एजेंसियों को दलों और मतदाताओं से विनम्रता के साथ माफी भी मांगनी चाहिए। बेबाकी के लिए मशहूर दिग्विजय सिंह कह रहे हैं कि ‘धन देकर पार्टिया अपने अनुकूल सर्वे करा लेती हैं।’ इसे नकारने की बजाय, गंभीरता से लेने की जरूरत है। वैसे भी किसी भी प्रदेश के करोड़ों मतदाताओं की मंशा का आकलन महज कुछ हजार मतदाताओं की राय लेकर सटीक नहीं जानी जा सकती है। कभी-कभी ये अटकलें खरी भी उतर जाती हैं।

ओपिनियन पोल मतदाता को गुमराह कर निष्पक्ष चुनाव में बाधा बन रहे हैं। इसीलिए पूर्व महाधिवक्ता गुलाम ई वाहनवती ने केंद्र सरकार को निर्वाचन पूर्व सर्वेक्षणों पर रोक लगाने की सलाह दी थी। वैसे भी ये सर्वेक्षण वैज्ञानिक नहीं हैं क्योंकि इनमें पारदर्शिता की कमी है और ये किसी नियम से बंधे नहीं हैं। साथ ही ये सर्वे कंपनियों को धन देकर कराए जा सकते हैं। इसीलिए इनके परिणाम भरोसे के तकाजे पर खरे नहीं उतरते। सर्वे कराने वाली एजेंसियां भी स्वायत्त होने के साथ जवाबदेही के बंधनों से मुक्त हैं। गोया, इनपर भरोसा किस बिना पर किया जाए?

दरअसल चुनाव आयोग ने 21 अक्टूबर 2013 को सभी राजनीतिक दलों को एक पत्र लिखकर, चुनाव सर्वेक्षणों पर राय मांगी थी। दलों ने जो जवाब दिए, उससे मतभिन्नता पेश आई। वैसे भी बहुदलीय लोकतंत्र में एकमत की उम्मीद बेमानी है। कांग्रेस ने सर्वेक्षण को निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले बताए थे। बसपा ने भी असहमति जताई थी। माकपा की राय थी कि निर्वाचन अधिसूचना जारी होने के बाद सर्वेक्षणों के प्रसारण और प्रकाशन पर प्रतिबंध जरूरी है। तृणमूल कांग्रेस ने आयोग के फैसले का सम्मान करने की बात कही थी। जबकि भाजपा ने इन सर्वेक्षणों पर प्रतिबंध लगाना संविधान के विरुद्ध माना था। उस समय ज्यादातर चुनाव सर्वेक्षण भाजपा के पक्ष में आ रहे थे। उसने तथ्य दिया था कि सर्वेक्षणों में दर्ज मतदाता या व्यक्ति की राय वाक्, भाषण या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र का ही मसला है। तय है, दलों के अलग-अलग रुझान भ्रम और गुमराह की मनःस्थिति पैदा करने वाले थे इसलिए आयोग भी हाथ पर हाथ धरे बैठा रह गया।

दरअसल संविधान की मूल भावना, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की ओट में मीडिया का उम्मीद से ज्यादा व्यवसायीकरण हुआ है। मीडिया में मीडिया से इतर व्यवसाय वाली कंपनियों ने बड़ी पूंजी लगाकर प्रवेश किया और देखते-देखते मीडिया के अनेक निष्पक्ष स्वायत्त घरानों, मंचों, पत्रकार समितियों व संस्थानों पर कब्जा कर लिया। जाहिर है, पेड न्यूज के सिलसिले में मीडिया की साख पहले ही दांव पर है, पेड ओपीनियन और एग्जिट पोल खालिस मुनाफाखोरी की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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