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    छह दिसंबर, 1992 …कभी न भूल पाने वाले पल

  • January 08, 2024

    – डा. रमेश शर्मा

    श्रीराम जन्म भूमि आंदोलन का इतिहास लगभग आठ सौ वर्ष पुराना है। यानी बाबर से भी 300 वर्ष पूर्व से अनेक राजा और रानियों ने सेना सहित तथा भक्तों ने व्यक्तिगत अथवा सामूहिक तौर पर अपने प्राण न्योछावर किए और इनकी कुल संख्या लाखों में है। अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों में गहन चिंतन और मनन के बाद हिंदू संगठनों ने पहले विश्व हिंदू परिषद उपरांत भाजपा और विविध सहयोगियों के साथ इस धार्मिक आंदोलन को अपनाने का जोखिम पूर्ण निर्णय लिया था। पालमपुर में आयोजित बैठक में इसे विधिवत घोषित भी कर दिया गया । इस सांस्कृतिक आंदोलन का मैंने नजदीक से अध्ययन और अवलोकन करने का मन बनाया । इस विषय में शेष राजनीतिक और सामाजिक ढांचे के विरोध का आलम ऐतिहासिक और भीषण था।


    इसी क्रम में मुलायम सिंह यादव के समय 1990 में कारसेवकों पर लाठीचार्ज और गोलीबारी ने हिन्दू समाज को अत्यंत आक्रोशित किया जिस के कारण 1992 का दृश्य बना और संतसमाज, न्यायालय और जनसाधारण के सक्रिय योगदान से भाजपा को प्रत्यक्ष लाभ पहुंचा । राष्ट्रीय आह्वान के परिप्रेक्ष्य में चार दिसंबर को हमीरपुर (हिमाचल प्रदेश) से भी सात रामभक्तों ने अयोध्या के लिए प्रस्थान किया जिनमें मेरे अतिरिक्त स्व. लश्करी राम और चमनलाल अजंता वाले भी थे। मेरी आयु 37 वर्ष थी और वीरेन्द्र जी को छोड़कर शेष लगभग साठ वर्ष के थे। शैलेन्द्र जी की बाजू लाठीचार्ज में टूट गई थी और उन्होनें प्रतिज्ञा करते हुए दाढ़ी रख ली थी कि अब यह मंदिर बनने पर ही कटेगी । इस प्रतिज्ञा के साथ ही वे इस दुनिया से विदा हुए। ऐसे अनेक उदाहरण सामने आए जिन्होंने मुझे इस ओर प्रेरित किया ।

    अंबाला से रेलमार्ग पर पहला रोमांचक अनुभव हुआ जब टीटी ने कहा कि आप लोग अयोध्या जा रहे हो तो टिकट क्यों खरीदा है । अगले रेलवे-स्टेशन पर युवा लोग चना, पूरी, हलवा देने आए । यह क्रम बाराबंकी फैजाबाद तक सभी स्टेशनों पर देखा । हमसे पुराना पैकेट ले लिया जाता था और ताजा नया थमा दिया जाता था। फैजाबाद में पैकेट लेकर लंगर खिलाया गया। सभी ट्रेन और अन्य वाहनों के यात्रीगणों के लिए आसपास के हजारों लोग महीने भर से ऐसी सेवा कर रहे थे ऐसी जानकारी भी मिली।

    देश-विदेश से लाखों-लाख नर नारी, युवा, बृद्ध और बाल एक ही मंजिल तक पहुंचे। चेहरों पर निडरता, उत्साह और जनून स्पष्ट झलक रहे थे। शाम तक कैंप में समाचार आया कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए कल यानी छह दिसंबर को कारसेवा नहीं होगी। इस पर ग्यारह दिसंबर तक रोक लगाई गई है। साथ ही बताया गया कि कल सरयू से रेत लाकर यहां तक पहुंचाया जायेगा और यही कारसेवा होगी। आग की तरह खबर फैली और पूरे कैंप में निराशापूर्ण विद्रोह के स्वर सुनाई दिये । हम जिस काम के लिए आए हैं वह होगा अन्य कोई निर्देश या सुझाव नहीं माने जायेंगे। हम बार-बार नहीं आ सकते हैं। रात भर माहौल गर्म रहा।

    छह दिसंबर की सुबह अविस्मरणीय है। कुछ लोग रेत ला रहे थे। कुछ बड़ी संख्या में मंच के सामने उपस्थित होकर संबोधन सुन रहे थे। मैं और वीरेन्द्र जी हनुमानगढ़ी की तरफ आ गये जहां भारी सुरक्षा के प्रबंध थे। बैरिकेड्स के आगे दीवार और पहाड़ी के ऊपर ढांचा था। हमने सीता रसोई के और उस सारे परिसर के अंतिम दर्शन भी किए। मंच से बार-बार घोषणा सुनाई दे रही थी कि आज कारसेवा नहीं होगी। कोई भी स्वयंसेवक ढांचे की तरफ न जाए। स्वयंसेवक गणवेश में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लाठी के साथ पहरा दे रहे थे और ऊपर चढ़ने की कोशिश करने वालों को पीछे धकेल रहे थे। ढांचे के अन्दर बाहर राज्य और केन्द्रीय बलों का कड़ा पहरा था।

    पचास हजार से अधिक लोग बैरिकेड्स के आसपास नारे लगा रहे थे। झुंड के झुंड पताका और ध्वजदंड के साथ बढ़ रहे थे। स्थिति बहुत तनावपूर्ण थी। डंडे और लाठियों के साथ नेताओं के भाषणों को दरकिनार कर लोग वानर सेना के समान आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे। अचानक सामने ढांचे के गुंबद की ओर रस्सी फेंक कर उसे स्तंभ से बांध कर सेतु बना कर दो नवयुवक उल्टा लटक कर गुंबद के शिखर पर पहुंच गए और भगवा फहरा दिया । उन्होंने पीठ पर कुछ औजार बांधे हुए थे। मंच से घोषित किया गया कि कोई हिन्दू है तो नीचे उतर आए। स्मरण है कि साध्वी ऋतंभरा, उमा भारती और आडवाणी जी भी मंच पर थे।

    इस हालत को देखते ही बैरिकेड्स के समीप का जनसमूह सैलाब की तरह आगे निकल कर ढांचे को घेरकर खड़ा हो गया । बैरिकेड्स कहां गए, सुरक्षा कहां गई कोई पता नहीं चला। विस्फारित आंखों से वे ऐतिहासिक पल देखे। आस्था का विकराल आक्रोश था। फिर क्या हुआ सभी को विदित है। तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय कल्याण सिंह ने केन्द्रीय बलों को रेल या केन्द्रीय परिसरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं दी थी। वापसी यात्रा में रेल के दरनैजे और खिड़कयों से हाथ हिलाकर अभिवादन किया जा रहा था। न मारकाट न गोली बारी लेकिन अजीब किस्म की खामोशी का आलम था। वे भोजन के पैकेट और टीटी गायब थे।

    हिमाचल प्रदेश सहित चार भाजपा सरकारें गिरा दी गई थीं। मंदिर का विषय भाजपा की सफलता का एक पक्ष अवश्य है लेकिन इन सरकारों का उस समय दोबारा न आना, इस कार्य में उस समय लाखों दक्षिण भारतीय महिलाओं और पुरुषों का योगदान तथा 2014 में बहुमत आदि कुछ ऐसे बिंदु हैं जो इसे महत्वपूर्ण मुद्दा तो बनाते हैं पर एकमात्र नहीं बल्कि विपक्ष की अदूरदर्शिता सहित अनेक कारण हैं जो मोदी नीत भाजपा को निरंतर सशक्त बना रहे हैं और यह व्यापक राष्ट्र हित में आवश्यक भी है। 1992 और 2024 की परिस्थितियां बहुत अर्थ में भिन्न हैं। सांस्कृतिक आंदोलन की इस परिणिति का अनुमान तो था विश्वास नहीं होता था कि अपने जीवन काल में ऐसा देख पायेंगे। शैलेन्द्र जी जैसे अनेक सेवकों को श्रद्धा सुमन और वर्तमान समाज को नमन।

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