बैतूल: मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) के बैतूल (betul) में एक ऐसा गांव (Village) है, जहां के लोग खुद को पांडवों का वंशज (descendant of pandavas) मानते हैं. खुद को पांडव बताने वाले रज्जड़ समाज (Razjad Samaj) के लोगों का मानना है कि प्राचीन काल से वह एक परंपरा का निर्वहन करते आ रहे हैं. इसमें उन्हें कांटों के सेज पर लेटना होता है. इसमें लोगों को असहनीय दर्द भी होता, बावजूद इस परंपरा को निभाने के लिए बच्चों से लेकर बूढ़ों तक में होड़ मची रहती है. बैतूल के सेहरा (Sehra) गांव में हर साल अगहन महीने (aghaan month) में मनाई जाने वाली इस परंपरा के तहत समाज के लोग बहन की विदाई का जश्न मनाते हैं.
स्थानीय लोगों का मानना है कि इस परंपरा का निर्वहन भगवान के प्रति सच्ची भक्ति और आस्था व्यक्त करने के लिए है. इससे उनके समाज की बलैया कटती है और खुशहाली आती है. परंपरा को निभाने के लिए रज्जड़ समाज के लोग कई दिन पहले से ही तैयारी शुरू कर देते हैं. नुकीले और कांटेदार झाड़ियां को तोड़कर लाया जाता है और सेज बनाकर उसकी विधिवत पूजा होती है. फिर बच्चे हों या बूढे समाज के सभी लोग इस सेज पर लेटते हुए एक तरफ से दूसरी तरफ चले जाते हैं. इससे उनके शरीर में घाव ही घाव हो जाते हैं. बावजूद इसके, दर्द से चींखने चिल्लाने के बजाय ये लोग जश्न मनाते हैं.
दरअसल इस परंपरा के पीछे एक किविदंति भी है. मान्यता है कि एक बार पांडव अपने बनवास के दौरान पानी के लिए भटक रहे थे. जंगल में खूब घूमने के बाद भी उन्हें पानी नहीं मिला तो एक नाहल समुदाय के व्यक्ति से पांडवों ने पानी के बारे में पूछा. उस समय नाहल ने कहा कि वह एक शर्त पर पानी का पता बताएगा. वह शर्त यह थी कि पांडवों को अपनी बहन की शादी उससे करनी होगी. चूंकि पांडवों की कोई बहन थी ही नहीं, इसलिए शर्त को पूरा करने के लिए पांडवों ने भोंदई नामक एक भीलनी को बहन बनाया और उस नाहल से शादी कराई.
कथा आती है कि इस शादी के बाद नाहल ने कहा कि पांडवों को अपनी बहन की सच्चाई की परीक्षा देनी होगी. इसके लिए उन्हें कांटों पर लेटना पड़ेगा. मजबूरी में ही सही, पांडवों ने इस शर्त को पूरा किया और अपनी बहन की विदाई उस नाहल के साथ कर दी. स्थानीय लोगों के मुताबिक तब से उनके समाज में यह परंपरा शुरू हो गई और आज तक उसका निर्वहन किया जा रहा है. यह जश्न पांच दिन तक चलता है. इसमें समाज के लोग पहले अपनी बहनों की शादी कराते हैं और इस परीक्षा के बाद बड़े उत्साह के साथ कांटों पर लेट कर बहन की विदाई करते हुए जश्न का समापन करते हैं.
बड़ों के साथ साथ परंपरा को निभा रहे एक छोटे बच्चे रोहित ने बताया की जश्न के दौरान हमारे देव हमारे ऊपर आते हैं. इस लिए बेर और बबूल के काटों की सेज भी उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाती. वहीं जिला चिकित्सालय के आरएमओ डॉ. रानू वर्मा कहते हैं की यह परंपरा जायज नहीं है. इससे जश्न में शामिल होने वाले लोगों को जख्म हो जाता है और इससे संक्रमण या बैक्टीरियल इन्फेक्शन का खतरा होता है.
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