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    ‘जवान’ में दीपिका की फांसी का सीन भारत के कानून से कितना अलग, पूर्व डीजीपी ने क्यों कहा- भूत-प्रेत पर फिल्में बनाएं वही शोभा देता

  • September 21, 2023

    नई दिल्‍ली (New Dehli)। शाहरुख खान (Shahrukh Khan)की फिल्म जवान के एक सीन में दीपिका पादुकोण (Deepika Padukone)को फांसी देते दिखाया गया है, लेकिन ये फांसी के कानून (hanging laws)के असली नियमों से बिलकुल (Absolutely)मेल नहीं खाता है. फिल्म ‘जवान’ इन दिनों बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही है. इस मल्टीस्टारर फिल्म में शाहरुख खान, दीपिका पादुकोण और नयनतारा ने लीड रोल किया है. वहीं फिल्म की कहानी में दीपिका पादुकोण को फांसी की सजा का भी सीन है.


    फिल्म में दिखाया जाता है कि भारत के कानून के मुताबिक दीपिका को फांसी की सजा सुनाई गई है. लेकिन जिस तरह इसमें दिखाया गया है वो असली कानून से बिलकुल अलग है.

    क्या है भारत में फांसी का कानून
    भारत के कानून के अनुसार मौत की सजा तभी दी जा सकती है जब मामला दुर्लभतम हो और अपराधी का गुनाह इतना बड़ा हो कि अन्य कोई विकल्प ही ना बचा हो. बचन सिंह मामले में उच्च अदालत ने ‘दुर्लभतम’ सिद्धांत निर्धारित किया था. 213 पैरा में दिए गए इस फैसले में केवल एक बार इस वाक्यांश को लिखा गया था.

    इस फैसले में लिखा गया था ‘फांसी दुर्लभतम मामलों में ही दी जा सकती है, जब अन्य सभी विकल्प निर्विवाद रूप से खत्म हो चुके हों.’ ऐसे में बचन सिंह मामले के आधार पर कोर्ट ने ये स्पष्ट किया कि कोर्ट अपराध की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए रेयरेस्ट यानी दुर्लभतम मामलों में ही फांसी की सजा सुनाई जा सकती है.

    हालांकि इसके बाद भी ये कभी स्पष्ट नहीं हो सका कि अदालत किन मामलों को ‘दुर्लभतम’ माने. कानून के जानकारों का मानना है कि ऐसे मामलों में अदालत अपराध की प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए फैसला सुनाती है.

    2018 से 2022 के बीच 306 मामलों में सुनाई गई मौत की सजा पर 39ए के लिए की गई एक स्टडी से ये साफ होता है कि करीब 10 फीसदी फैसलों में यह उल्लेख ही नहीं किया गया कि मामला ‘दुर्लभतम’ श्रेणी में क्यों आता है.

    जवान फिल्म में गर्भवती महिला को फांसी!
    फिल्म जवान में दिखाया गया है कि दीपिका पादुकोण को जब फांसी के तख्ते पर ले जाया जाता है उस वक्त वो बेहोश हो जाती हैं, पता चलता है कि वो गर्भवती हैं. जिसके बाद दीपिका को उनके बच्चे के 5 साल का होने के बाद फांसी दी जाती है, लेकिन भारत का कानून ऐसा नहीं है.

    भारत के कानून के अनुसार यदि कोई महिला फांसी के समय गर्भवती पाई जाती है तो कानून उसको फांसी की इजाजत नहीं देता. अगर फांसी पर लटकाए जाने से पहले ये पता चल जाता है कि अपराधी महिला गर्भवती है तो कानून के अनुसार उसकी फांसी उम्रकैद में तब्दील हो जाती है.

    जब हमने इस बारे में रिटायर्ड डीजीपी विक्रम सिंह से बात की तो उन्होंने कहा, “भारत में जब किसी अपराधि को फांसी दी जाती है तो उससे पहले उसका मेडिकल करवाया जाता है, यदि वो बीमार पाया जाता है तब उसे उचित ईलाज देकर फांसी दी जाती है.”

    फिल्म के बारे में बात करते हुए सिंह ने कहा, “न्यायालय गर्भवती महिला के मामलों में मानवीय रुख अपनाती है, यदि किसी महिला को दंड मिल रहा है तो जरूरी नहीं कि उसके भ्रूण को भी वही दंड दिया जाए. ऐसे प्रकरण में अत्यंत उदार दृष्टिकोण अपनाया जाता है. अगर बच्चा साथ है तो सजा माफी, जेल से बाहर रहना और तमाम चीजें कम्यूनिकेशन एंड सेंटेंस ओवर हो जाते हैं.”

    सिंह ने कहा, “हमारी न्यायालय व्यवस्था को फिल्म में गलत दिशा में और नकारात्मक रूप में प्रदर्शित किया गया है, डायरेक्टर को इसके लिए माफी मांगनी चाहिए. डायरेक्टर पहले कानून पढ़ लें और फिर इस तरह का चित्रण करें. वो भूत प्रेत पर फिल्में बनाएं वही उन्हें शोभा देता है.”

    भारत में फांसी
    -भारत में सजा-ए-मौत सिर्फ चयनित अपराधों के लिए ही दी जाती है.
    -भारत में सार्वजनिक रूप से फांसी नहीं दी जाती.
    -मौत की सजा के लिए दोषी को कष्ट नहीं दिया जाता.
    -मौत की सजा सिर्फ शासन ही दे सकती है.
    -भारतीय कानून में मौत की सजा के लिए कई प्रावधान हैं.

    अब तक कितने लोगों को दी जा चुकी है फांसी
    नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के डेथ पेनाल्टी रिसर्च प्रोजेक्ट के आंकड़ों के अनुसार देश में आजादी के बाद से अब तक 5 हजार लोगों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, लेकिन ये सभी को फांसी के फंदे पर नहीं लटकाया गया है. इनमें से कई की सजा को उम्रकैद को बदल दिया गया और इनमें से लगभग 700 लोगों को ही आजादी के बाद फांसी के फंदे पर लटकाया गया है.

    3 साल पहले दी गई थी आखिरी फांसी
    भारत की आजादी के बाद पहली फांसी 9 सितंबर 1947 को दी गई थी. ये फांसी जबलपुर की सेंट्रल जेल में दी गई थी. वहीं भारत में आखिरी फांसी 2020 में निर्भया गैंगरेप के दोषियों को 20 मार्च 2020 को दी गई थी.

    भारत में इन चार लोगों को नहीं दी जा सकती फांसी
    भारत में 15 साल से कम उम्र के बच्चे, गर्भवती महिलाएं, मानसिक विक्षिप्त, लाइलाज बीमारी से पीड़ित अपराधी और 70 साल की उम्र के लोगों को फांसी की सजा से मुक्त रखा गया है.

    90 देशों ने मृत्युदंड को किया समाप्त
    1976 से लेकर अब तक दुनिया के 90 देशों ने सभी तरह के अपराधों के लिए मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है, लेकिन भारत के अलावा अमेरिका, जापान, चीन, ईरान, सऊदी अरब और इराक सहित कई अन्य देशों में अब भी मृत्युदंड का प्रावधान है. इन देशों में अपराधी को अलग-अलग तरह से मौत दी जाती है.

    दिसंबर 2022 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दुनियाभर के 125 देशों ने मृत्युदंड पर रोक लगाने के पक्ष में वोट दिया था. हालांकि भारत ने इसके खिलाफ मतदान किया था. 2021 में मृत्युदंड पर रोक लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में पेश किए गए एक मसौदा प्रस्ताव का भी भारत सरकार द्वारा विरोध किया गया था.

    भारत में मृत्युदंड का प्रावधान होने के बाद भी बहुत कम अपराधियों को ही फांसी की सजा दी जाती है. साल 2000 से अब तक का ही डाटा देखें तो 23 सालों में महज 8 अपराधियों को ही फांसी की सजा दी गई है.

    मौत की सजा के विकल्पों को लेकर दायर की गई याचिका
    भारत में फांसी की मौजूदा प्रावधान के खिलाफ 2017 में एक जनहित याचिका दायर की गई थी. ये मांग की गई थी कि इससे कम दर्दनाक तरीकों जैसे लीथल इंजेक्शन, गोली मारने, बिजली के झटके या गैस चैंबर में डालकर मौत की दी जानी चाहिए.

    याचिका में यह दलील भी दी गई थी कि फांसी की सजा में 40 मिनट लगते हैं, जबकि गोली मारने, इंजेक्शन और बिजली के झटके से किसी व्यक्ति की मौत में महज कुछ सेकंड लगते हैं. याचिका में कहा गया कि ऐसे में मौत की सजा में ऐसे किसी तरीके को अपनाया जा सकता है.

    चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीवी नरसिम्हा की बेंच ने यह स्पष्ट किया कि अदालत विधायिका को दोषियों को सजा देने के लिए एक विशेष तरीका अपनाने का निर्देश नहीं दे सकती है.

    सुप्रीम कोर्ट ने इस याचिका पर क्या कहा
    चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस पीवी नरसिम्हा की बेंच ने इस याचिका पर यह स्पष्ट किया कि अदालत विधायिका को दोषियों को सजा देने के लिए एक विशेष तरीका अपनाने का निर्देश नहीं दे सकती.

    मामले की सुनवाई के दौरान बेंच ने कहा, “हम विधायिका को यह नहीं बता सकते कि आप इस तरीके को अपनाएं. लेकिन आप (याचिकाकर्ता) निश्चित रूप से तर्क दे सकते हैं कि कुछ अधिक मानवीय हो सकता है…घातक इंजेक्शन में भी व्यक्ति वास्तव में संघर्ष करता है. इस बात पर भी काफी मतभेद हैं कि कौन से रसायनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए’.

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