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    मातृभाषा को मत छोड़िए

  • September 15, 2021

    – डा. राकेश राणा

    जब हम अपनी मातृभाषा सीख रहे होते हैं तो एक सोचने-समझने की पूरी विधि को अख्तियार कर रहे होते हैं। भाषा हमें हमारे परिवेश में प्रतिष्ठित करने वाली दृष्टि प्रदान कर रही होती है। यह बहुत नैसर्गिक प्रक्रिया की तरह हमारे जीवनानुभवों में सम्पन्न होती रहती है। इसकी ताकत, क्षमता और विस्तार की विशेषताएं उस भ्रूण के अंकुरण की तरह प्राथमिक स्तर पर ही तय हो जाती है जो भावी संसार बनाने वाला है। भाषा का अपने समाज और संस्कृति से अनन्य संबंध है। बेशक मनुष्य के पास भाषा सीखने की अद्भुत क्षमता है पर वह भाषा को तभी सीख पाता है जब उसे एक भाषायी समाज का परिवेश प्राप्त हो।

    एक ओर जहां समाज के माध्यम से ही भाषा पीढ़ी दर पीढ़ी आगे पहुँचती है तो दूसरी ओर भाषा के माध्यम से ही समाज संगठित और संचालित रहता है। भाषा के अभाव में सामाजिक संरचना धराशायी हो जाएगी। इसी तरह भाषा का अपनी संस्कृति से गहरा संबंध होता है। भाषाई मजबूती संस्कृति की मजबूती पर बहुत निर्भर करती है। दुनियावी अनुभव बताते हैं कि वे ही समाज बौद्धिक और नैतिक दृष्टि से सफल सिद्ध हुए हैं जिनमें भाषाई समृद्धि बनी रही। उन्हीं समाजों ने विज्ञान और तकनीकी में तरक्की की है जिनकी समृद्ध भाषाओं ने अपने-अपने विषयों में प्रगति की। किसी भी संस्कृति और विज्ञान का विकास भाषा की धरातल पर ही निर्भर करता है।

    परम्परागत समाजों की संस्कृतियां अपनी रुढ़ियों, अंधविश्वासों और अंध-आस्थाओं के चलते सामाजिक-सांस्कृतिक वर्जनाओं का विस्तार करते हुए नए क्षैतिजों का निषेध करती जाती है। अपने शिक्षा माध्यमों को बांझ बना लेती है। संसार के नए वैज्ञानिक रूपों के निरन्तर नकार की यह प्रवृत्ति और रुढ़िवादिता का यह रुकावटी रवैया हमें भाषाई रूप से कभी समृद्ध नहीं होने देता है। नतीजतन ऐसे समाज वैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने में असमर्थ ही बने रहते हैं। इसलिए सिर्फ संस्कृति को ही विकसित करना अथवा केवल भाषा को ही समृद्ध बनाना एकांगी विकास होगा। एक विकसित समाज के निर्माण की दिशा में संस्कृति और भाषा को समानांतर रूप से विकसित करने की जरूरत होती है। इसी तरह भाषा शिक्षा से जुड़ी है। शिक्षण का मातृ-भाषाई माध्यम सिर्फ सुगमता ही नहीं लाता है बल्कि उसकी प्रभाविकता भी इससे जुड़ी होती है। प्रसिद्ध चिंतक ’जीरोम ब्रुनर’ यही कहते हैं कि “बच्चे अपने समाज और संस्कृति को ग्रहण करते हुए बड़े होते हैं, समाज व संस्कृति उनके सीखने के स्वभाव का निर्धारण करते हैं। बहुत हद तक उसके इस स्वभाव से निर्धारित होता है कि बच्चा क्या सीखेगा और किन बातों को सीखना उसके लिए आसान होगा। एक शिक्षक के लिए ये महत्वपूर्ण बातें हैं।” अतः संस्कृति और शिक्षा के अतःसंबंध में भाषा अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है।

    किसी भी समुदाय, समाज और संस्कृति की समृद्धि का पैमाना उसकी भाषा होती है। एक बड़ी आम धारणा है कि किसी जाति या संस्कृति को समाप्त करना हो तो पहले उसकी भाषा को समाप्त करो। वह जाति या संस्कृति स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। भाषा लुप्त होने पर न केवल संस्कृति विलुप्त होती है अपितु साहित्य और इतिहास भी अतीत के गर्त में खो जाते है। ’साइंटिफ़िक अमेरिकन माइंड’ में जाने-माने भाषा वैज्ञानिक ’डा. कौरे बिन्स’ लिखते हैं कि विश्व में सात हजार भाषाएं हैं जिनमें से प्रत्येक माह दो भाषाएं मर रही है। उनके साथ अनेकानेक संततियों से प्राप्त सांस्कृतिक ज्ञान तथा मानव मस्तिष्क का रह्स्यमय शब्द प्रेम भी सदा के लिए लुप्त हो रहा है। मातृभाषाएं केवल संवाद के लिए नहीं होती है वे संस्कृति के निर्माण और विकास की दिशा में मार्गदर्शक होती है।

    आधुनिक वैश्विक दुनिया में जिसे ’सूचना समाज’ की संज्ञा दी जा रही है इसने भाषाई वर्चस्व का मोर्चा खोल दिया है। मीडिया और सोशल मीडिया के मैदान में भाषाएं अपने शक्ति-प्रदर्शन पर उतारू है। दुनिया की तमाम भाषाएं अपनी-अपनी मारक क्षमता के साथ सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित कर बजरिए बाजार सत्ता और शक्ति के नए प्रतिमान स्थापित करने की होड़ में है। नतीजतन विकासशील समाज पहचान के संकट के कगार पर पहुंच चुके हैं। वहीं विकसित समाज तो अपनी भाषा को बचाए हुए हैं और अपनी संस्कृति को विस्तार के नए क्षैतिज दे रहे हैं।

    भाषा वह भी है जो हमारी सोच, व्यवहार, रुचि और मानसिकता को गढ़ती है। लिखत-पढ़त वाली भाषा से ज्यादा उस मनोभाषा और देहभाषा को समझना जरुरी है जो भाषाई संरचना में निहित सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक-राजनीतिक तत्वों को तैयार करती है। इसलिए भाषाई संदर्भ की समझ सिर्फ शाब्दिक अर्थों तक सीमित नहीं है बल्कि उन सभी आयामों, संदर्भों और दृष्टिकोणों में विसरित है जो ‘भाषा’ का निर्माण करते है या सीधे कहें तो जो भाषिक मनोविज्ञान निर्मिति करते है और उस सामाजिक गढ़त के पीछे काम करते है जो भाषा को शक्तिशाली बनाते है। भाषा मात्र संप्रेषण का माध्यम नहीं होती है यह तो उसका साधारण नैसर्गिक दायित्व है। भाषा के साथ सत्ता, शक्ति, वर्ग सब शामिल हैं। भाषा की राजनीति पुरानी परिणति है। भाषा शासन-प्रशासन की शक्ति सहयोगिनी के रूप में पुराने समय से काम करती आयी है। वह सामाजिक करेंसी की तरह काम करती रही है। विशिष्ट वर्गों के निर्माण में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं स्थापित करती रही है। जो सत्ता संरचना के काम आते हैं।

    पिछड़े समाजों की भाषा-बोली लगभग लुप्त होने की तरफ बढ़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर बड़ी भाषाओं ने छोटी भाषाओं के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। वैश्वीकरण के दबाव में दुनिया की 6700 बोली जाने वाली भाषाओं में से 40 प्रतिशत भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। जबकि इन भाषाओं में उस समाज की संस्कृति और उनका हज़ारों-हजार वर्ष का ज्ञान सन्निहित है। हजारों आदिवासी भाषाएं जो अपनी जड़ों से जुड़ी है। सदियों के जीवन अनुभवों से उपजी ये भाषएं पर्यावरण के गहरे सरोकारों में रची-बसी हैं। इनमें ज्ञान की अथाह राशि सन्निहित हैं। आधुनिक विकास की होड़ ने परम्परागत ज्ञान के उस अगाध भंडार को विकास की होड़ में दफना दिया है। विकास के नाम पर जंगलों का सफाया, उन आदिवासी भाषाओं और संस्कृतियों का भी सफाया कर रहा है जो देशज और मौलिक ज्ञान के अजस्र स्रोत थे। इन आदिवासी भाषाओं में ज्ञान की जो विशिष्टता निहित है उसका संरक्षण और संवर्द्धन नव-सृजन के स्फुरण की क्षमता रखता है। ऐसे ज्ञान-बीज की विलुप्ति एक पूरी भाषाई सभ्यता और संस्कृति की समाप्ति है जो बहुत सारे सामाजिक-सांस्कतिक जीन विश्व को मुहैया करा सकती थी इसलिए अपनी भाषा को मत छोड़िए।

    भाषा का संरक्षण और संवर्द्धन अपने अस्तित्व को आख्यायित करना है। मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में विकसित करने का मतलब है अपने समाज और देश की संप्रेषण प्रक्रिया को सुदृढ़, व्यापक और सशक्त बनाना। क्योंकि मातृभाषा वह सामाजिक वास्तविकता है जो व्यक्ति को अपने भाषायी समाज के विभिन्न सामाजिक संदर्भों से जोड़ती है और उसकी सामाजिक अस्मिता का निर्धारण करती है। इसी के आधार पर व्यक्ति अपने समाज और संस्कृति से जुड़ा रह सकता है। भाषा ही समाज में संस्कृति और संस्कारों की संवाहक होती है। भाषा व्यक्ति को अपनी सौंधी गंध में समाजीकृत करती है उसे सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान प्रदान करती है। व्यक्ति के बौद्धिक विकास के साथ-साथ उसकी संवेदनाओं और अनुभूतियों की सहज-स्वाभाविक अभिव्यक्ति अपनी भाषा में ही होती है।

    (लेखक समाजशास्त्री हैं।)

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