नई दिल्ली । सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने घर के निर्माण के लिए पैसे की मांग (demand for money) को भी दहेज बताते हुए अपराध माना है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमण, जस्टिस एएस बोपन्ना और जस्टिस हिमा कोहली की पीठ ने कहा, दहेज शब्द को एक व्यापक अर्थ के रूप में वर्णित किया जाना चाहिए, ताकि एक महिला से किसी भी मांग को शामिल किया जा सके, चाहे संपत्ति के संबंध में हो या किसी भी तरह की मूल्यवान चीज।
निचली अदालत ने इस मामले में मृतक के पति और ससुर को आईपीसी की धारा-304-बी (दहेज हत्या), आत्महत्या के लिए उकसाने और दहेज उत्पीड़न के तहत दोषी ठहराया था। यह पाया गया, आरोपी मरने वाली महिला से घर बनाने के लिए पैसे की मांग कर रहा था, जो उसके परिवार के सदस्य देने में असमर्थ थे।
इसे लेकर महिला को लगातार परेशान किया गया, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली। इस फैसले के खिलाफ दायर अपील पर मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने कहा, घर के निर्माण के लिए पैसे की मांग को दहेज की मांग के रूप में नहीं माना जा सकता है।
विधायिका के इरादे को विफल करने वाली व्याख्या न करें
हाईकोर्ट के फैसले पर असहमति जताते हुए पीठ ने कहा, विधायिका के इरादे को विफल करने वाली कानून के किसी प्रावधान की व्याख्या को इस पक्ष में छोड़ दिया जाना चाहिए कि वह सामाजिक बुराई को खत्म करने के लिए कानून के माध्यम से हासिल की जाने वाली वस्तु को बढ़ावा न दे। धारा-304 बी के प्रावधान समाज में एक निवारक के रूप में कार्य करने व जघन्य अपराध पर अंकुश लगाने के लिए हैं।
एक महिला ही दूसरी को न बचाए, तो यह गंभीर अपराध
एक अन्य दहेज प्रताड़ना में आत्महत्या मामले में सास की अपील खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा, जब एक महिला ही दूसरी महिला को न बचाए तो यह गंभीर अपराध है। कोर्ट ने सास को दोषी ठहराते हुए तीन महीने की सजा सुनाई। पीठ ने कहा, यह बेहद भयावह स्थिति है जब एक महिला अपनी ही बहू पर इस कदर क्रूरता करे कि वह आत्महत्या का कदम उठा ले।
रजिस्ट्री अधिकारियों को शीर्ष अदालत के नियमों को अच्छी तरह जानना चाहिए: सुप्रीम कोर्ट
एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रजिस्ट्री अधिकारियों को शीर्ष अदालत के नियमों को अच्छी तरह जानना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जमानत आदेश को रद्द किये जाने के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिका के साथ आत्मसमर्पण से छूट की मांग करने वाली अर्जी दायर करने की आवश्यकता नहीं है।
जस्टिस पीएस नरसिम्हा ने ऐसे ही एक मामले पर विचार करते हुए कहा कि छूट के लिए बड़ी संख्या में ऐसे आवेदन नियमित रूप से दायर किए जाते हैं जबकि इस तरह की प्रक्रिया को अपनाने की बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। यह केवल उन मामलों पर लागू होता है जहां याचिकाकर्ता को ‘किसी अवधि के कारावास की सजा दी जाती है’ और इसे जमानत रद्द करने के साधारण आदेशों के साथ भ्रमित नहीं किया जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि परेशान करने वाली बात यह है कि इन बेवजह के आवेदनों की वजह से वकीलों, जजों और यहां तक की रजिस्ट्री पर भी दबाव बढ़ता है। अदालत ने इसके साथ ही रजिस्ट्रार (न्यायिक) को संबंधित अनुभागों को इस संबंध में औपचारिक निर्देश जारी करने का आदेश दिया।
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