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    राष्ट्रवाद की चेतना भरने वाले दिनकर राष्ट्रकवि ही नहीं तेज-पुंज कुंभ थे

  • April 24, 2022

    – सुरेन्द्र किशोरी

    24 अप्रैल 1974 की वह मनहूस शाम न केवल गंगा की गोद में उत्पन्न दिनकर के अस्ताचल जाने की शाम थी, बल्कि हिंदी साहित्य के लिए भी मनहूस साबित हुई। उस रात भारतीय साहित्य के सूर्य राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर सदा के लिए इस नश्वर शरीर को त्याग कर स्वर्ग लोक की ओर चले गए थे। उस समय संचार के इतने साधन तो थे नहीं, धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला कि तिरुपति बालाजी के दर्शन करने के बाद दिनकर जी ने इस शरीर को हमेशा के लिए त्याग दिया, दिनकर अब नहीं रहे, सहसा किसी को विश्वास नहीं हुआ कि ओजस्वी वाणी और भव्य स्वरूप का सम्मिश्रण भारतीय हिंदी साहित्य के तेज पुंज अब हमारे बीच नहीं रहे। लेकिन यह सत्य था, देश ही नहीं विदेशों के भी साहित्य जगत में शोक की लहर फैल गई। मद्रास से लेकर दिल्ली तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के साहित्य जगत और हिन्दी पट्टी में शोक की लहर फैल गई।

    गृह जनपद बेगूसराय का हर घर रो उठा, तो वहीं इंदिरा गांधी भी सदमे में आ गई थी। इंदिरा गांधी ने कहा था दिनकर जी के निधन से देश ने एक प्रतिभाशाली सृजनशील लेखक को खो दिया। जो हमारी जनता की धरोहर और आकांक्षाओं के प्रतीक थे। दिनकर हमारी संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ गए हैं, उन्हें उनकी रचनाओं के माध्यम से याद किया जाएगा। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा था दिनकर जी अब नहीं रहे, विश्वास करने को जी नहीं चाहता पर यही सत्य है। वह सही अर्थों में दिनकर थे तेज पुंज, भगवान ने उन्हें जैसी वाणी की संपत्ति दी थी, वैसा ही चारुदर्शन भव्य रूप दिया था, वह ओजस्वी वाणी और भव्य रूप इस नश्वर जगत से हमेशा के लिए चला गया।

    2018 में सिमरिया में गंगा तट पर आयोजित साहित्य महाकुंभ में रामकथा वाचक मोरारी बापू ने कहा था देशवासियों के रग- रग में राष्ट्रवाद की चेतना भरने वाले रामधारी सिंह दिनकर राष्ट्रकवि ही नहीं, अपने आप में एक कुंभ थे। उनकी कविता में मार्क्सवाद और साम्यवाद का मिश्रण झलकता था, उनकी कविता में गांधीजी भी दिखते थे। संस्कृति के चार अध्याय ने दुनिया को एक अद्भुत ग्रंथ दिया। रश्मिरथी, उर्वशी साहित्य के रूप में ऐसे विचार हैं, जिनकी हर समय चर्चा होनी चाहिए। तभी तो हम भी उनकी प्रेरणा से साहित्य महाकुंभ और रामकथा कर रहे हैं। दिनकर के विचार बहुत ही प्रासंगिक हैं, जिसे पढ़कर चरितार्थ ही नहीं विचार का भी बीज बोया जा सकता है।

    प्रत्येक कवि, लेखक, चित्रकार के जीवन के अंतिम दिन अत्यंत ही आश्चर्यजनक और लोमहर्षक होते हैं। ऐसा ही दिनकर जी के साथ भी हुआ, तिरुपति बालाजी का दर्शन करने गए उन्हें जब वहीं दिल का दौरा पड़ा तो मद्रास तक रास्ते में हे राम-मेरे राम को याद करते रहे। बालाजी के सामने उन्होंने प्रार्थना की थी- हे भगवान तुमसे तो उऋण हो गया, अब मेरी उम्र आप जयप्रकाश नारायण को दे दो। अपने मृत्यु के दिन ही दिनकर जी ने हरिवंश राय बच्चन को भी एक पत्र लिखा था। जिसमें उन्होंने कहा था ”लॉजिक गलत, पुरुषार्थ झूठा, केवल राम की इच्छा ठीक।”

    समय की आने वाली पदचाप का स्पष्ट आभास रखने वाले राष्ट्रकवि दिनकर की कविताओं में भाषा और भावों के ओज का अद्भुत संयोजन था। वह न तो उनके समकालीनों में था और न ही बाद की हिंदी कविता में देखने को मिलता है। अपनी कविता से राष्ट्र प्रेमियों को प्रेरणा देकर, उनके दिल और दिमाग को उद्वेलित कर झंकृत करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म मिथिला के पावन भूमि सिमरिया में हुआ था।

    तत्कालीन मुंगेर (अब बेगूसराय) जिले की सुरसरि तटवर्तिनी सिमरिया के एक अत्यंत ही सामान्य किसान के घर में 23 सितंबर 2008 को जब अचानक सोहर के रस भरे छंद गूंजने लगे तब किसे पता था कि मनरूप देवी एवं रवि सिंह का यह द्वितीय पुत्र कभी राष्ट्रीय फलक पर ध्रुवतारा-सा चमकेगा। पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज पटना से 1932 में इतिहास से प्रतिष्ठा की डिग्री हासिल कर 1933 में बरबीघा उच्च विद्यालय के प्रधानाध्यापक पद पर तैनात हुए। अगले साल ही उन्हें निबंधन विभाग के अवर निबंधक के रूप में नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान कविता का शौक जोर पकड़ चुका था, दिनकर उपनाम को ”हिमालय” और ”नई दिल्ली” से ख्याति भी मिलने लगी। लेकिन इस ख्याति का पुरस्कार मिला कि पांच साल की नौकरी में 22 बार तबादला हुआ।

    दिनकर ब्रिटिश शासन काल में सरकारी नौकर थे, लेकिन नौकरी उनकी स्वतंत्र अभिव्यक्ति में कभी बाधक नहीं बनी। वह उस समय भी अन्याय के विरुद्ध बोलने की शक्ति रखते थे और बाद में स्वाधीनता के समय भी सरकारी नौकरी करते समय हमेशा अनुचित बातों का डटकर विरोध करते रहे। 1943 से 1945 तक संगीत प्रचार अधिकारी तथा 1947 से 1950 तक बिहार सरकार के जनसंपर्क विभाग में निदेशक के पद पर कार्यरत रहे। संविधान सभा बनने के बाद जब संविधान सभा का प्रथम निर्वाचन हुआ तो दिनकर जी को तेजस्वी वाणी, प्रेरक कविता एवं राष्ट्र प्रेरक कविता की धारणा के कारण कांग्रेस द्वारा राज्यसभा सदस्य मनोनीत कर दिया गया। पहली बार 1952 से 58 तथा 1958 में फिर राज्यसभा सदस्य बनाए गए, लेकिन ललित नारायण मिश्र के अनुरोध पर उन्होंने 1963 में इस्तीफा दे दिया। 1963 से 1965 तक बेमन से ही सही लेकिन भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति रहे तथा 1965 से 1972 तक भारत सरकार के हिंदी विभाग में सलाहकार का दायित्व निर्वहन करना पड़ा।

    राष्ट्रकवि दिनकर की कविता की सबसे बड़ी विशेषता थी कि वह महाभारत के संजय की तरह दिव्यदृष्टि से प्रत्यक्षदर्शी के रूप में वेदना, संवेदना एवं अनुभूति के साक्षी बनकर काव्यात्मक लेखनी को कागजों पर मर्मस्पर्शी तरीके से उतारा करते थे। राष्ट्रकवि दिनकर की साहित्य रचना का प्रारंभ विजय संदेश से हुआ था, उसके बाद प्रणभंग तथा सबसे अंतिम कविता संग्रह 1971 में हारे को हरि नाम। कविता के धरातल पर बाल्मीकि, कालिदास, कबीर, इकबाल और नजरुल इस्लाम की गहरी प्रेरणा से राष्ट्र भक्त कवि बने। उन्हें राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रांति के नेता सभी ने माना। रेणुका, हुंकार, सामधेनी आदि कविता स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ा ही प्रेरक प्रेरक सिद्ध हुआ था। कोमल भावना की जो धरा रेणुका में प्रकट हुई थी, रसवंती में उन्हें सुविकसित उर्वशी के रूप में भुवन मोहिनी सिद्धि हुई।

    कहा जाता है कि दिनकर की उर्वशी हिंदी साहित्य का गौरव ग्रंथ है, धूप छांव, बापू, नील कुसुम, रश्मिरथी का भी जोर नहीं। राष्ट्रप्रेम एवं राष्ट्रीय भावना का ज्वलंत स्वरूप परशुराम की प्रतीक्षा में युद्ध और शांति का द्वंद कुरुक्षेत्र में व्यक्त हो गया। संस्कृति के चार अध्याय जैसे विशाल ग्रंथ में भारतीय संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम दर्शाया। जो उनकी विलक्षण प्रतिभाओं का सजीव प्रमाण है।

    संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखकर अपने को गौरवान्वित महसूस किया था। 1972 के ज्ञानपीठ पुरस्कार सम्मान समारोह में उन्होंने कहा था कि ”मैं जीवन भर गांधी और मार्क्स के बीच झटके खाता रहा हूं। इसलिए उजाले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनता है, वही रंग मेरी कविता का है”। यानी निश्चित रूप से वह बनने वाला रंग है केसरिया। दिनकर सच्चे अर्थों में मां सरस्वती के उपासक और वरदपुत्र थे।

    उन्होंने उर्वशी में कहा है ”मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं, उर्वशी अपने समय का सूर्य हूं मैं”।दिनकर ने रुढ़िवादी जाति व्यवस्था पर प्रहार करते हुए अपने खंड-काव्य परशुराम की प्रतीक्षा में लिखा है ”घातक है, जो देवता-सदृश दिखता है, लेकिन कमरे में गलत हुक्म लिखता है, जिस पापी को गुण नहीं-गोत्र प्यारा है, समझो, उसने ही हमें यहां मारा है।” दिनकर की प्रासंगिकता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष उनका साम्राज्यवाद विरोध है। हिमालय में लिखते हैं ”रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्गधीर, पर फिरा हमें गांडीव गदा, लौटा दे अर्जुन भीम वीर”। क्योंकि दिनकर को शांति का समर्थक अर्जुन चाहिए था। रेणुका में लिखते हैं ”श्रृण शोधन के लिए दूध बेच बेच धन जोड़ेंगे, बूंद बूंद बेचेंगे अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे, शिशु मचलेंगे, दूध देख जननी उनको बहलाएगी”। हाहाकार के शीर्षक में ही है ”हटो व्योम के मेघ पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं, दूध-दूध वो वत्स तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं”। परशुराम की प्रतीक्षा का एनार्की 1962 के चीनी आक्रमण के बाद की भारतीय लोकतंत्र वास्तविकता को उजागर करते हुए कहती है ”दोस्ती ही है देख के डरो नहीं, कम्युनिस्ट कहते हैं चीन से लड़ो नहीं, चिंतन में सोशलिस्ट गर्क है, कम्युनिस्ट और कांग्रेस में क्या फर्क है, दीनदयाल की जनसंघी शुद्ध हैं, इसलिए आज भगवान महावीर बड़े क्रुद्ध हैं”।

    आजादी की वर्षगांठ पर भी 1950 में दिनकर जी ने राजनीति के दोमुंहेपन, जनविरोधी चेतना और भ्रष्टाचार की पोल खोल दिया था ”नेता का अब नाम नहीं ले, अंधेपन से काम नहीं ले, मंदिर का देवता, चोरबाजारी में पकड़ा जाता है”। रश्मिरथी से समाज को ललकारा है ”जाति जाति रटते वे ही, जिनकी पूंजी केवल पाखंड है। कुरुक्षेत्र में समतामूलक समाज के उपासक के रूप में लिखते हैं ”न्याय नहीं तब तक जबतक, सुख भाग न नर का समहो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।”

    दिनकर जी की रचनाओं के अनुवाद विभिन्न भारतीय भाषाओं में तो व्यापक रूप से आए ही हैं। विदेशी भाषाओं में भी उनके अनुवाद हुए हैं। एक कविता संग्रह रूसी भाषा में अनुदित होकर मास्को से प्रकाशित हुआ तो दूसरा स्पेनी भाषा में दक्षिण अमेरिका के चाइल्ड में। कुरुक्षेत्र का तो कई अनुवाद कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होता रहा।

    दिनकर आजीवन संघर्षरत रहे, साहित्य और राजनीति दोनों के बीच उनका मन रमता था। ज्ञानपीठ पुरस्कार दिनकर जी के जीवन में एक नई आशा का संचार लाया। लेकिन 24 अप्रैल 1974 की शाम गंगा की गोद में उत्पन्न सूर्य रुपी दिनकर अस्ताचल चले गए। राष्ट्रकवि दिनकर जी की जन्मभूमि को नमन करने के लिए आने वाले देश भर के कवि और साहित्यकार आज भी कहते हैं हमारे देश का हर युग, युवा पीढ़ी राष्ट्रकवि को सदा श्रद्धा एवं सम्मान सहित याद करती रहेगी।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)

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