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दुनियाभर में प्रसिद्ध होने के बावजूद आखिर क्यों होता है ओलम्पिक खेलों का विरोध?

July 20, 2021

– योगेश कुमार गोयल

ओलम्पिक खेल दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित खेल स्पर्धा है, जिसमें विश्वभर से अनेक देशों के खिलाड़ी विभिन्न खेलों में हिस्सा लेते हैं। ओलम्पिक खेलों में पदक जीतना किसी भी देश के लिए बहुत गौरवशाली क्षण होता है। वास्तव में ओलम्पिक खेल दुनिया की सबसे बड़ी खेल प्रतियोगिता है, जिसमें दो सौ से ज्यादा देश हिस्सा लेते हैं। वैसे अंतर्राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) की स्थापना का श्रेय जाता है फ्रांस के पियरे द कुबर्तिन को, जिनके अथक प्रयासों से 23 जून 1894 को आईओसी की स्थापना के बाद 1896 से आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन शुरू हुआ था। तभी से ओलम्पिक खेल हर चार वर्ष के अंतराल पर आयोजित किए जा रहे हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण कुल तीन बार ओलम्पिक खेलों का आयोजन रद्द किया गया था और पिछले साल भी कोरोना महामारी के प्रकोप के कारण ओलम्पिक खेल रद्द करने पड़े हैं, जिनका शुभारंभ अब टोक्यो में 23 जुलाई से होने जा रहा है और इनका समापन 8 अगस्त को होगा।

ओलम्पिक खेलों के संबंध में सबसे रोचक तथ्य यह है कि भले ही ये खेल दुनियाभर में प्रसिद्ध हैं लेकिन इनके आयोजन को लेकर विरोध प्रदर्शन भी होते रहे हैं। इस साल भी टोक्यो में होने वाले ओलम्पिक खेलों का दुनियाभर में कई जगहों पर प्रबल विरोध हो रहा है। दरअसल कई देश अभी भी कोरोना महामारी से जंग लड़ने में व्यस्त हैं, इसीलिए इन खेलों के आयोजन का विरोध कर रहे हैं। 2008 में बीजिंग में हुए 29वें ओलम्पिक खेलों के अवसर पर तो पहली बार ऐसा देखा गया था, जब मशाल प्रज्ज्वलन के दौरान ही किसी प्रकार का राजनीतिक अथवा कूटनीतिक विरोध प्रदर्शन हुआ हो।

हालांकि उससे पूर्व भी समय-समय पर ओलम्पिक खेलों के दौरान विरोध प्रदर्शन होते रहे हैं मगर मशाल प्रज्ज्वलन के दौरान राजनीतिक अथवा कूटनीतिक प्रदर्शनों का संभवतः वह पहला अवसर था। इन खेलों के विरोध का सिलसिला वास्तव में सन् 1936 से शुरू हुआ था, जब जर्मनी में तानाशाह हिटलर द्वारा अपने शासनकाल में अपना विरोध करने वाले लाखों यहूदियों का कत्लेआम किए जाने के विरोध स्वरूप बर्लिन में आयोजित ओलम्पिक खेलों का दर्जनों यहूदी खिलाड़ियों ने बहिष्कार किया था। उसके बाद ब्रिटेन से स्वतंत्रता की मांग को लेकर आयरलैंड ने 1948 में लंदन में आयोजित ओलम्पिक खेलों का बहिष्कार किया। उसी ओलम्पिक में उद्घाटन समारोह के दौरान अमेरिकी टीम ने किंग एडवर्ड सप्तम को अपना ध्वज देने से इन्कार कर दिया था। 1952 के अगले हेलसिंकी आलेम्पिक में सोवियत खिलाड़ियों ने खेल स्पर्द्धाओं में तो हिस्सा लिया था पर उद्घाटन समारोह का बहिष्कार किया था। हंगरी में सोवियत संघ के दमन के विरोध में हॉलैंड, स्पेन, स्विट्जरलैंड इत्यादि कुछ यूरोपीय देशों ने उस ओलम्पिक का बहिष्कार किया था।

स्वेज नहर विवाद के चलते मिस्र, इराक, लेबनान इत्यादि मध्य-पूर्व के कुछ देशों ने 1956 में आयोजित मेलबर्न ओलम्पिक का बहिष्कार किया था। 1964 के टोक्यो ओलम्पिक में जहां दक्षिण अफ्रीका को उसकी नस्लभेदी नीतियों के कारण ओलम्पिक खेलों में भाग लेने की अनुमति नहीं दी गई, वहीं कुछ विवादों के चलते इण्डोनेशिया तथा उत्तर कोरिया ने इस ओलम्पिक का बहिष्कार किया था। 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक पर खून के छींटे भी पड़े, जब इन खेलों से चंद दिनों पहले ओलम्पिक खेलों का विरोध कर रहे छात्रों पर मैक्सिको की सेना ने बर्बरतापूर्वक गोलियां चलाकर सैंकड़ों छात्रों को भून डाला था। 1972 का म्यूनिख ओलम्पिक भी खून से सना रहा, जब फिलिस्तीन समर्थक ‘ब्लैक सैपटेंबर’ के कार्यकर्ताओं ने अचानक खेलगांव पर धावा बोलकर करीब दर्जन भर इजरायली खिलाड़ियों की हत्या कर दी थी।

ओलम्पिक खेलों के बहिष्कार की सबसे बड़ी घटना घटी थी 1980 के मॉस्को ओलम्पिक में, जब अफगानिस्तान में सोवियत आक्रमण के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व में दो-चार नहीं बल्कि पूरे 62 देशों ने मास्को ओलम्पिक का बहिष्कार किया था और 1984 में रूस तथा पूर्वी ब्लॉक ने लॉस एंजिल्स में आयोजित अगले ओलम्पिक का बहिष्कार कर अमेरिका को उसी की भाषा में जवाब देने का प्रयास किया था। 2008 में बीजिंग में हुए ओलम्पिक खेलों के लिए ओलम्पिया में ओलम्पिक मशाल के प्रज्ज्वलन के दौरान ही जबरदस्त विरोध प्रदर्शन देखे गए और उसके बाद मशाल जिन-जिन देशों से गुजरती गई, तिब्बत में चीनी दमन चक्र के खिलाफ हर जगह ऐसे विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला चलता रहा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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