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धोनी क्या राजनीति में शामिल होंगे?

August 17, 2020

– अंबिकानंद सहाय

“कुछ महान पैदा होते हैं, कुछ महानता अर्जित करते हैं और कुछ पर महानता थोपी जाती है।”
आपको यह जानने के लिए किसी रिसर्च की ज़रूरत नहीं है कि महेंद्र सिंह धोनी शेक्सपियर की इस कहावत की दूसरी श्रेणी में आते हैं। उन्होंने धैर्य, दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत के दम पर महानता हासिल की और वे हर तरह से उन तारीफों के काबिल हैं, जो उन्हें अब मिल रही हैं। हम मानें या न मानें, इस स्वतंत्रता दिवस पर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद देश में सर्वाधिक चर्चा में रहे दूसरे व्यक्ति बन गए! लगभग शाम 7.29 बजे से सभी समाचार-टीवी चैनल, ऑनलाइन पोर्टल और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट से धोनी की सेवानिवृत्ति के समाचार में डूबे हुए थे। सभी ओर से प्रशंसाओं और शुभकामनाओं के आने का दौर रविवार को भी जारी रहा…मैदान के बाहर भी क्या उपलब्धि है!

हम सभी जानते हैं कि धोनी या कहें तो माही, चांदी के चम्मच के साथ पैदा नहीं हुए। वह रांची में अपने माता-पिता, भाई और बहन के साथ दो कमरे के एक मकान में रहते थे, जहाँ खेल की सुविधाएँ बहुत अच्छी नहीं थीं। अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने लगभग दो वर्षों तक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में भारतीय रेलवे में टिकट-कलेक्टर की नौकरी की। उन दिनों उनके पास केवल एक विकल्प था: सभी बाधाओं को पार करते हुए और हर परिस्थिति में पसीना बहाना, संघर्ष करना और क्रिकेट खेलना। और यह मत भूलिए कि उन दिनों केवल महानगरीय केंद्रों के क्रिकेटर ही राष्ट्रीय परिदृश्य में कुछ बड़ा कर पाते थे।

भगवान उन्हीं की मदद करते हैं, जो खुद अपनी मदद करते हैं। प्राथमिक जुनून के चलते, उन्होंने अपना पूरा ध्यान क्रिकेट पर ही रखा। उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे और आखिरकार जीत हासिल की। उन्हें पहली सफलता तब मिली जब 2003-2004 के सीज़न में उन्हें भारत-ए टीम के लिए चुना गया। उस दौरे में उन्होंने एक के बाद एक शतक जड़े और तत्कालीन राष्ट्रीय कप्तान सौरभ गांगुली का ध्यान आकर्षित किया। इसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। धोनी को अगले ही सत्र में भारतीय वनडे टीम के लिए चुन लिया गया। मुश्किल हालातों में श्रीलंका के खिलाफ 145 गेंदों में 183 रनों की पारी खेलने के लिए उन्हें “सर्वश्रेष्ठ फिनिशर” का सम्मान मिला। 20 अप्रैल, 2006 तक, उन्होंने रिकी पोंटिंग को पछाड़कर दुनिया के नंबर वन एकदिवसीय बल्लेबाज के रूप में प्रतिस्थापित किया।

इसके बाद भारत का क्रिकेट इतिहास धोनी युग के नाम से जाना जाता है। कैप्टन कूल के नेतृत्व में, भारत ने तीनों प्रमुख ICC खिताब -2007 में टी-ट्वेंटी विश्वकप ट्रॉफी, 2011 में एकदिवसीय विश्वकप ट्रॉफी और 2013 में चैंपियंस ट्रॉफी जीते। यदि हम एक वाक्य में धोनी के 15 साल के लंबे करियर के दौरान उनके अविश्वसनीय कारनामों को संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहें तो यही कह सकते हैं-वह आये, खेले और जीत हासिल की। उन्होंने अपने चौकों-छक्कों, शानदार स्टंपिंग और विकेट के बीच उसैन बोल्ट जैसी रफ़्तार के साथ दौड़कर दुनिया के लगभग सभी क्रिकेट स्टेडियमों में तारीफें बटोरीं। इसके अलावा, उन्होंने सैकड़ों शानदार कैच लेकर क्रिकेट कमेंटेटरों और दर्शकों को रोमांचित किया।

अबतक जो हुआ सब बढ़िया था, लेकिन आगे क्या? क्या वह राजनीति में शामिल होंगे? सही जवाब तो कोई नहीं जानता क्योंकि आप धोनी के निर्णयों का अनुमान नहीं लगा सकते। न तो क्रिकेट में और न ही जीवन में। पाकिस्तान के मिस्बाह-उल-हक 2007 के टी-ट्वेंटी विश्वकप में उनके मन की बात पढ़ने में नाकाम रहे थे। ऐसा ही कुछ 2011 के वनडे विश्वकप के फाइनल में श्रीलंका के नुवान कुलसेकरा के साथ हुआ था। हो सकता है कि आप धोनी को सालों से जानते हों लेकिन फिर भी ज़रूरी नहीं कि आपको उनके दिमाग में चल रही बातों के बारे में कुछ पता हो।

धोनी भी एक पहेली की तरह हैं- जिसे आप तभी हल कर सकते हैं जब वे इसकी अनुमति दें। भाजपा के सुब्रमण्यम स्वामी ने अपने ट्विटर हैंडल पर एक विचार साझा किया है- “एम.एस. धोनी क्रिकेट से संन्यास ले रहे हैं, किसी और चीज से नहीं। उनकी प्रतिभा बाधाओं के खिलाफ लड़ने में सक्षम होना और क्रिकेट में उन्होंने जिसका प्रदर्शन किया, उस प्रेरक नेतृत्व की आवश्यकता सार्वजनिक जीवन में भी है। उन्हें 2024 में लोकसभा आम चुनाव लड़ना चाहिए।” लेकिन शायद जो बात और भी अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह कि 2019 के लोकसभा चुनाव के “संपर्क फॉर समर्थन” अभियान के लिए अमित शाह ने धोनी से मिलना ज़रूरी समझा था। धोनी के संन्यास के बाद कल शाह ने ट्वीट किया था- “मैं दुनिया भर के लाखों फैंस की तरह @msdhoni को भारतीय क्रिकेट में उनके अद्वितीय योगदान के लिए धन्यवाद देता हूं। उनके शांत स्वभाव ने कई मैच को भारत के पक्ष में मोड़ा। उनकी कप्तानी में, भारत ने विभिन्न प्रारूपों में दो बार विश्व चैंपियंस का ताज पहना।”

हालाँकि हमें भी निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। हमें भी कैप्टन कूल की तरह कूल रहना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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