– कुलभूषण उपमन्यु
समग्र हिमालय की तरह हिमाचल प्रदेश भी जलवायु परिवर्तन के इस दौर में लगातार आपदाओं की चपेट में आता जा रहा है। गत वर्ष की तबाही को अभी तक प्रदेश भूल नहीं पाया है। आपदा प्रभावितों के जख्मों पर अभी तक भी पूरी तरह से मरहम नहीं लगाया जा सका है। प्रदेश की कमजोर आर्थिकी और केंद्रीय सहायता के इंतजार में बहुत काम लटका पड़ा है। खासकर जिनके मकानों के नीचे की जमीन भी क्षतिग्रस्त हो गई है, उन्हें वन संरक्षण अधिनियम के चलते वैकल्पिक जमीन देना भी असंभव बना हुआ है। हिमाचल प्रदेश का 67 प्रतिशत भूभाग वन भूमि है, जिसका भूमि उपयोग बदलना टेढ़ी खीर बना हुआ है। गत वर्ष दो हजार घर पूरी तरह से तबाह हो गए थे और नौ हजार आंशिक रूप से तबाह हुए। 400 से अधिक मूल्यवान जीवनकाल का ग्रास बन गए थे। बाढ़ और भू-स्खलन का यह दौर चाहे जलवायु परिवर्तन के चलते भयंकर स्थिति में पहुंच गया हो या अवैज्ञानिक निर्माण कार्यों के कारण, दोनों ही मामलों में ये आपदाएं मानव निर्मित ज्यादा हैं और प्राकृतिक कम।
हालांकि, हम इन्हें प्राकृतिक आपदाएं कह कर अपनी गलतियों को छुपाने की कोशिश करते रहते हैं। बाढ़ और भू-स्खलन प्राकृतिक तौर पर भी आते रहते हैं, किंतु मानव निर्मित कारणों से ये घटनाएं भयानक बन जाती हैं। जलवायु परिवर्तन भी तो मानव निर्मित आपदा ही है। पिछले डेढ़-दो सौ वर्षों की औद्योगिक क्रांति के बाद के वर्षों में वायुमंडल में हरित प्रभाव पैदा करने वाली कार्बन डाई ऑक्साइड और मीथेन जैसी गैसों के उत्सर्जन के कारण ही तो वैश्विक तापमान में वृद्धि हुई है, जो जलवायु परिवर्तन द्वारा अतिवृष्टि, अनावृष्टि और ग्लेशियरों के पिघलने का कारण बन रही है।
ग्लेशियर पिघलने के कारण हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियर के भाग टूट कर और कुछ मलबा मिश्रण घाटियों में फंस कर कृत्रिम झीलों का निर्माण करता है। ये झीलें अचानक टूट जाती हैं और नीचे भयानक बाढ़ की विभीषिका का मंजर पेश होता है। 90 के दशक में पारछू नदी के उद्गम के नीचे बनी झील के टूटने से सतलुज नदी में आई भयानक बाढ़ ने बड़ी तबाही मचाई थी। पिछले साल हुई तबाही में कई जगह बादल फटने की घटनाएं भी कारण बनीं। जब 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या इससे अधिक बारिश हो जाए, तो उसे बादल फटना कहा जाता है। ये बादल फटने की घटनाएं भी वैश्विक तापमान वृद्धि के कारण ही बढ़ी हैं।
अब जलवायु परिवर्तन एक सच्चाई बन चुका है। इसलिए हमें हिमालय में निर्माण कार्य इस खतरे को ध्यान में रख कर ही उचित सावधानी से करने चाहिए, क्योंकि हिमालय पर दोहरा खतरा है। एक तो जलवायु परिवर्तन के कारण अतिवृष्टि और ग्लेशियर पिघलने के कारण आने वाली बाढ़ों का खतरा बढ़ जाता है। दूसरे, हिमालय एक कम उम्र का पहाड़ है, जो अभी तक भी बन रहा है। इस कारण कमजोर और भुरभुरा है। भारी बारिश की मार न सह सकने के कारण भू-स्खलन का शिकार हो जाता है। ऐसे नाजुक भू-स्थल को जब अंधाधुंध तोड़फोड़ का शिकार बनाया जाता है, तो भू-स्खलन की तबाही आ जाती है। जब ये भू-स्खलन का मलबा नदी नालों में पंहुचता है, तो उनका तल ऊपर उठ जाता है, जिससे पानी और बाढ़ का बहाव अप्रत्याशित रूप से ऊपर तक तबाही मचा देता है। इस दृष्टि से जल विद्युत् के लिए बांध, सुरंगें, चौड़ी सडकें बनाने के लिए निकला मलबा ढलानों पर फेंके जाने से तबाही को बढ़ाने का कार्य करता है। इन निर्माण कार्यों के लिए भारी मात्रा में वृक्ष कटान भी होता है, जो कमजोर भू-स्थल को और कमजोर कर देता है। खनन कार्य भी इसी तरह तबाही का कारण बनता है।
ये सभी कार्य एक ओर तो प्रकृति विध्वंस का कारण बनते हैं और दूसरी ओर सरकारी और इन निर्माण और खनन से जुड़े लोगों के लिए आय का साधन होते हैं। विकास के लिए इनका होना जरूरी माना जाता है। इस तरह जो स्थानीय जनता इस तबाही से त्रस्त होती है, वह इनका विरोध करती है और जो इससे लाभान्वित होते हैं, वे इसके पक्ष में खड़े होते हैं, जिससे समाज में आपसी टकराव भी हो जाते हैं। जैसे टिहरी बांध निर्माण के समय बांध विरोधी और बांध समर्थक दो हिस्सों में उस प्रभावित क्षेत्र की जनता बंट गई थी, जो विस्थापित हो जाते हैं, उनकी त्रसदी तो अनंत होती है और कुछ पीढ़ियों तक विस्थापन का दंश उनको झेलना पड़ता है। इस द्वंद्व में हिमालय क्षेत्र फंसा हुआ है। एक तरफ गड्ढा और एक तरफ खाई वाली स्थिति है, जिससे निकलना देश और हिमालय के स्थानीय हित के लिए जरूरी है।
हिमालय देश के लिए पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ मिटटी दे कर जिंदा रहने के लिए सबसे जरूरी हवा, पानी और भोजन की सुरक्षा की व्यवस्था करता है। हिमालय की इन पर्यावरणीय सेवाओं को बनाए रखकर ही देश और हिमालय क्षेत्र के भविष्य को सुरक्षित किया जा सकता है। इसलिए हिमालय के पर्यावरणीय तंत्र को सुरक्षित रखना और विकास के कार्यों में आपसी विरोधाभास समाप्त करना ही मुक्ति का मार्ग है। हमारी निर्माण गतिविधियों को वैकल्पिक तकनीकों द्वारा पर्वत विशिष्ट मॉडल के रूप में विकसित करना होगा। सड़क निर्माण से लेकर जल विद्युत तक। उदाहरण के लिए सड़क निर्माण कट एंड फिल तकनीक से करके डंपिंग से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। हालांकि, पर्यटन भी ऐसे क्षेत्र के रूप में उभर रहा है, जो स्थानीय आजीविका के लिए जरूरी आधार बनता जा रहा है, किंतु इसके कारण भी पहाड़ी ढलानों पर बढ़ते बोझ और कचरा प्रदूषण के चलते इसका भी नियमन किया जाना चाहिए।
इस व्यवसाय से जुड़े कुछ संवेदनशील लोग उत्तरदायी पर्यटन की अवधारणा के विकास और लागू करने की बात कर रहे हैं। इससे पर्यावरण की सुरक्षा के साथ-साथ पर्यटन व्यवसाय का टिकाऊपन भी सुनिश्चित हो सकेगा। मंडी और कुल्लू जिलों में कुछ समूह इस दिशा में कार्यरत हैं। इन सावधानियों के साथ विकास को देखना आपदाओं को कम करने में मददगार होगा। फिर भी कुछ आपदाओं की संभावना तो बनी ही रहेगी, जिसके लिए आपदा प्रबंधन व्यवस्था को चाक-चौबंद करना होगा। एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के रूप में अच्छा कार्य हो रहा है, किंतु तत्काल राहत के लिए स्थानीय समुदायों, स्वयंसेवी संस्थाओं, महिला मंडलों, युवा मंडलों, पंचायतों को जागरूक करना और प्रशिक्षित करना होगा, ताकि जब तक प्रशिक्षित संगठन आपदा ग्रस्त स्थान पर पहुंचे तब तक तात्कालिक सहायता उपलब्ध हो सके।
(लेखक, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के जानकार हैं।)
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