– डॉ. अनिल कुमार निगम
युद्ध हमेशा विनाश लाते हैं। इससे हमेशा मानवता का विनाश हुआ है। हर युद्ध अपने पीछे भयावह चिह्न छोड़ जाता है। भारत की भी नीति ‘‘ वसुधैव कुटुम्बकम् ’’ की रही है, लेकिन अमेरिका और यूरोपीय संघ की रणनीति यह रही है कि विश्व में युद्ध चलते रहने चाहिए। संभवत: यही कारण है कि रूस-यूक्रेन युद्ध को दो वर्ष से अधिक समय हो चुका है। वहीं हमास और इजराइल के बीच युद्ध छिड़े हुए लगभग पांच महीने का समय गुजर चुका है, लेकिन इनका कोई अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। रूस-यूक्रेन युद्ध और हमास-इजराइल युद्ध मानवता के लिए बरबादी का सबब हैं, जबकि अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और कई यूरोपीय देशों के लिए ये कमाई का साधन बन गए हैं। संपूर्ण विश्व में युद्ध चलता रहे, अमेरिका व पश्चिमी देशों के लिए यह फायदे की बात है। तीन वर्ष बीत जाने के बावजूद रूस-यूक्रेन युद्ध शांत नहीं हुआ। हमास के लड़ाकों ने 7 अक्टूबर, 2023 को इजराइल पर हमला किया था। उसके बाद इजराइल ने हमास के ठिकाने वाली गाजा पट्टी पर ताबड़तोड़ हमले कर एक हिस्से को तो बकायदा कब्रिस्तान में तब्दील कर दिया।
गौरतलब है कि यूक्रेन-रूस युद्ध को दो वर्ष से अधिक हो चुके हैं। परंतु इस युद्ध को रोकने के लिए न तो अमेरिका और न ही रूस गंभीर है। अहम सवाल यह है कि क्या कारण है, जिसके चलते ये देश युद्ध खत्म नहीं करना चाहते? वे इन युद्धों को लंबा क्यों खींचना चाहते हैं? क्या उन्हें इन युद्धों में मारे जाने वाले लोगों और इससे होने वाली क्षति की कोई चिंता नहीं है? इसके पीछे उनकी क्या मंशा है? सर्वविदित है कि रूस-यूक्रेन युद्ध में हजारों लोगों की जान चली गई और बड़े पैमाने पर विनाश हुआ, फिर भी युद्ध का कोई अंत नहीं दिख रहा है। यह भी उल्लेखनीय है कि इस युद्ध से रूस की सेना की जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठा बनी हुई थी, वह भी प्रभावित हुई है। दो वर्ष के लंबे संघर्ष के बावजूद रूस अब तक यूक्रेन के केवल 17 फीसदी हिस्से पर ही कब्जा कर सका है।
इसी तरीके से देखा जाए तो हमास और इजराइल के बीच चलने वाला युद्ध भी अंतहीन लग रहा है, क्योंकि एक ओर जहां अमेरिका और नाटो देश इजराइल के साथ खड़े हैं। वहीं दूसरी ओर हमास के समर्थन में कई अरब देश हैं। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच हथियारों का प्रयोग एवं प्रदर्शन जमकर हो रहा है। वास्तव में हमले के एक वर्ष बाद अमेरिका और रूस ने अपने सैन्य हथियारों का परीक्षण एवं प्रदर्शन करने के लिए युद्ध क्षेत्रों का उपयोग किया। ऐसा लगता है, मानो दोनों पक्ष अपने हथियारों की बिक्री और प्रदर्शन करना चाहते हैं। ध्यातव्य है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जनरल आइजनहावर ने स्वीकार किया था कि अमेरिका एक ‘सैन्य औद्योगिक प्रतिष्ठान’ है। यूक्रेन युद्ध और गाजा पट्टी पर इजराइल का हमला इस बात के ताजा उदाहरण हैं। उन्होंने यह भी कहा कि युद्धविराम के जरिये समझौता किया जा सकता था, लेकिन अमेरिका और यूरोपीय संघ के निहितार्थों ने इस होने नहीं दिया।
वर्ष 2023 में अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन एवं ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड कैमरन ने एक संयुक्त प्रेस वार्ता में कहा था, ‘यदि आप रूस के आक्रमण से निपटने के लिए यूक्रेन की रक्षा में हमारे द्वारा किए गए निवेश को देखें, तो हमने जो सुरक्षा सहायता प्रदान की है, उसका 90 फीसदी वास्तव में अमेरिका में मैन्युफैक्चरिंग एवं प्रोडक्सन पर खर्च किया गया है। इसी का नतीजा है कि अमेरिका में रोजगार के अवसर पैदा हुए और अर्थव्यवस्था का ज्यादा विकास हुआ। यह हमारे लिए फायदे का सौदा है, जिसे हमें जारी रखने की जरूरत है।’
अमेरिका की विदेश नीति पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि हथियार हस्तांतरण और रक्षा व्यापार अमेरिकी विदेश नीति के महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। अमेरिका के विदेश विभाग के अनुसार, अमेरिकी सरकार ने 80 अरब डॉलर से अधिक की सैन्य सामग्री की बिक्री के लिए सीधे सौदा किया। यह सौदा वर्ष 2022 से 56 प्रतिशत अधिक है। यूक्रेन के विदेशमंत्री दिमित्रो इवानोविच कुलेबा ने हाल ही में एक बयान में कहा कि प्रतिदिन युद्ध की लागत 13.6 करोड़ डॉलर है। अमेरिकी हथियारों की विदेशों में बिक्री पिछले साल तेजी से बढ़ी, जो रिकॉर्ड कुल 238 अरब डॉलर तक पहुंच गई, क्योंकि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने हथियारों की मांग बढ़ा दी। यूक्रेन पर रूसी हमला शुरू होने के बाद से अमेरिका 113 अरब डॉलर और यूरोपीय संघ ने यूक्रेन को 91 अरब डॉलर सैन्य और वित्तीय सहायता प्रदान की।
अमेरिकी की प्रमुख समाचार एजेंसी पोलिटिको ने दावा किया है कि ‘व्हाइट हाउस’ चुपचाप दोनों दलों-डेमोक्रेट एवं रिपब्लिकन के सांसदों से आग्रह करता है कि वे घरेलू आर्थिक समृद्धि के लिए अन्य देशों में युद्धों को बढ़ावा दें। दोनों दलों के नेता रूस का प्रतिरोध करने के लिए यूक्रेन को सहायता देने का समर्थन करते रहे हैं, ताकि यह साबित किया जा सके कि ऐसा करना अमेरिका में रोजगार सृजन के लिए अच्छा है। यहां तक कि यह काम कुछ मीडिया घराने भी करते हैं। बड़े रक्षा निगमों के शीर्ष अधिकारियों की शक्तिशाली पदों पर बैठे अमेरिकी राजनेताओं के साथ गहरी सांठगांठ है।
वास्तविकता तो यह है कि अमेरिकी सैन्य औद्योगिक प्रतिष्ठान के समर्थक पूरे सरकारी और अर्ध-सरकारी तंत्र में पैठ बनाए हुए हैं। लॉबिस्ट राजनेताओं के साथ सावधानीपूर्वक मिलीभगत करते हैं। बड़ी रक्षा कंपनियां, थिंक टैंक और अन्य संबद्ध संस्थानों के संरक्षक की भूमिका में होते हैं। ये ऐसे लोग हैं जो हथियार विक्रेताओं के लिए एजेंडा सेटिंग का काम करते हैं।
यूक्रेन युद्ध में अमेरिका रूसी रक्षा उद्योग को पूरी तरह से विफल होता देखना चाहता है। वह विश्व में रूसी हथियार निर्माताओं को निकृष्ट साबित कर उनको निर्यात से मिलने वाले धन से वंचित करना चाहता है। लेकिन, यह कितनी अजीबो गरीब बात है कि युद्ध जो लगातार मानवता का विनाश कर रहे हैं। विभिन्न देशों के आधारभूत ढांचे को तबाह कर रहे हैं। हजारों लोगों की जान जा रही है लेकिन अमेरिका और यूरीपीय संघ के देश तबाही की कीमत पर अपने देश की अर्थव्यवस्था को सशक्त करने का काम कर रहे हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि विश्व शांति के लिए गठित संयुक्त राष्ट्र संघ क्या कर रहा है? क्या ऐसे ही विनाश होता रहेगा और संयुक्त राष्ट्र संघ मौन बना रहेगा?
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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