विज्ञान की नवीनतम अवधारणाओं के अनुसार यह जीव-जगत पदार्थ तथा ऊर्जा के समन्वय से अस्तित्व में आया है। इन्हीं दो तत्वों को सनातन भारतीय दर्शन में शिव एवं शक्ति कहा गया है। ऊर्जा का ही शुद्धतम रूप चेतना है। यही चेतना जीवन का निर्माण करती है। अकेला पदार्थ निष्क्रिय, नीरस और जड़ है। बावजूद ऊर्जा कणों से निर्मित इस जड़ पदार्थ में भी हलचल है। भारतीय दर्शन में इसी हलचल को चेतना माना गया है, इसीलिए वह पदार्थ को भी चेतना मानता है। अतएव कहा गया है कि पदार्थ रूपी शिव से जब शक्ति रूपी ‘ई’ विलोपित हो जाती है तो वह ‘शव’ बन जाता है। दुर्गा की यह शक्ति जब ‘काली’ रूप में अवतरित होती है तो वह इसी शव पर खड़ी होकर उसे शिव बनाती है। फलस्वरूप काली को भूमि पर लेटे हुए शिव पर पैर रखे मूर्तियों व चित्रों में दर्शाया गया है। काली के इस अमूर्त रूप का जिस मूर्त रूप में चित्रण है, उसे यूं भी समझ सकते हैं कि जो ऊर्जामयी शक्तियां मनुष्य के अनुकूल है, वे दैवीय और जो प्रतिकूल है, वह आसुरी शक्तियां हैं। जिस ऊर्जामयी चेतना को ऋषियों ने हजारों साल पहले समझ लिया था, आज इसी चेतना को समझने के अभिनव प्रयास बिहार के योग विश्वविद्यालय में हो रहे हैं।
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चेतना ऊर्जा की विवेकपूर्ण संपूर्ण अभिव्यक्ति है, किंतु यह विज्ञान के लिए अबूझ पहेली बनी हुई है। कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफीश्यिल इंटेलीजेंस तो विज्ञान ने आविष्कृत कर ली है। लेकिन चेतना को पढ़ पाना अभी भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। चुनांचे चेतना को समझा या अनुभव अवश्य किया जा सकता है, लेकिन इसका रचा जाना लगभग असंभव है। भारतीय योगी-मनीषी इसका अभ्यास सदियों करते आए हैं। योग वशिष्ठ और पतंजलि योग में इस चेतना को अनुभव करने के अनेक उदाहरण हैं। बिहार के मुंगेर में स्थित दुनिया के पहले योग विवि में इस ऊर्जा के विविध आयामों का पढ़ने की कोशिश कुछ वर्षों से की जा रही है। इसमें दुनिया के पचास विद्यालयों और कण-भौतिकी (क्वांटम फिजिक्स) पर शोधरत अनेक वैज्ञानिक अपनी प्रज्ञा लगा रहे हैं। इसका विषय है, ‘टेलीपोर्टेशन ऑफ क्वांटम एनर्जी, अर्थात मानसिक कण-ऊर्जा का परिचालन व संप्रेषण। इस शोध केंद्र में भारतीय योग व ध्यान परंपरा के ‘नाद’ पर भी अनुसंधान हो रहा है। इसी नाद रूपी प्राण-ऊर्जा, यानी चेतना के मूल आधार तक पहुंचने का मार्ग खोजा जा रहा है। विवि के परमाचार्य स्वामी निरंजनानंद सरस्वती इस शोध की केंद्रीय भूमिका में हैं।
निरंजनानंद सरस्वती एक तरह से आधुनिक युग के वैज्ञानिक संत हैं। उन्होंने महत्वपूर्ण मंत्रों के मानसिक व बाह्य उच्चारण से उत्पन्न ऊर्जा को क्वांटम मशीन के जरिए मापने के उपाय किए हैं। दरअसल मानसिक संवाद, नाद, संवेदना और दूरानुभूति (टेलीपैथी) विद्याएं भारतीय योग विज्ञान का विषय रही हैं। इसीलिए मानसिक ऊर्जा के परिचालन और संप्रेषण को वैज्ञानिक आधार पर समझने का प्रयास हो रहा है। निरंजनानंद को उम्मीद है कि यदि यह आधार समझ आ जाता है तो कुछ सालों में एक ऐसा मोबाइल फोन अस्तित्व में आ सकता है, जिसमें नंबर डायल करने, बोलने और कान में लगाकर सुनने की जरूरत नहीं रह जाएगी। मानसिक सोच और ऊर्जा के जरिए ही तीनों कार्य संपन्न हो जाएंगे।
निरंजनानंद का मानना है कि जहां ऊर्जा है, वहां गति और कंपन हैं। कंपन ही ध्वनि का मूल स्रोत है। कुछ ध्वनियां हैं, जो कानों के रंध्रों से नीचे हैं, तो कुछ उनके ऊपर। ये कंपन भौतिक या प्राणवान शरीर तक ही सीमित नहीं रहते हैं, ये मन, भाव और प्रज्ञा-जगत में विद्यमान रहते हैं। अतएव जब हम चिंतन करते हैं तो मन के अंदर तरंगें उत्सर्जित होती हैं, जिन्हें कंपन और ध्वनियां उत्पन्न करती हैं। भारतीय योग विज्ञान में इसे नाद कहा है, अर्थात चेतना का प्रवाह ! विज्ञान भी मानता है कि संसार की सभी वस्तुएं स्पंदनीय ऊर्जा की ही सतत क्रियाएं हैं। चुनांचे हम यदि मानसिक-तरंग-प्रतिरूप को संयोजित, स्थापित और संप्रेषित करने की क्षमता हासिल कर लेते हैं तो चेतना को अभिव्यक्त करने में सफल हो सकते हैं। अपनी इन्हीं विज्ञान सम्मत संभावनाओं के चलते निरंजनानंद सरस्वती नासा के पांच सौ वैज्ञानिकों के समूह में शामिल हैं। ये लोग इस अध्ययन में जुटे हैं कि भविष्य में यदि दूसरे ग्रहों पर मनुष्य गया तो वह वहां मौजूद चुनौतियों से कैसे सामना कर सकता है। स्वामी निरंजनानंद को ऊर्जा और चेतना पर किए जा रहे इन विज्ञान सम्मत कार्यों के लिए 2017 में भारत सरकार ने पद्म-भूषण से अलंकृत भी किया है।
संस्कृत ग्रंथों में देवी दुर्गा के शक्ति रूपों का मिथकों व प्रतीकों में उल्लेख वास्तव में ब्रह्मण्डीय जैव व्यवस्था का प्रस्तुतीकरण हैं। जिसमें घटनाएं, स्थितियां और स्थापनाएं समूची वैश्विक व्यवस्था को आकार देती हुईं आगे बढ़ती, जीवन-चक्र के समस्त बदलावों और विकास प्रक्रिया को रेखांकित करती हैं। मार्कण्डेय-पुराण में प्रकाश और ऊर्जा के सार तत्व के बारे में उल्लेख है कि ‘देवों ने अपने समक्ष एक प्रकाश-पुंज देखा, जो एक विराट पर्वत के समान आलोकित हो रहा था। उसकी ज्वाला से पूरा आकाश दीप्त हो उठा। फिर वहां से लपटें एक पिंड में परिवर्तित होने लगीं। इस पिंड से ऊर्जामयी प्रकाश जन्मा, जो एक स्त्री-रूप में परिणत हो गया। इस काया से प्रस्फुटित हो रही कांति ने तीनों लोकों को दीप्तीमान कर दिया। प्रकृति के इस चमत्कार की सभी दिव्य शक्तियां साक्षी थीं। इन शक्तियों ने स्वर्ग, पृथ्वी और समुद्र पर अनादि-अनंत ऊर्जा के सृजन के लिए अपने तत्वों के श्रेष्ठतम भाग दिए और आकाश पर आदि मां, यानी जगत-जननी प्रगट हो गईं। आज जितने भी थल, जल और नभचरों का अस्तित्व है, यह इसी ऊर्जामयी मां का सृजन है। इसे ही महामाया, अंबिका महादेवी और महासुरी भी कहा गया है। इसे अंबिका इसलिए कहा गया, क्योंकि जीवनदायी मां का एक नाम ‘अंबिका’ भी है। देवों की भी यह मां है, इसलिए इसे ‘महादेवी’ और असुर भी इसी ऊर्जा से जन्में, इसलिए ‘महासुरी’ कहा गया।
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दरअसल ऊर्जा या प्रकृति के जो भी जीवनदायी तत्व हैं, वे ऊर्जा के अक्षय स्रोत हैं, उनका पूर्ण रूप में क्षरण कभी नहीं होता है, लेकिन विघटन होता है। इसलिए विघटित शक्ति को आसुरी और अक्षय अर्थात केंद्रीय शक्ति को दैवीय कहा है। इसी ऊर्जा से पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य का निर्माण हो रहा है। एक ही पदार्थ से एक के बाद एक वस्तुएं रूपांतरित होकर नया आकार लेती रहती हैं। इन सभी अस्तित्वों में चेतना अंतर्निहित है। लेकिन चेतना का आकार अत्यंत सूक्ष्म है। चेतना के इस पहलू को भारतीय मनीषियों ने बहुत पहले जान लिया था, अब इसे ही दुनिया के आधुनिक वैज्ञानिक जानने में अपनी प्रज्ञा लगा रहे हैं।
प्रमोद भार्गव
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