भोपाल गरचे, खुल्द बद अमां है ऐ जिगर
दिल क्या शगुफ्ता हो कि नसीम जिगर नहीं
ये शेर बीसवीं सदी के मोतबर शायर जिगर मुरादाबादी का है। आइये आज आपको जिगर साब का भोपाल से वाबस्ता यादगार और दिलचस्प किस्सा सुनाएं। दरअसल ये शेर जिगर ने अपनी बीवी मरहूम नसीम के इंतकाल के बाद हताशा और परेशानी की हालत में मुब्तला होने पे कहा था। बीवी नसीम के जाने के बाद जिगर मुरादाबादी 1932 में भोपाल तशरीफ़ लाए और यहां महीनो कय़ाम किया। भोपाल में जिगर के जिगरी दोस्त महमूद अली खां जामई के दौलतकदे पे उनकी रिहाइश थी। यहां उर्दू अदब, सिसायत और गीत गज़़लों की महफि़ल सजा करती। जिगर साब बड़े हाजिऱ जवाब और मज़ाहिया किस्म के इंसान थे। लिहाज़ा उन्होंने महमूद अली खां जामई के उस बड़े सारे कमरे में आने वाले खास दोस्तों के मनोरंजन के लिए एक दिलचस्प कमेटी बनाई। इस कमेटी का नाम रखा गया, अंजुमन-उल-कुहला। कुहला के मायने निठल्ले, सुस्त और काहिल इंसान के हैं। लिहाज़ा जो इंसान जितना सुस्त और काहिल होता उसे अंजुमन-उल-कुहला में उतना ही बड़ा ओहदा अता किया जाता। इसके पीछे जिगर साब सहित तमान दोस्तों की ये मंशा थी कि माहौल को हल्का फुल्का रखने और अनोपचारिक बनाने के लिए अंजुमन-उल-कुहला उम्दा रहेगी। जिस कमरे में जिगर रहते थे उसका नाम दारुल-कुहला रखा गया। इस अंजुमन को बनाने के पीछे जिगर साब का फंडा ये था के आजकल दुनिया मे तामाम मसाइल और परेशानियां रफ्तार की बजह से पैदा हो रही हैं। जंग हों या आपसी लड़ाइयां सब रफ्तार के नतीजे हैं। लिहाज़ा सुस्ती और काहिली से इन मसलों से बचने के लिए ये अंजुमन कारगर रहेगी। सुस्ती के इम्तहान में अव्वल रहने पे जिगर साब को अंजुमन-उल-कोहला का सदर बनाया गया। हसरत लखनवी नायब सदर, नाजि़म-उल-कुहला महमूद अली खां जामई और नकीब-उल-कुहला गुलाम हुसैन खां उर्फ आजम बनारसी को बनाया गया।
गुलाम हुसैन खां को ये ओहदा उनकी भारी भरकम क़द काठी और सिपाहियो जैसी रोबीली आवाज़ की वजह से दिया गया था। ये सदर के हुक्म को ऊंची आवाज में कमेटी के अराकीन (मेम्बरों) को सुनाते थे। इस महफि़ल में खान शाकिर अली खां, शेरी भोपाली और जोहर क़ुरैशी साब भी तशरीफ़ लाते। अंजुमन-उल-कुहला की 21 मेम्बरों की कमेटी के हर मेंबर को उसकी ज़ाती खासियतों की बिना पे मुख्तलिफ लक़ब (उपाधि) दिए गए थे। मसलन एक जनाब पस्ताक़द थे, उन्हें फि़त्नातुल कुहला का लक़ब दिया गया। लंबे क़द के एक मेंबर को तवील-उल-कुहला कहा जाता। इसी तरह शकर के शौकीन एक मेंबर को कन्द-उल-कुहला, भारी जिसामत के एक साब को दबीज़-उल-कुहला के लक़ब से नवाजा गया। चूंकि पूरी उपाधि को बोलना सुस्ती के नियम के खिलाफ था लिहाज़ा लक़ब के आधे हिस्से से ही उन्हें पुकारा जाता। जैसे सदरुल, दबिजुल, नकीबुल और कण्दुल वगेरह। दार-उल-कुहला में रात 9 से सुबह तीन चार बजे तक रहना लाज़मी था। जो मेंबर लेटा हुआ है वो कोई काम नहीं करेगा। वो बैठे हुए मेंबर को हुक्म दे सकता था। खड़े या बैठने से बचने के लिए कुहला के मेंबर कमरे में आने के लिए बाहर से ही लेटे लेटे ही दाखिल होते। हर मेंबर के लिए ये ज़रूरी था के वो हर हाल में तशरीफ़ लाए। अंजुमन-उल-कुहला में सबसे दमदार और मरकज़ी शख्सियत जिगर साब की थी। लिहाज़ा उनके भोपाल से चले जाने के बाद दार-उल-कुहला की महफिलें खत्म हो गईं। बहरहाल पुराने और कदीमी भोपालियों की यादों में दार-उल-कुहला अभी भी बसी हुई है। तो साब कुछ ऐसी ही भोपाली रिवायतों और तासीर पे सूरमा की कलम चलती रहेगी।
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