नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट(Supreme Court) ने शुक्रवार को दहेज हत्या(Dowry killing) के मामलों में अभियुक्तों के बयान दर्ज करते समय अक्सर ट्रायल कोर्ट (Trial court) द्वारा गंभीरता नहीं दिखाने पर चिंता व्यक्त की है। शीर्ष अदालत (Supreme Court) ने यह भी कहा है कि दहेज हत्या (Dowry killing) मामले में कभी-कभी पति के परिवारवालों को बेवजह फंसाया (Husband’s family members were unnecessarily implicated) जाता है।
कोर्ट ने कहा कि दहेज हत्या (Dowry killing)मामले का परीक्षण करते समय दुल्हन को जलाने और दहेज की मांग जैसी सामाजिक कुरीतियों को रोकने के लिए विधायी मंशा को ध्यान में रखा जाना चाहिए। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने दहेज हत्या मामले के परीक्षण को लेकर कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
चीफ जस्टिस एनवी रमना(Chief Justice NV Ramana) और जस्टिस अनिरुद्ध बोस (Justice Anirudh Bose) की पीठ ने कहा है दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) की धारा-313 के तहत दर्ज होने वाले बयान कई बार आरोपी से पूछताछ किए बिना दर्ज किए जाते हैं।
शीर्ष अदालत ने ये बातें दहेज हत्या के एक मामले का निपटारा करते हुए कही है। सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी पति सतबीर सिंह व ससुरालियों को खुदकुशी के लिए उकसाने (धारा-306) के अपराध में तो बरी कर दिया, लेकिन धारा- 304 बी (दहेज हत्या) के अपराध में दोषी करार दिया है। इससे पहले हरियाण के ट्रायल कोर्ट ने और बाद में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने इन सभी को धारा-304 बी और धारा- 306 के तहत दोषी करार दिया था। जुलाई, 1994 में दोनों की शादी हुई थी और जुलाई, 1995 में पत्नी के खुद को आग के हवाले करते हुए खुदकुशी कर ली थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि धारा-313 के तहत दर्ज होने वाले आरोपी के बयान को सिर्फ प्रक्रियात्मक औपचारिकता नहीं माना जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने कहा है कि धारा-313 आरोपी को उसके खिलाफ मौजूद आपत्तिजनक तथ्यों पर स्पष्टीकरण देने में सक्षम बनाती है। इसलिए अदालत को निष्पक्षता और सावधानी के साथ आरोपी से सवाल पूछा जाना चाहिए। शीर्ष अदालत ने अपने आदेश में हालांकि कहा है कि वह दहेज हत्या के खतरों से भलीभांति अवगत है। दहेज हत्या की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘कभी-कभी पति के परिवार के उन सदस्यों को फंसाया जाता है जिनकी अपराध में कोई सक्रिय भूमिका नहीं होती है और बल्कि वे दूर भी रहते हैं।’ शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसे में अदालतों को सावधानी वाला रवैया अपनाने की जरूरत है।