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    शिक्षा, ज्ञान और नैतिकता

  • March 18, 2024

    – गिरीश्वर मिश्र

    आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी का युग है। ज्ञान का विस्फोट हो रहा। इस युग की मान्यता है कि ज्ञान अपने आप में ‘सेकुलर’ (यानी निर्दोष!) होता है और उसका किसी तरह के मानवीय मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं होता है। वह सबकुछ से परे अर्थात् निरपेक्ष-निष्पक्ष होता है। आज विज्ञान की साखी के साथ (सफ़ेद कोट से सजे) विज्ञापनों की धूम मच रही है। कभी ज्ञान को शक्ति का महान स्रोत घोषित किया गया (नोलेज इज पावर!)। वह छवि आज भी विद्यमान है। विद्या के परिसरों में भी मानविकी (ह्यूमेनिटीज), विज्ञान (साइंस) और प्रौद्योगिकी (टेक्नोलोजी) के आगे बेहद फीकी पड़ रही है। आज विज्ञान से बढ़त पाकर कुछ देश शेष विश्व पर नियंत्रण करने में लगे हुए हैं। शायद इसी सोच के साथ परमाणु बम जैसे संहारक अस्त्र-शस्त्र भी बनते गए। आज भी संहार की विभीषिका का अनुभव करने के बाद भी नए-नए ज़्यादा से ज़्यादा संहार शक्ति वाले अस्त्र-शस्त्र बनाने की होड़ लगी हुई है। अब छोटे-बड़े सभी देश अपने बजट में जन-कल्याण की जगह युद्धास्त्रों के मद पर सबसे ज़्यादा खर्च कर रहे हैं।


    आज दुनिया में दो घोषित युद्ध चल रहे हैं जिनके आयोजन में विकसित दुनिया के बड़े-बड़े देश शामिल हैं। इन युद्धों में जीवन और सम्पदा की हो रही भीषण तबाही का भयानक मंजर सभी देख रहे हैं। यह तब हो रहा है जब दुनिया विश्वयुद्ध में बड़े पैमाने हो चुके संहार की साक्षी रही है । इस तरह के घटना-चक्र के पीछे की ज्ञान-दृष्टि बेमानी सिद्ध हो रही है। किंतु प्रबल उपभोग वृत्ति के आकर्षण और बाज़ार पर अधिकाधिक प्रभुत्व स्थापित करने के तीव्र दुराग्रह के बीच हमें कुछ भी दिख नहीं है। आज पृथ्वीसमेत पूरी प्रकृति और सारी मनुष्यता के भविष्य पर भीषण ख़तरा मंडराता दिख रहा है। हमारी वैज्ञानिक ज्ञान-दृष्टि की एक सीमा यह भी उभर रही है कि हम इस स्थिति में निरुपाय और विवश बने रहने के लिए अभिशप्त हो चले हैं। इस दृष्टि से अभिभूत हम सब प्रगति, विकास और उन्नति के प्रलोभन से ग्रस्त हो कर घोर अनैतिकता और अमानवीयता को नज़र अन्दाज़ करते जा रहे हैं। सूचना और परौद्योगिकी के अतिरेक वाले आज के विस्मय भरे दौर में ज्ञान की भूमिका अनधिकृत रूप से वर्चस्व, शोषण और दूसरों को पराभूत करने वाली शक्ति की होती जा रही है। अतिविकसित कहलाने वाले अधिकांश देश इसी राह पर चल रहे हैं। उनके अहंकार का यह विकट नर्तन अंतत: आत्महंता होता जा रहा है।

    पश्चिमी दृष्टि से भिन्न भारतीय प्रज्ञा के अनुसार ज्ञान इस पृथ्वी पर सबसे पवित्र होता है – न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते । पवित्रता का अनुभव निर्मल करने वाला होता है। उससे व्यक्ति के दोष दूर होते हैं और सद्गुण विकसित होते हैं। महात्मा बुद्ध ज्ञान (प्रज्ञा) के आधार के रूप में शील का उल्लेख करते हैं। भारत की ज्ञान परम्परा में ज्ञान या विद्या को समझाते हुए उसे क्लेशों से मुक्त करने वाला, विवेक जगाने वाला और मन में कर्तव्य का भाव स्थापित करने वाला बताया जाता रहा है। ज्ञान प्रकृति से ही नैतिक है। ज्ञान की यह सोच एक बड़े दायरे में विस्तृत है- इसमें सामान्य या लौकिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान, अपरा और परा दोनों तरह की विद्याओँ को सम्मिलित किया गया है।

    वस्तुतः ज्ञान अर्जित करना मनुष्य जीवन के लिए एक सतत लक्ष्य है और उसे प्राप्त का जीवन का परिष्कार और उसमें संवर्धन लाने का उपाय भी है। इस तरह विद्या मनुष्य के द्वारा जो कुछ मनोवांछित है उसे साधने या सिद्ध करने में समर्थ मानी गई है- किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या । ज्ञान के मार्ग पर चलने का उद्देश्य दुःख का निवारण कहा गया। उसे नि:श्रेयस अर्थात् मुक्ति से जोड़ा गया। अर्थ और वित्त की प्राप्ति कर लेना, संसाधन जुटा लेना उसका लक्ष्य नहीं हो सकता। बृहदारण्यक उपनिषद में एक आख्यान है जिसमें मैत्रेयी परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य से पूछती हैं कि यदि धरती की सारी सम्पदा मुझे मिल जाय तो क्या मुझे अमरत्व मिल जाएगा? इसका उत्तर याज्ञवल्क्य स्पष्ट रूप से नकारात्मक देते हैं। गौतम बुद्ध भी बोधि को जीवन का लक्ष्य बताते हैं। चार्वाक विचार परम्परा में ज़रूर काम के पुरुषार्थ और इच्छा पूर्ति पर बल देता है। परंतु यह दोषपूर्ण है। महाभारत स्पष्ट रूप से कहता है कि इच्छा कभी नहीं मरती। पूरी होने पर फिर दूसरी और फिर अगली इच्छा पैदा होती जाती हुई। यह क्रम अनवरत चलता रहता है जिसकी व्यर्थता समझ में नहीं आती।

    काम का पुरुषार्थ महत्वपूर्ण है पर तब जब वह धर्म के अनुकूल हो जैसा कि भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘मैं धर्म का अविरुद्ध काम हूँ।’ कठोपनिषद श्रेय और प्रेय के बोच अंतर करता है। श्रेय कल्याणकारी होता है जब कि प्रेय सिर्फ़ प्रीतिकर होता है। समझदार लोग श्रेय को चुनते हैं। वित्त आवश्यक है पर उतना ही जो भरण-पोषण के लिए चाहिए। उससे अधिक पाने के लोभ की कोई सीमा नहीं होती। साथ ही अधिक सम्पदा दान, त्याग और लोक-कल्याण के लिए होनी चाहिये। धन सम्पदा अर्जित करना और लोक-कल्याण में जुटना साथ-साथ चल सकते हैं। उदात्त भाव की ओर आगे बढ़ना ही जीवन का व्यापकतर उद्देश्य होना चाहिए।

    बृहदारण्यक उपनिषद में मनुष्य मात्र के लिए तीन निर्देश दिए गए- दाम्यत्, दत्त और दयध्वम् अर्थात् आत्म नियंत्रण करो, त्याग करो और जीवों के साथ करुणा का भाव अपनाओ। कुल मिला कर यही लगता है कि आदमी जितना नैतिक होता है उसी अनुपात में मनुष्य होता है। बिना नैतिकता के काम नहीं चलने वाला है। यही स्वधर्म होना चाहिए। ज्ञान की साधना इसी उद्देश्य से होनी चाहिए। यही ध्यान में रख कर कहा गया कि ज्ञान पाने के लिए विद्यार्थी के लिए प्रणिपात (समर्पित भाव से ग्रहण करने की इच्छा), परिप्रश्न (जाँच-परख) और (गुरु) सेवा करे । तभी ज्ञान पाने की पात्रता आ सकेगी। गुरुकुल में गुरु और शिष्य की संधि (पारस्परिक चर्चा-विमर्श) के मध्य ज्ञान का संधान होता था। आचार्य वह होता था जो अपने आचरण में ज्ञान को प्रकट करता था। इस तरह की परम्परा में ज्ञान मूल्यरहित या मुक्त न हो कर मूल्यवान माना गया। ज्ञान की बाध्यता है कि वह कल्याणकारी हो। ज्ञान की साधना धर्म की परिधि में ही होनी चाहिए। तब ज्ञान सात्विक होगा । व्यक्ति जगत में व्यवहार करते हुए समदृष्टि का विकास कर सकेगा। तब व्यष्टि और समष्टि ओत-प्रोत होंगे और भिन्न-भिन्न चीजों में भी एकसूत्रता का बोध हो सकेगा।

    शिक्षा की प्रक्रिया ज्ञान अर्जित करने के माध्यम के रूप में है और इसकी उपयोगिता समझ कर इसे सभ्य देशों ने संस्थागत व्यवस्था के अधीन संचालित करने की व्यवस्था अपना ली। आज आदमी के जीवन का एक बड़ा हिस्सा, औसतन लगभग बीस वर्ष की आयु तक, इस संस्था की गहन निगरानी में बीतता है। शैक्षिक संस्थाओं में रहते हुए विद्यार्थी देख कर, सुन कर, प्रयोग कर और समझ कर मूल्यों की एक व्यवस्था को अपनाता है। साथ ही व्यवहार के स्तर पर वह कुछ मानकों को स्वीकार करता है। ऐसे में नैतिकता हमारी शिक्षा प्रक्रिया की अनिवार्यता बन जाती है जिसका कर्णधार अध्यापक होता है। आज शिक्षा का परिवेश नाना प्रकार से प्रदूषित हो रहा है।

    बोर्ड की परीक्षा के केंद्र पर नकल कराने वालों की भीड़ होती है और पेपर लीक होने की घटनाएँ आम होने लगी हैं। शोध में साहित्य चोरी (प्लैगरिज़्म) की घटनाएँ बढ़ रही हैं। ज्ञान में वृद्धि की जगह दुहराव और पिष्ट-पेषण की प्रवृत्ति तेज़ी से फैल रही है। जिससे ज्ञान की जगह ज्ञान देने और पाने की कवायद (ड्रिल) हो रही है और ज्ञान (पाने) का भ्रम बढ़ रहा है। ज्ञान के लिए जिज्ञासा, निष्ठा और समर्पण की जगह किसी भी तरह परीक्षा में सफलता हासिल करना लक्ष्य होता जा रहा है। इसका दबाव कितना भयानक है यह विद्यार्थियों के मानसिक अस्वास्थ्य की बढ़ती मात्रा में देखा जा सकता है। आज ये प्रश्न बेहद महत्वपूर्ण हो गया है कि कौन सा ज्ञान लिया जाय? ज्ञान किस तरह से लिया जाय? ज्ञान का उद्देश्य क्या हो? विकसित भारत के संकल्प के साथ ज्ञान की दुनिया को व्यवस्थित करना भी जरूरी है। उसे देश-काल के अनुकूल और स्वतंत्रता के बोध को जगाने वाला नैतिक और मानवीय उपक्रम बनाना पड़ेगा।

    (लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

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