-डॉ. ललित पांडेय
किसी समय केवल भारत में मनाया जाने वाला दीपावली पर्व आज एक वैश्विक पर्व बन चुका है जो नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया, थाईलैंड, जापान से अपनी यात्रा तय करता हुआ संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के व्हाइट हाउस तक एक अधिकृत पर्व की तरह स्थापित हो गया है। इसका कारण भारतीय दृष्टि और दर्शन की सोच का सर्वजनीन होना है जो राष्ट्रों की भौगोलिक सीमाओं और धर्म की परिधि से परे जाकर चहुंओर प्रकाश से संपूर्ण विश्व को आलोकित कर रहा है। जहां एक ओर यह पर्व भारत में अनेक युगों की स्मृति को स्वयं में संजोये है तो दूसरी ओर यह धार्मिक आस्थाओं को लांघता हुआ मानवीय उल्लास को प्रतिबिम्बित करता है और सर्वाधिक विस्मयपूर्ण यह है कि यह अनेक ऐसे राष्ट्रों में भगवान राम की लीलाओं का इतना उदात्त प्रस्तुतीकरण करता है जो धर्म और विश्वास की उस उदात्त चेतना की अभिव्यक्ति है, जिसकी पृष्ठभूमि में केवल और केवल मानव कल्याण की भावना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
भारत में यह पर्व एक ओर सत्य युग के समुद्र मंथन के फलस्वरूप उत्पन्न हुए अमृत के साथ निकले विष के दुष्प्रभाव के निराकरण हेतु धन्वंतरि की उत्पत्ति के कारण मनाया जाता है तो दूसरी ओर महालक्ष्मी के अवतरण के उल्लास का कारण भी है। इसके साथ ही त्रेतायुग में यह विष्णु के अवतार स्वरूप जन्मे भगवान और उनके द्वारा अत्याचार और पापयुक्त प्रवृत्तियों का शमन करके इक्ष्वाकु वंश की कीर्तिपताका फहरा कर अपनी राजधानी अयोध्या लौटने के परिणामस्वरूप मनाया जाता है तो द्वापर में नरकासुर नामक असुर की यातनाओं से त्रस्त प्रजा को मुक्त करने के लिए उसके वध के उल्लास में मनाया जाता है। इसके अलावा श्री कृष्ण द्वारा इंद्र के दर्प को समाप्त करने के लिए सम्पूर्ण गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली में उठाकर प्रजा को अतिवृष्टि से सुरक्षित करने के कारण भी यह पर्व मनाया जाता है। इस पर्व का अंतिम दिन सनातन वैदिक संस्कृति में पवित्रतम माने जाने वाले रिश्ते भाई -बहिन के अजस्र स्नेह की अभिव्यक्ति भी करता है। जिस दिन मृत्यु देव यम ने अपनी भगिनी को यह वचन दिया कि आज जो भी भाई अपनी बहिन संग यमुना स्नान करेगा उसे पुण्य स्वरूप सीधे ही मोक्ष प्राप्त हो जाएगा। इस तरह से यह पर्व बहिन के स्नेह की उदात्त भावना को प्रकट कर उसकी महत्ता को भी प्रतिष्ठित करता है जो वर्तमान में तार-तार हो रहे संबंधों की पवित्रता की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है कि ऐसी भावनाओं और संबंधों की पवित्रता बनाए रखना समाज के लिए परमावश्यक है।
वर्तमान युग में भी जिसे सामान्यतः कलियुग के नाम से जाना जाता है यह पर्व धार्मिक सौहार्द की भावना का एक अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत करता है। एक ओर तो यह पर्व भारत में आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व में उद्भूत हुए जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री महावीर के कैवल्य का पर्व है तो बौद्ध धर्मावलम्बी इस दिन को बुद्ध द्वारा धर्मचक्र प्रवर्तन के दिन के रूप में मनाते हैं। प्राचीन समय के पश्चात मध्यकाल में सनातन वैदिक धर्म की रक्षार्थ जन्मे सिक्ख धर्म के छठे गुरु श्री हरगोबिन्द के प्रकाश पर्व के रूप में मनाए जाने का विधान भी है।
मुगल काल के बादशाह अकबर के द्वारा भी दीपावली मनाए जाने का वर्णन यूरोपीय विद्वान एंड्रयू ने भी किया है। उनके अनुसार इस दिन घी के दीये प्रज्वलित किए जाते थे और बादशाह लगभग चालीस गज विशाल दीया प्रज्वलित करता था जिसे आकाश दीया कहा जाता था। इसी तरह से आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के समय दीपावली बड़े धूमधाम से मनाई जाती थी और समीक्षक फिरोज बख्त अहमद के अनुसार जफर के समय दीपावली बहुत धूमधाम से मनाई जाती थी, इसके लिए पूजन सामग्री चांदनी चौक के कटरा नील से आती थी।
इस तरह से यह पर्व सत्य युग से ही सनातन वैदिक समाज में अपनी पहचान स्थापित कर चुका था। इस संबंध में एक पक्ष यह भी है कि समय व स्थान के अनुरूप इसका स्वरूप परिवर्तित होता रहा। हमारे आधुनिक इतिहास में यह पर्व वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के लिए संकल्पित महर्षि दयानंद सरस्वती के मोक्ष दिवस के रूप में राजस्थान, गुजरात, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्र सहित हरियाणा व पंजाब में मनाया जाता है। यदि पूर्ण ऐतिहासिक साहित्य का अवलोकन किया जाए तो कौटिल्य अर्थशास्त्र में भी एक ऐसे समारोह का वर्णन मिलता है, जहां यह वर्णन आया है कि किसी महामारी के समाप्त होने पर सुस्थापित तीर्थ स्थलों में स्नान करके, समुद्र की पूजा-अर्चना करके और श्मशान पर गाय का दूध दूह कर, पुतले जलाकर रात्रि पर्यंत देवों की आराधना करनी चाहिए। इस धार्मिक क्रियाकलाप का वर्णन जिस संदर्भ में किया गया है उससे यह परिलक्षित होता है कि संभवतः चौमासे के पश्चात व्याधियों के शमन के कारण यह पर्व होता था। इससे यह आभास होता है कि यह समय कार्तिक मास के आसपास का ही रहा होगा। इस प्रकार से यह पर्व ऋतु परिवर्तन और नवीन फसल की खुशी में भी मनाए जाने की परम्परा से प्रारंभ हुआ होगा जो वर्षाऋतु के बाद व्याधियों के दूर होने तथा फसल आगमन के कारण समृद्धि के प्रतीक के रूप में प्रचलित परम्परा की तरह स्थापित हो गया।
वैदिक सनातन परंपरा में खगोलीय स्थितियों का बहुत महत्व रहा है। वैदिक समय से ही नक्षत्रों की अंतरिक्ष में उपस्थिति के संयोग से मौसम का अनुमान लगाया जाने का विधान संभवतः बेहतर कृषि उपज के लिए और सामाजिक समृद्धि के लिए अनिवार्य था और इसी कारण सूर्य-चंद्र युग्म पर आश्रित वर्ष के विधान में दो विषुव के आने से सूर्य-पृथ्वी की विशिष्ट स्थिति ने शरद और वसंत ऋतु को विशिष्ट बना दिया। इस कारण दीपावली के साथ-साथ होली की भी परम्परा प्रारंभ हुई। ऐसा केवल वैदिक सनातन संस्कृति में ही नहीं अपितु अन्य संस्कृतियों में भी दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार इनमें से वसंत विषुव और शारदीय विषुव भारतीय वर्ष परम्परा में उल्लास और उत्सव का प्रतीक बन गए। परिणामस्वरूप वर्ष में दो नवरात्र और होली तथा दीपावली प्रमुख पर्व बन गए।
आइये, इन पर्वों में छिपे हमारे आदर्शों, नैतिक मूल्यों, ज्ञान-विज्ञान को पहचानकर समझकर इनका उसी तरह अनुपालन करें और इनकी पवित्रता को बनाए रखें।
(लेखक वरिष्ठ पुराविद व राजस्थान विद्यापीठ साहित्य संस्थान के पूर्व निदेशक हैं)
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