बीजेपी से मुकाबले में लगातार पिछड़ती जा रही कांग्रेस अब अपने सियासी समीकरण को दुरुस्त करने की कवायद में जुट गई है. पहले पंजाब में दलित नेता चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) को मुख्यमंत्री बनाया और फिर उत्तराखंड में दलित सीएम का दांव चलने के बाद अब कांग्रेस गुजरात के दलित नेता जिग्नेश मेवाणी को पार्टी ने गले लगाया है. इस तरह से कांग्रेस अब बीजेपी से दो-दो हाथ करने के लिए दलित एजेंटा सेट करती नजर आ रही है.
जिग्नेश मेवाणी को दलित आंदोलन से मिली पहचान
दलित आंदोलन (Dalit Movement) के जरिए सियासी पहचान बनाने वाले जिग्नेश मेवाणी मंगलवार को राहुल गांधी की मौजूदगी में कांग्रेस का दामन थाम रहे हैं. राजनीति में आने से पहले वह पत्रकार, वकील थे और फिर दलित एक्टिविस्ट बने और अब नेतागीरी कर रहे हैं, गुजरात(Gujarat) में निर्दलीय विधायक हैं. मेवाणी तब अचानक सुर्खियों में आए थे जब उन्होंने गुजरात के ऊना वाली घटना के बाद घोषणा की थी कि अब दलित लोग समाज के लिए मरे हुए पशुओं का चमड़ा निकालने, मैला ढोने जैसा ‘गंदा काम’ नहीं करेंगे. इसके बाद से ही मेवाणी को देश भर में सुर्खियां मिलीं.
गुजरात की आरक्षित वडगाम विधानसभा सीट (assembly seat) से जिग्नेश मेवाणी निर्दलीय चुनाव लड़े थे और जीतकर विधायक बने. कांग्रेस (Congress) ने जिग्नेश के समर्थन में अपना कैंडिडेट नहीं उतारा था, जिसका फायदा उन्हें मिला था. मेवाणी, हार्दिक पटेल और अल्पेश ठाकोर की तिकड़ी 2017 के गुजरात चुनाव में बीजेपी को चुनौती देने वाले युवा चेहरे के तौर पर उभरी थी. इसी का नतीजा था कि बीजेपी 99 सीटों पर सिमट गई थी.
हालांकि, अल्पेश ठाकोर बाद में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए जबकि हार्दिक कांग्रेस का हिस्सा बन चुके हैं और गुजरात में पार्टी के कार्यकारी प्रदेश अध्यक्ष हैं. वहीं, जिग्नेश मेवाणी की छवि प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों की आलोचना करने वाले नेता के तौर पर रही है और अब वो कांग्रेस में औपचारिक तौर पर एंट्री कर रहे हैं.
कांग्रेस की नजर 2024 के लोकसभा चुनाव पर
कांग्रेस की नजर अगले साल होने वाले विधानसभा के साथ 2024 के लोकसभा चुनाव पर भी है. चुनाव में जीत की दहलीज तक पहुंचने के लिए पार्टी जातीय समीकरणों के साथ युवाओं पर दांव लगाने जा रही है, ताकि 2024 के चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल की जा सके. दलितों को सकारात्मक संकेत देने के लिए पहले चरणजीत सिंह चन्नी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया और अब जिग्नेश मेवाणी की पार्टी में एंट्री की गई. साफ जाहिर है कि कांग्रेस अपने पुराने और परंपरागत दलित वोटों को दोबारा से वापस लाने के लिए हरकदम उठाने को तैयार है.
कांग्रेस सेट कर रही देश में दलित सियासत
दलित कार्ड के सहारे कांग्रेस गुजरात और पंजाब में ही नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश में भी बसपा की सियासी जमीन में सेंध लगाने की सबसे ज्यादा कोशिश करेगी. कांग्रेस के इस सियासी दांव खेलने की तैयारी की सबसे बड़ी वजह यह है कि चरणजीत सिंह चन्नी पूरे देश में इस समय दलित समुदाय के इकलौते मुख्यमंत्री हैं.
बीजेपी गठबंधन की देश के 17 राज्यों में सरकार है, लेकिन एक भी दलित सीएम नहीं है. इतना ही नहीं बीजेपी ने अपने गठन से लेकर आजतक किसी भी राज्य में कोई दलित सीएम नहीं बनाया जबकि कांग्रेस ने बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु से लेकर आंध्र प्रदेश और राजस्थान के बाद अब पंजाब में दलित सीएम दिया है. बिहार में जीतन राम मांझी के 2015 में सीएम पद से हटने के बाद बीते छह साल में किसी भी राज्य में दलित मुख्यमंत्री नहीं था.
जिग्नेश के बाद क्या चंद्रशेखर की एंट्री?
कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी और जिग्नेश मेवाणी के रूप में अपनी राजनीति को नए सामाजिक समीकरण का स्वरूप देने का यह फार्मूला निकाला है. इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नजर भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आजाद पर है, जिनकी प्रियंका गांधी के साथ अच्छे ट्यूनिंग है. प्रियंका गांधी उन्हें मेरठ अस्पताल में देखने तक पहुंची थी. यूपी में चंद्रशेखर की पार्टी के कांग्रेस के साथ गठबंधन की भी चर्चाएं थीं, लेकिन अभी तक अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका है.
हालांकि, प्रियंका गांधी दलित वोटों को साधने के लिए हाथरस से लेकर सोनभद्र तक दलित पीड़ितों से मिलने पहुंची थीं और सूबे के तमाम दलित मुद्दों पर योगी सरकार को घेरती रही हैं. वहीं, जिग्नेश मेवाणी के पार्टी में आने के बाद गुजरात से ज्यादा कांग्रेस के लिए दूसरे राज्य में काम आएंगे.
इसकी वजह यह है कि गुजरात में दलित वोट महज सात फीसदी है जबकि यूपी में 22 फीसदी, बिहार में 15 पंजाब में 32 फीसदी है. जिग्नेश गुजरात से पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी के स्टार प्रचारक हो सकते हैं. बसपा के दलित कोर वोटबैंक में सेंध लगाने के लिए सूबे की दलित बहुल सीटों पर उन्हें चुनाव प्रचार और उम्मीदवारों की मदद के लिए उतारा जा सकता है.
देश में दलित आबादी वाले राज्य
भारत की कुल आबादी का 16.6 फीसद दलित समुदाय है. इन्हें सरकारी आंकड़ों में अनुसूचित जातियों के नाम से जाना जाता है. देश में कुल 543 लोकसभा सीट हैं. इनमें से 84 सीटें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. दलित आबादी वाला सबसे बड़ा राज्य पंजाब है. यहां की 32 फीसदी आबादी दलित है और 34 विधानसभा सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं.
उत्तर प्रदेश में करीब 22 फीसदी दलित हैं. राज्य की 17 लोकसभा और 86 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं. बीजेपी ने यहां 2017 के विधानसभा चुनाव में 76 आरक्षित विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी. हिमाचल प्रदेश में 25.2 फीसदी, हरियाणा में 20.2 दलित आबादी है. मध्य प्रदेश में दलित समुदाय की आबादी 6 फीसदी है जबकि यहां आदिवासियों की आबादी करीब 15 फीसदी है. पश्चिम बंगाल में 10.7, बिहार में 8.2, तमिलनाडु में 7.2, आंध्र प्रदेश में 6.7, महाराष्ट्र में 6.6, कर्नाटक में 5.6, राजस्थान में 6.1 फीसदी आबादी दलित समुदाय की है.
पंजाब, यूपी, हरियाणा, उत्तराखंड
कांग्रेस के दलित कार्ड का फायदा पंजाब ही नहीं बल्कि यूपी और उत्तराखंड में भी होगा. इन राज्यों में भी दलितों की तादाद काफ़ी अच्छी है. 70 विधानसभा वाले उत्तराखंड में 18-20 फ़ीसदी दलित वोट हैं और करीब 22 सीटों पर दलित निर्णायक भूमिका में हैं. देहरादून, हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर में जाटव, दर्जी, कोरी, धोबी, जादूगर आदि दलित जातियों की अच्छी तादाद है, जहां कांग्रेस ने दलित सीएम बनाने के वादे का दांव चला है. ऐसे ही यूपी में 403 विधानसभा सीटों में से 87 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं. दलित, मुसलिम और ब्राह्मण उत्तर भारत में कांग्रेस के मज़बूत आधार रहे हैं, जिसे फिर से कांग्रेस मजबूत करने में जुटी है.
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