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    चलती रहनी चाहिए संवाद की साइकिल

    August 05, 2021

    – सियाराम पांडेय ‘शांत’

    मौजूदा दौर संवाद का है। समस्याओं का आगमन जीवन की नियति है। समस्याएं कहीं भी कभी भी आ सकती हैं। समस्याएं भी पूतना और शूर्पणखा जैसी ही होती हैं, विवेक-बुद्धि से ही उनका समाधान या निवारण किया जा सकता है। केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार सतत सीमा विस्तार के आकांक्षी चीन को इसी संवाद की ताकत से मात दे रही है। वह अगर संवाद करना जानती है तो दबाव बनाना भी। हाल ही में उसने संकेत दिया है कि चीन अगर देपसांग से अपनी सेना नहीं हटाता है तो भारत कैलाश पर अपने सुरक्षा बल तैनात करेगा।

    अमेरिका की निरंतर चाहत रही है कि भारत चीन से सीधे तौर पर भिड़े, भारत के विपक्षी दल भी कमोबेश ऐसा ही चाहते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी को पता है कि युद्ध किसी भी समस्या का स्थायी निदान नहीं है। उससे एक समस्या तो कुछ समय के लिए दूर हो सकती है लेकिन उससे जुड़ी कई समस्याएं रक्त-बीज की तरह प्रकट हो जाती हैं। समस्याओं का कभी अंत नहीं होता, वे नए-नए रूप में प्रकट होती है, हमें तो बस धैर्य और सावधानी का परिचय देना पड़ता है।

    कमांडर स्तरीय वार्ता के 12वें दौर में अगर भारत और चीन गोगरा हाइट्स से अपनी सेना हटाने को सहमत हुए हैं तो इसे बड़ी कूटनीतिक जीत ही कहा जा सकता है लेकिन चीन जैसे जटिल पड़ोसी देश जिसकी फितरत दो कदम आगे और एक कदम पीछे लौटने की रही है, उससे वार्ता करते वक्त, निर्णय लेते वक्त अपनी विवेक बुद्धि के दरवाजे हमेशा खुले रखने चाहिए। चीन जिस तरह भारतीय सीमा के नजदीक निर्माण कर रहा है, अपने एयर बेस, परमाणु मिसाइल छिपाने के स्थल विकसित कर रहा है, उसे देखते हुए भारत को भी अपने संरचनात्मक ढांचे के विकास पर ध्यान देना चाहिए।

    चीन इसलिए भी ऐसा कर पाता है कि उसके देश में सीमा से जुड़े मुद्दों पर राजनीति नहीं होती लेकिन भारत में विपक्ष सीमा को लेकर जिस तरह मुखर होता है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। कई बार तो सीमा पर राजनीति के गोले दागते हुए वह सेना के अपमान के सरहदें भी पार कर जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जानते हैं कि समस्या केवल सीमा की ही नहीं है।आंतरिक भी है। इसलिए वे हर वक्त संवाद करते हैं। मन की बात करनी हो तो भी आमजन की राय मांगते हैं और स्वतंत्रता दिवस पर भाषण करना हो तो भी वे पहले जनता के सुझाव आमंत्रित करते हैं। उसमें वे चुनते हैं कि क्या लेना है और क्या नहीं? भारत में विमर्श की संस्कृति रही है। यहां का हर ग्रंथ संवाद आधारित रहा है। प्रश्नाधारित रहा है।

    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पता है कि संवाद की शक्ति बड़ी होती है। संवाद का आधार विचार है। विचार समय पर हो और उसे परस्पर साझा किया जाए तो उसके चमत्कारी परिणाम सामने आते ही हैं। संवाद में व्यक्ति को अपना पक्ष मजबूती से रखना होता है। दूसरे का पक्ष धैर्य से सुनना होता है और उसमें अपने हित की संभावना तलाशनी होती है। संवाद एकतरफा लाभ दे, ऐसा भी नहीं है क्योंकि संवाद में शामिल लोगों के अपने हित होते हैं, अपने तर्क होते हैं। देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप ही उन्हें निर्णय करने होते हैं। व्यक्तिगत मामलों में तो एकबारगी नुकसान भी सहा जा सकता है लेकिन जहां बात समष्टि की हो, वहां एक दो बार के संवाद से बात नहीं बनती। वहां संवादों की श्रृंखला चलानी पड़ती है। उससे बड़ी से बड़ी समस्या, बड़े से बड़े विवाद सुलझाए जा सकते हैं। शायद यही वजह है कि वे देश में भी और देश के बाहर भी संवाद की गुंजाइश बनाए रखते हैं।

    उन पर किसी की न सुनने और मनमानी करने का आरोप लगाने वाले दलों के नेता उनसे अक्सर मिलते रहते हैं। इन दिनों विपक्षी दल भी परस्पर संवाद कर रहे हैं लेकिन उनके संवाद और प्रधानमंत्री के संवाद में व्यष्टि और समष्टि का अंतर है। अपने बारे में सोचना और देश के बारे में सोचना दो अलग चिन्तनधाराएँ हैं। आदि शंकराचार्य ने लिखा है कि ‘नतोहं कामये राज्यं न सौख्यं न पुनर्भवम। कामये दुःख तप्तानाम प्राणिनामार्त नाशनं। राजनीति से जुड़े लोग जबतक जन सरोकारों की चिंता नहीं करेंगे तबतक उनके संवाद में वजन नहीं आएगा। राजनीतिक दलों के बीच एकजुटता जरूरी है लेकिन उसका आधार सकारात्मक विरोध होना चाहिए। उनकी चिंता के केंद्र में गरीबों, उपेक्षितों का समग्र विकास होना चाहिए।

    मदद का आधार मुफ्त देने की परंपरा का विस्तार नहीं है बल्कि लोगों के जीवन को सुगम बनाना है। इस संसार में कुछ भी मुफ्त नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी होती है। यहां तक कि श्रम की भी। एक कवि ने लिखा है कि ‘श्रम का मूल्य चुकाना होगा। आज खिल गए तो क्या कल है सुमन तुम्हें मुरझाना होगा।’ मौका सबको मिलता है लेकिन सफल वही होता है जो संवाद का महत्व समझता और सबको साथ लेकर चलता है। काश, जनता को हर सुविधा मुफ्त देने के पक्षधर राजनीतिक दल इस बात को समझ पाते।

    एक दिन साइकिल से संसद आना या साइकिल रैली निकालना ही काफी नहीं है। नेताओं को अपने दैनंदिन व्यवहार में भी साइकिल को अहमियत देनी चाहिए। इससे स्वास्थ्य और धन दोनों का लाभ होगा। संवाद और विचार संतुलन की साइकिल हमेशा चलती रहनी चाहिए।विरोध इस कदर होना चाहिए कि जब कभी मिलें तो नजरे झुकाने की जरूरत न पड़े। सिक्के के दो पहलू होते हैं। संवाद में जो हानि-लाभ का विचार नहीं करता, दुखी होता है। राजनीतिक दलों को संवाद करना चाहिए लेकिन संवाद पूर्व एक नेता तो चुन ही लेना चाहिए। वैसे भी बिना दूल्हे के बारात बेमानी लगती है।

    (लेखक हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)

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