– रमेश सर्राफ धमोरा
कभी देश पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी मौजूदा समय में अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कांग्रेस राह भटक गई हो। कांग्रेस पार्टी में नेतृत्व का गंभीर संकट है। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद पिछले एक साल से सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम कर रही हैं। सोनिया गांधी का कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में एक साल का कार्यकाल भी 10 अगस्त को पूरा हो चुका है। लेकिन अभीतक कांग्रेस पार्टी में नए अध्यक्ष का चुनाव करवाने की प्रक्रिया प्रारंभ नहीं हो पाई है।
कांग्रेस पार्टी में जबतक नया राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं चुना जाएगा तबतक पार्टी में नेतृत्व का संकट रहेगा। सोनिया गांधी पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष तो हैं मगर उम्र के हिसाब से वह अधिक भागदौड़ में सक्षम नहीं हैं। ऊपर से प्रदेशों में लगातार नेतृत्व का संकट पैदा हो रहा है। कहने को तो कांग्रेस में हर काम आलाकमान की सहमति से किया जाता है मगर आलाकमान में कौन-कौन नेता शामिल हैं, इसकी किसी को जानकारी नहीं है। पहले कांग्रेस कार्यसमिति सबसे प्रभावशाली व महत्वपूर्ण होती थी। कार्यसमिति में लिया गया निर्णय अंतिम होता था। मगर मौजूदा समय में कांग्रेस कार्यसमिति की भूमिका सीमित हो गई है। कार्यसमिति में ऐसे नेताओं की बहुलता है जिनको चुनाव लड़े जमाना बीत गया है। जो वर्षों से राज्यसभा के रास्ते संसद में आते रहे हैं। इस कारण उन नेताओं का आम जनता में प्रभाव समाप्त हो गया है। कार्यसमिति में शामिल अधिकांश नेता अपने परिवार जनों को भी राजनीति में आगे बढ़ा रहे हैं। इस कारण नई पीढ़ी के उन नेताओं से उनका टकराव बना रहता है जो मेहनत करके सांगठनिक क्षमता से आगे बढ़े हैं।
कांग्रेस में आज युवा व पुराने नेताओं के मध्य वर्चस्व की लड़ाई चल रही है। जब राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे, तब उन्होंने देश के बहुत से युवा नेताओं को राष्ट्रीय स्तर पर संगठन में काम करने का मौका देकर उन्हें आगे बढ़ाया था। उस दौरान कांग्रेस में काफी सक्रियता भी देखी गई थी। मगर 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि कांग्रेस के सभी नेताओं ने उनको अध्यक्ष पद पर बने रहने की काफी कोशिश की थी मगर राहुल गांधी अपने फैसले पर अडिग रहे। अंततः सोनिया गांधी को ही 10 अगस्त 2019 को एक वर्ष के लिए कांग्रेस का अंतरिम कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया। सोनिया गांधी के कांग्रेस पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बनने के बाद पुराने नेताओं का फिर से पार्टी में बोलबाला हो गया। इसी कारण राहुल गांधी के समय आगे बढ़ाए गए युवा नेताओं को पुराने नेताओं ने एक-एक ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। ज्योतिरादित्य सिंधिया, अशोक तंवर, संजय निरुपम, सचिन पायलट, प्रियंका चतुर्वेदी, संजय झा जैसे नेताओं को धीरे-धीरे साइड लाइन किया जाने लगा।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ व दिग्विजय सिंह की मनमानी के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल होना पड़ा। उनके साथ उनके समर्थक 22 विधायकों ने भी विधानसभा से इस्तीफा दे दिया था। इस कारण मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार गिर गई। वहां डेढ़ साल बाद ही फिर से भाजपा के शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए। इससे पूर्व यही स्थिति कर्नाटक में दोहराई गई थी। जहां भी भाजपा के येदियुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री बन गए। दोनों ही जगह पार्टी के स्थानीय नेतृत्व से नाराज लोगों की पार्टी आलाकमान ने बात नहीं सुनी। वहां प्रादेशिक नेतृत्व को एकतरफा छूट दी गई। जिस कारण असंतुष्ट नेताओं को लगने लगा कि पार्टी नेतृत्व द्वारा उनकी उपेक्षा की जा रही है। इस कारण उन्होंने पार्टी छोड़कर भाजपा में जाना उचित समझा। मध्य प्रदेश व कर्नाटक कांग्रेस में जो कुछ घटा उसके लिए वहां के प्रभारी महासचिव भी पूरी तरह जिम्मेदार थे। जिन्होंने असंतुष्ट गुट के नेताओं की बातों को न तो सुना और न ही उसका समय रहते कोई समाधान निकाला। प्रभारी महासचिव सिर्फ प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही खुश करने में लगे रहे। उनकी बातों पर ही एकतरफा फैसला करते रहे।
हालांकि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरने के बाद वहां के प्रभारी महासचिव दीपक बावरिया को हटाकर मुकुल वासनिक को महासचिव बनाया गया है। लेकिन अब मुकुल वासनिक भी कुछ नहीं कर सकते। मध्य प्रदेश में 15 साल बाद कांग्रेस की सरकार बनी थी, उसे केंद्रीय नेतृत्व की लापरवाही व प्रादेशिक नेताओं की मनमानी के चलते मात्र डेढ़ साल में गिरा दिया गया। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायक लगातार त्यागपत्र दे रहे हैं। जिससे वहां कांग्रेस की स्थिति लगातार कमजोर होती जा रही है।
मध्य प्रदेश की तरह राजस्थान में भी उप मुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे सचिन पायलट ने अपने समर्थक 18 विधायकों को लेकर पार्टी के खिलाफ बगावत कर दी थी। उनका भी यही आरोप था कि मुख्यमंत्री उनकी बातों को तवज्जो नहीं देते हैं। प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे दिल्ली आलाकमान में सिर्फ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ही पैरवी करते हैं। इस कारण उन्होंने पार्टी में अपनी लगातार हो रही उपेक्षा के चलते अपने समर्थक 22 अन्य विधायकों को लेकर गुड़गांव चले गए। उनका कहना था वे कांग्रेस में हैं और कांग्रेसी रहेंगे। कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ रहे हैं। उनकी कांग्रेस से नहीं राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से असहमति है। हमारी बात कहीं नहीं सुनी जा रही है। इसलिए हमें मुख्यमंत्री के खिलाफ विद्रोह करना पड़ा है। उन्होंने प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे पर भी पक्षपात करने का आरोप लगाया। यह तो अच्छा रहा कि एक महीने के बाद कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के दखल के बाद राहुल गांधी व सोनिया गांधी से सचिन पायलट व उनके समर्थक विधायकों की मुलाकात करवाकर रूबरू बात करवाई गई। जिसपर सोनिया गांधी ने उन्हें आश्वस्त किया कि उनकी मुख्यमंत्री गहलोत से जो भी शिकायतें हैं उन सबको दूर करवाया जाएगा। राजस्थान प्रकरण के समाधान के लिये दिल्ली से तीन वरिष्ठ नेताओं की एक समिति बनाई जाएगी जो वहां के सभी मुद्दों को सुलझायेगी। इसके बाद सचिन पायलट जयपुर आकर विधायक दल की बैठक में भी शामिल हुए।
यहां प्रश्न उठता है कि पार्टी की भारी फजीहत होने के बाद प्रियंका गांधी ने जो काम एक महीने बाद किया, उसे पहले भी किया जाता जा सकता था। उसके अलावा दिल्ली से संकट को निपटाने के लिए भेजे गए पार्टी पर्यवेक्षक प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे, संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल, पूर्व केंद्रीय मंत्री अजय माकन व राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने भी अपनी भूमिका सही ढंग से नहीं निभाई। उन्होंने जयपुर आकर प्रेस के माध्यम से पायलट को पार्टी से निकालने की चेतावनी देते रहे। वे सभी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के प्रवक्ता की तरह काम करने लगे। जिससे स्थिति और ज्यादा बिगड़ गई।
कांग्रेस आलाकमान को चाहिए कि केंद्रीय नेतृत्व में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे ऐसे लोगों को पद मुक्त करें जो निष्पक्षता से काम नहीं कर किसी प्रभावशाली नेता के पैरोकार के रूप में काम करते हैं। कांग्रेस पार्टी को केंद्रीय स्तर पर एक ऐसी प्रभावशाली कमेटी बनानी चाहिए जो ऐसे मुद्दों पर समय रहते ध्यान देकर उनका निदान करवा सके। प्रदेश प्रभारी व सह प्रभारी पद पर ऐसे लोगों को लगाया जाये जो निष्पक्षता से काम करने वाले हों। उनकी कार्यप्रणाली की समय-समय पर निगरानी की जानी चाहिये। ताकि वो अपनी मनमानी नहीं कर सके व कांग्रेस को बार-बार अपने नेताओं की बगावत का सामना नहीं करना पड़े।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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