– प्रमोद भार्गव
मध्य-प्रदेश के गुना में सरकारी जमीन पर अतिक्रमण से जुड़े एक मामले में कानूनी कार्रवाई के नाम पर पुलिस जिस तरह से बेलगाम हुई, उसने कानून और मानवीयता की सभी हदें तोड़ दीं। साफ है, कानून के रखवालों को चाहे जितने नियमों के पाठ पढ़ाए जाएं, लाचारों के सामने आक्रामकता दिखाने से वे बाज नहीं आते। गुना जिले के जगनपुर चक में मॉडल महाविद्यालयों को राजस्व विभाग ने 40 बीघा जमीन आवंटित की थी। इस जमीन पर पिछले 15 साल से गबरू पारदी नाम के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले व्यक्ति का कब्जा था। उसने यह जमीन राजकुमार अहिरवार को तीन लाख रुपए लेकर खेती के लिए ठेके पर दे दी थी। राजू और उसकी पत्नी सावित्री ने कर्ज लेकर इस जमीन पर हाड़-तोड़ मेहनत करके फसल उगाई। इसी समय पुलिस और राजस्व आमला जेसीबी मशीन लेकर जमीन खाली कराने के लिए पहुंच गया। राजकुमार और सावित्री ने फसल पकने तक खेत नहीं उजाड़ने की हाथ जोड़कर प्रार्थना की लेकिन जब जेसीबी ने फसल रौंदना शुरू कर दिया तो किसान दंपति की सभी आशाओं पर पानी फिर गया और उन्होंने झोंपड़ी से कीटनाशक दवा उठाकर पी ली। उनके चार बच्चे इस हालात को देखकर रोने-चिल्लाने लगे। तब राजकुमार का छोटा भाई शिशुपाल और उसकी पत्नी दौड़कर आए। इन निहत्थों पर पुरुष एवं महिला पुलिस ने इतनी लाठियां बरसाईं कि उनके कपड़े तक चिथड़े-चिथड़े हो गए। जब दोनों निढाल होकर खेत में पसर गए तब बेरहम पुलिस की बर्बरता थमी।
इस हृदय विदारक घटना का समाचार प्रकाशित व प्रसारित होने पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कलेक्टर व एसपी के तबादले कर दिए और छह पुलिसकर्मियों को निलंबित कर दिया। लेकिन इसके पहले दलित किसानों पर सरकारी काम में बाधा डालने की एफआईआर पुलिस ने दर्ज कर ली। सरकार की ओर से न तो अभीतक इस मामले को खत्म करने का भरोसा दिया है और न ही दलितों की कोई आर्थिक मदद की घोषणा की है। प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने जरूर दलित किसान को सवा लाख रुपए की मदद की है।
इस मामले की पड़ताल से पता चलता है कि इसमें राजस्व विभाग बुनियादी तौर से दोषी है। जब जमीन पर 15 साल से कब्जा चला आ रहा था तो उसे शुरुआत में ही क्यों नहीं रोका गया? दरअसल मध्य-प्रदेश में जितनी भी राजस्व और वन विभाग की जमीनों पर कब्जे कर खेती हो रही है, उनपर सुनियोजित ढंग से राजस्व और वनकर्मियों ने ही कब्जा कराया हुआ है। ये लोग बीघा के हिसाब से कब्जेधारी से खेती करने के पैसे लेते हैं। बांधों के निर्माण में जो जमीन डूब क्षेत्र में आई हुई है, उसे मुआवजा दे दिए जाने के बावजूद सिंचाई विभाग के लोग खेती के लिए ठेके पर दे रहे हैं। नदियों से अवैध रूप में रेत उत्खनन का खेल तो पूरे मध्य-प्रदेश में खुले रूप में नेता-अधिकारी और ठेकेदारों की मिलीभगत से चल रहा है। इस खनन के आए दिन समाचार भी आते रहते हैं लेकिन शासन-प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
देश को आजाद हुए 72 साल हो गए लेकिन आजतक राजस्व दस्तावेजों का संधारण सही नहीं है। कंप्यूटरीकरण ने इस गड़बड़ी को और बढ़ा दिया है। विडंबना है कि पूरे देश में समूचे पुलिस तंत्र पर लगातार सवाल उठ रहे हैं लेकिन पुलिस का रवैया बदल नहीं रहा है। जिस राजस्व और पुलिस अमले ने भूमि खाली कराने के लिए गैर-कानूनी हथकंडे अपनाए, उनका इस्तेमाल किए बिना कानूनी तरीके से भी कब्जा हटाया जा सकता था। लेकिन पुलिस जब लाचार व दलित फटेहालों से रूबरू होती है तो वह अक्सर बेलगाम हो जाती है। ऐसी ही घटनाओं के बरअक्स मध्य-प्रदेश भू-राजस्व संहिता और पुलिस सुधारों में बदलाव की बात उठती है लेकिन यह आवाज कुछ दिनों में ही नक्कारखाने की तूती बन रहकर दम तोड़ देती है।
सामाजिक अन्याय व असमानता की शुरुआत जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था से हुई थी। इसीलिए अंबेडकर ने कहा था कि ‘सामाजिक न्याय जातिविहीन सामाजिक संरचना से ही संभव है।’ इसी नजरिये से उन्होंने सामाजिक न्याय, समानता, एकजुटता और जातिविहीन समाज का वैकल्पिक दृष्टिकोण देश के सामने रखा। दलित और वंचितों को राष्ट्र के प्रजातांत्रिक मूल्यों व अधिकारों से जोड़ने का यह एक कारगर मंत्र था। लेकिन देश में जाति प्रथा की जड़ें और उससे घृणा की हद तक जुड़ी कड़वाहटें इतनी गहरी थीं कि मंत्र की सिद्धि अनेक कानूनी संवैधानिक प्रावधानों के वजूद में होने के बावजूद संभव नहीं हुई। बावजूद केन्द्र व राज्य सरकारों की विडंबना रही है कि वे इस विरोधाभास की हकीकत को आधिकारिक तौर से स्वीकारने से भी बचती रही कि देश में जाति प्रथा का अस्तित्व है अथवा नहीं?
वास्तव में दलितों के उत्थान के लिए आजादी के बाद तीन चरण सामने आए हैं। पहले चरण में भीमराव आंबेडकर ने कांग्रेस के साथ मिलकर संविधान लिखने और वंचितों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करने में योगदान किया। दूसरा चरण कांशीराम का था, जिन्होंने संगठन के माध्यम से दलितों में सशक्तीकरण को बढ़ाया। इस चरण में मायावती ने भी अहम् भूमिका निभाई। देश अब तीसरे चरण से गुजर रहा है, जहां सबसे महत्वपूर्ण पहलू है, ‘नेतृत्व का विकास।’ लेकिन वाकई दलित आंदोलन को आगे बढ़ाना है तो एक दलित नेता या दो दलित नेता पर्याप्त नहीं हैं, लाखों दलित नेताओं की जरुरत पड़ेगी? लेकिन फिलहाल दलित आंदोलन के नेतृत्व पर मायावती ने कब्जा कर रखा है, वह दूसरों को आगे बढ़ने की इजाजत ही नहीं देतीं। मायावती बहुजन समाज पार्टी को लोकतांत्रिक प्रक्रिया की बजाय, एकतंत्री हुकूमत से चला रही हैं। यह सामंती मानसिकता पार्टी में चरणबद्ध नेतृत्व को उभरने नहीं दे रही हैं।
बावजूद देश में दलित हमेशा राजनीति के केन्द्र में रहे हैं। इधर कुछ समय से हमारे सभी दलों के नेता दलितों के घर जाकर ठहरने, भोजन करने और दलितों के पैर धोने तक के उदाहरण पेश कर चुके हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रयागराज में इसी साल संपन्न हुए अर्धकुंभ मेले में पांच सफाईकर्मियों के पैर धोए और तौलिए से पोंछे। इनमें तीन पुरुष और दो महिलाएं थीं। समाजिक समरसता का यह एक बड़ा उदाहरण था। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी दलितों को शेष हिंदू समाज से जोड़ने का अभियान चलाकर दलितोद्धार में लगा है। बावजूद ये उपक्रम सांकेतिक हैं क्योंकि इनसे लाचार की बुनियादी जरुरतें पूरी नहीं होतीं और वे सरकारी जमीनों पर आजीविका के लिए खेती करने को विवश होते हैं। गुना के दलित दंपति की यही लाचारी थी।
दलितों के उद्धार के लिए महात्मा ज्योति बा फुले, डॉ अंबेडकर और महात्मा गांधी अग्रदूत बनकर सामने आए। उन्होंने इस तबके को मुख्यधारा में जोड़ने की दृष्टि से सवर्णों के समकक्ष राजनीति व रोजगार के अवसरों में आरक्षण के प्रावधान भी रखे। जातिसूचक शब्दों का उल्लेख भी दण्डनीय अपराध में शामिल किया। बावजूद इस तबके में बड़े पैमाने पर जातीय उद्धार संभव नहीं हुआ। इसका एक कारण यह रहा कि जो दलित अवसरों का लाभ उठाकर सरकारी नौकरियों में आते गए, उनमें से ज्यादातर अपने ही समुदाय से दूरी बनाकर आभिजात्य बनने की होड़ में लग गए। वर्तमान में जो दलित राजनीति अथवा सरकारी क्षेत्र में ऊंचे पदों पर आरक्षण की सीढ़ी चढ़कर पहुंचे हैं, उनमें से अधिकतर के जीवनसाथी सवर्ण हैं। इससे लगता है कि इनमें सामाजिक उपेक्षा और प्रताड़ना ने इतना हीनता बोध भर दिया है कि ये उच्च शिक्षित होने के बावजूद इस बोध से उबर नहीं पा रहे हैं। ये जाति को छिपाने के उपक्रम में भी लगे रहते हैं। लिहाजा दलितों के कल्याण के लिए जो दलित आरक्षण का लाभ उठाकर सामाजिक व आर्थिक रूप से सक्षम हो गए हैं, उन्हें भी जातीय शर्म से ऊपर उठकर अपनी जाति से जुड़े रहना जरूरी है। इस सहभागिता से भी हाशिए पर पड़े दलितों को मुख्यधारा से जुड़ने का रास्ता प्रशस्त होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
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