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    शिक्षा को ध्यान की दरकार है

  • June 24, 2024

    – गिरीश्वर मिश्र

    देश के सामर्थ्य के लिए शिक्षा का महत्व सभी जानते हैं, मानते हैं और बखानते हैं। समकालीन चर्चाओं में ‘युवा भारत’ की भूमिका सभी लोग दुहराते हैं और “डेमोग्रेफिक डिविडेंड” की बातें करते नहीं थकते। चुनावी घमासान में सबने एक स्वर से देश को आगे ले जाने की क़समें खाईं थीं किंतु शिक्षा की प्रासंगिकता तथा रोज़गार के लिए शिक्षा के महत्व को लेकर लगभग सभी मौन ही धारण किए रहे। वे इसकी स्थिति से से संतुष्ट थे या फिर थक हार कर यह मान चुके हैं कि इस सिलसिले में कुछ भी मुमकिन नहीं है। मंहगाईं, बेरोज़गारी, आरक्षण की सख़्त ज़रूरत, पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते और भारतीय संविधान की सुरक्षा जैसे भारी भरकम मुद्दों के बीच शिक्षा और संस्कृति से जुड़े सवाल लगभग नदारद थे। घोषणा-पत्र, संकल्प-सूची और गारंटियों की काकली के बीच शिक्षा द्वारा मनुष्य के निर्माण और उसके संवर्धन और संरक्षण से जुड़े प्रश्न की कोई जगह नहीं थी।


    सभी नेता मौखिक रूप से देश को बचाने, बनाने, समता लाने तथा सबको सुखी बनाने के लिए तैयार थे। सभी नेता बढ़-चढ़ कर गरीबों को अनाज देने, मुफ़्त रुपये बाँटने और सभी तरह की भौतिक सुविधाएँ जुटाने की घोषणा करने और खटाखट ख़ैरात बाँटने को तैयार थे, यह जान कर भी कि सरकार के पास कोई जादुई तिजोरी नहीं है कि फटाफट सब कुछ सब को मुहैया कर दिया जाये । वे यह भी नहीं सोच रहे थे कि सार्वजनिक मुफ़्तखोरी की लत का नुक़सान सबको भुगतना पड़ेगा। आख़िर अकर्मण्य बनाने में किसका भला होगा ? मनुष्य बनने लिए संस्कार की आवश्यकता पड़ती है। यही समझ कर शिक्षा की संस्थाएँ बनी। भारत इस तरह के प्रयास में अग्रगण्य था। यहाँ के नालंदा और तक्षशिला के बहु अनुशासनात्मक और समावेशी विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय संसार में कहीं न थे। औपनिवेशिक दौर में शिक्षा की जो व्यवस्था रोपी गई उसके फलस्वरूप हम जिस तरह पिछड़े उससे अभी तक उबर न सके। यह बिडम्बना ही कही जाएगी कि विकसित भारत का नारा देते हुए आज देश में शिक्षा आज कई तरह की दुर्दशाओँ के दौर से गुजर रही है।

    यह एक दुखद सत्य है कि स्वतंत्र भारत में चर्चाएँ होती रहीं, आयोग बनते रहे, शोध रपटें आती रहीं, योजनाओं का खाका भी बनता रहा, कुछ आधे-अधूरे कदम भी उठाए गए परंतु कभी भी शिक्षा की ओर समग्रता से तथा व्यावहारिक स्तर पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका था। इसके लिए ढुलमिल और टालू नज़रिया ही अपनाया जाता रहा। मोदी सरकार के पहले दौर से ही वर्ष 2015 में शिक्षा में सुधार का वादा ही नहीं किया गया बल्कि बल्कि नई शिक्षा नीति का बनाने की क़वायद भी शुरू की। सांकेतिक पहल के रूप में ‘मानव संसाधन मंत्रालय’ का नाम ‘शिक्षा मंत्रालय’ कर दिया गया था। दूसरे कार्यकाल में अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए सरकार ने 2020 में अंतरिक्ष विज्ञानी डा कस्तूरीरंगन की अगुआई में लम्बे सलाह-मशविरे के बाद नई शिक्षा नीति आई। सबको आशा बंधी कि शिक्षा में एक नया सबेरा आने वाला है । उसकी कुछ झलक भी मिली थी पर अभी भी लम्बी दूरी तय करना शेष है। अब 2024 में मोदी सरकार की 71 मंत्रियों की फ़ौज के साथ तीसरी पारी सौदिनी एजेंडे के साथ शुरू हो चुकी है। शिक्षा के लिए उसमें क्या जगह है यह तो स्पष्ट रूप से पता नहीं पर पुराने शिक्षा मंत्री ही फिर से दायित्व सँभाल रहे हैं और विभाग का काम-धाम रूटीन में पहले जैसा ही चलता रहेगा ।

    याद रहे कि शिक्षा नीति-2020 कक्षा तीन से लेकर स्नातकोत्तर स्तर तक की शिक्षा में ‘आमूल-चूल परिवर्तन’ लाने की विशाल महत्वाकांक्षा के साथ आगे बढ़ी थी। इस नीति को लागू करने की योजना पर खंड-खंड में कुछ काम भी शुरू हुआ। कुछ समितियाँ बनीं, कुछ गोष्ठियाँ भी हुईं और साथ में अनेक स्तरों पर और विभिन्न समूहों के साथ विचार-विमर्श भी चलता रहा। नीति की आत्मा को समझ कर नियमों और व्यवस्थाओं में फेर-बदल भी हुए थे। कई परिवर्तन कुछ जगहों पर लागू हो चुके हैं। पर प्रगति देखते हुए यही लगता है कि रस्म अदायगी ही हो रही है। आधे-अधूरे ढंग से धीमी गति से इस पर काम चल रहा है। शिक्षा के संचालन में विकल्पों की व्यवस्था, रुख़ में लचीलापन, व्यवस्था की सहजता, स्थानीयता पर बल, पारिस्थितिकी की चिंता, संस्कृति के साथ जुड़ाव, कुशलता-निर्माण को महत्व, रोज़गार की उन्मुखता और शिक्षा देने में मातृभाषा के अधिकाधिक उपयोग की बात लिखित और मौखिक रूप में बार-बार सरकारी तंत्र द्वारा दुहराई जाती रही है।

    ये संकल्प जितने आकर्षक हैं उनको लागू करना उतना ही कठिन है। परिणाम है कि पहले की तुलना में परिसरों में दुर्व्यवस्था बढ़ती जा रही है और अध्ययन, अध्यापन तथा शोध की गुणवत्ता में गीयवत दर्ज हो रही है। आज शिक्षा के ज़्यादातर परिसर सिर्फ़ प्रवेश लेकर परीक्षा करा रहे हैं और डिग्री देने में व्यस्त हैं। साल में दो बार प्रवेश की ताजी योजना शिक्षा संस्थाओं को और व्यस्त करने वाला होगा। शिक्षा का सम्पादन दिनों-दिन कमजोर होता जा रहा है। ख़ास तौर पर स्कूली शिक्षा की स्थिति पूरे देश में ख़स्ता हाल हो रही है। नीति-हीनता की विपत्ति यह है कि शिक्षक-प्रशिक्षण की व्यवस्था क्या हो? उसका पाठ्यक्रम कैसा हो ? और कितने समय में उसे कैसे किया जाये? आदि प्रश्नों को लेकर कोई स्पष्ट और दृढ़ व्यवस्था नहीं हो पाई है और क़िस्म-क़िस्म के संशय बरकरार हैं।

    शिक्षा के ज़मीनी हालात चिंताजनक हो रहे हैं और कोई उसका पुरसाहाल लेने वाला नहीं है। कागज़-पत्र की कार्रवाई बेशक ख़ास हो रही है। नैक है, एनआईआरएफ़ है, यूजीसी है और और भी बहुत कुछ है पर शिक्षा जगत में संसाधनों का घोर अकाल पड़ा है। उस स्थिति में ‘आनलाइन’ एक बड़ा सहारा बन कर अवतरित हुआ है। अब प्रवेश, पढ़ाई, परीक्षा और अनुसंधान सब काम इसकी बदौलत चल पड़ा है। गुरु-शिष्य संबंध और शिक्षा के साक्षात् सजीव अनुभव अब इतिहास की बात होती जा रही है। नीट आदि हर तरह की परीक्षा में पेपर लीक होना, परीक्षा परिणाम में धांधली और मानकों को धता बताना आम बात हो रही है।

    प्राइमरी से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक लगभग सभी संस्थाओं में अध्यापकों की कमी बनी हुई है। जहां नियुक्ति हो रही है वहाँ किस तरह की धांधली होती है यह बंगाल के उदाहरण से बखूबी से समझी जा सकती है जो पकड़ में आकर सार्वजनिक हो चुका है। प्राचार्य और कुलपति आदि उच्च पदों को लेकर भी नाना प्रकार के संशय की गहरी छाया बनी हुई है। आर्थिक अपराध, चारित्रिक विचलन, नियमों की अवहेलना और साहित्यिक चोरी जैसी दुर्घटनाएँ शैक्षिक परिसरों में तेज़ी बढ़ रही हैं। बहुत से कुलगुरुओँ को पद से हटाना पड़ा और बहुत से आरोपित हैं। शिक्षा की पवित्र संस्कृति लुप्त होती जा रही है। यहाँ भी बाज़ार के तर्ज़ पर ही फ़ायदे का सौदा और ख़रीद फ़रोख़्त चलता है।

    शिक्षा और परीक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। दुर्भाग्य से माँग के अनुसार स्तरीय शिक्षा देने में हम लोग पिछड़ते गये और शैक्षिक संस्थाओं की व्यवस्था में निजीकरण छाता गया। सरकारी संस्थाओं की बदहाली के बीच निजी संस्थाओं की बाढ़ आ गई है। वे फल फूल रहे हैं और मनमानी फ़ीस वसूल रहे हैं। कोचिंग, ट्यूशन भी बड़े विशाल पैमाने पर शुरू हुई। अब साल्वर गैंग शिक्षण और परीक्षा को प्रदूषित कर रहा है । परीक्षाओं में बहु विकल्पों वाले सवाल चल रहे हैं जिनके लिए रटने पर ज़ोर है। नेट की परीक्षा जो अध्यापक के चुनाव की है उसमें अभिव्यक्ति, विवेचन और समीक्षा की क्षमता जाँचने की जगह बहु विकल्प के प्रश्न दिए जा रहे हैं। इन सबसे ज़रूरी क्षमता का ठीक ठीक आकलन नहीं हो पाता। एन टी ए सरकार के निर्देशन में सिर्फ़ कामचलाऊ तर्ज पर ठेके पर कार्य कर रही थी। फलत: नाजायज़ तरीक़ों से कमाई करने वाले जगह-जगह से उसमें सेंध लगा रहे थे जिसका ख़ामियाज़ा छात्र छात्राओं और उनके अभिभावकों को भुगतना पड़ रहा है। उनके परिश्रम, समय और आर्थिक नुक़सान की चिंता किसी को नहीं है। एनटीए के डीजी को बदल देना और व्यवस्था में चौकसी के लिए क़ानून पास करना नाकाफ़ी है।

    आज भारत में शिक्षा की दयनीय दशा पर विचार कर ठोस कदम उठाना बेहद ज़रूरी हो गया है। आज एक ओर यदि महत्वाकांक्षाओं की कोई सीमा नहीं दिख रही है तो दूसरी ओर शैक्षिक तैयारी में लगातार गिरावट हो रही है। अध्यापकों का अकाल और उनके चयन में धांधली की घटनायें कई प्रदेशों में हुई हैं। इसे देखते हुए मौक़ापरस्त शार्ट कट और आपराधिक उपाय अपनाते हुए सक्रिय हैं। आज भी शिक्षा के लिए जीडीपी का तीन प्रतिशत के क़रीब खर्च होता है और छह प्रतिशत का वादा झूठा ही रह रहा है। पेपर लीक होना और ग्रेस मार्क देना आज तो रोग का लक्षण भर है। उससे जुड़े लोगों पर कड़ी कारवाई तो होनी ही चाहिए पर इस चेतावनी को सुनने की और उस पर गौर कर शिक्षा व्यवस्था में सुधार अनिवार्य हो गया है।

    आज औद्योगीकरण और तकनीकी हस्तक्षेप के साथ व्यवस्थाओं में तेज़ी से बदलाव आने लगा है। ऐसे माहौल में लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पर लगने लगे और उन्होंने नया आकार लेना शुरू किया। आर्थिक समृद्धि के एकांगी आकर्षण ने सामाजिक-आर्थिक दुनिया में प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या और लोभ को ही जीवन में सफलता पाने के लिए अनिवार्य शर्त बना दिया। इसने शिक्षा के पवित्र परिसर में प्रतिस्पर्धा की मानसिकता के घातक दबाव को एक ज़रूरी चुनौती बना दिया। बच्चे के भविष्य को सुधारने के लिए माता-पिता प्राइमरी स्तर से ही सीखने-समझने की शक्ति की जगह परीक्षा के चमत्कार को समझ नम्बर लाने के लिए दबाव डालना शुरू करने लगे। परीक्षा बच्चे और परिवार दोनों के लिए जीवन-मरण का सवाल हो गया।

    इस युद्ध में जीत के लिए ‘इग्जामिनेशन वैरियर’ को प्रति वर्ष प्रधानमंत्री भी सीख देते हैं। यह एक चिंताजनक स्थिति है जिसे नज़रंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। हर बच्चे में क्षमताएँ होती हैं जिन्हें पहचान कर धार देने की ज़रूरत होती है। समाज के लिए प्रत्येक क्षेत्र में कुशल और योग्य कर्मी चाहिए। बच्चे के समग्र विकास की दृष्टि से यही होना चाहिए था। जीवन को अवसर के रूप में लेते हुए लगन और परिश्रम से जीवन संवारने का अधिकाधिक अवसर देना समाज का दायित्व है। व्यवस्था की नाहक जकड़बंदी और संकुचित दायरे में शिक्षा-दीक्षा की औपचारिक विधियों में बदलाव लम्बे समय से बदलाव के लिए प्रतीक्षारत है।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि, वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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